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गायन शैली के अनुसार चुनता हूं साज

५ जुलाई २०१४

पिछ्ले एक दशक के दौरान विनय मिश्र भारत के श्रेष्ठ हारमोनियम वादकों में गिने जाने लगे हैं. वे सभी प्रमुख गायकों के साथ संगत कर चुके हैं. वे कलाकार की आवाज और शैली के अनुरूप साज चुनते हैं.

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Vinay Mishra
तस्वीर: DW/K. Kumar

विनय मिश्र का पहला महत्वपूर्ण सार्वजनिक कार्यक्रम 2001 में भुवनेश्वर में हुआ जहां उन्होंने जानी-मानी शास्त्रीय गायिका अश्विनी भिड़े देशपांडे के साथ संगत की. उस समय उनकी आयु केवल उन्नीस वर्ष थी. गिरिजा देवी, प्रभा अत्रे, उल्हास कशालकर, छन्नूलाल मिश्र, राजन मिश्र-साजन मिश्र, और विद्याधर व्यास समेत देश के सभी बड़े कलाकारों के साथ विनय मिश्र संगत कर चुके हैं और कर रहे हैं. हाल ही में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘हिंदुस्तानी संगीत में हारमोनियम का योगदान' विषय पर पीएचडी की है. उनके साथ हुई एक लंबी बातचीत के कुछ अंश:

हारमोनियम तो विदेशी साज है. यह भारत में कब आया और किस कारण से इतना लोकप्रिय हो गया, इस बारे में कुछ बताइये.

हारमोनियम 1860 से 1875 के बीच समुद्री रास्ते से सबसे पहले गोवा और कोलकाता आया. उस समय इसे बजाने वाला एक कुर्सी पर बैठकर पैर से हवा पंप करता था. आज जो इसका स्वरूप है, उसे बनाने में द्वारकानाथ घोष एंड कंपनी का बहुत बड़ा योगदान है. द्वारकानाथ घोष प्रसिद्ध संगीतज्ञ ज्ञानप्रकाश घोष के दादा थे. रवीन्द्रनाथ टैगोर और सुरेंद्रमोहन टैगोर ने उन्हें सुझाव दिया कि इसे फर्श पर बैठकर बजाने योग्य बनाया जाए क्योंकि हमारे देश में संगीत की महफिलें फर्श पर बैठकर ही होती हैं. ऐसे में एक कलाकर कुर्सी पर बैठकर कर साज बजाए यह अजीब लगता है. तो इस तरह इसका वर्तमान रूप अस्तित्व में आया.

हारमोनियम के सुरों में एक चमक है और आवाज में भराव है. इसे लाने-ले जाने में आसानी है. फिर इसे एक बार अच्छी तरह ट्यून करने के बाद लंबे समय तक ट्यून करने की जरूरत नहीं पड़ती. इसलिए यह लोकसंगीत, नाटक और रामलीला से लेकर शास्त्रीय संगीत तक, सभी तरह के संगीत में अपनी जगह बनाने में सफल रहा.

आप हारमोनियम की ओर कैसे आकृष्ट हुए? किस उम्र में सीखना शुरू किया किससे?

मेरे दादा राजराम मिश्र घर में भजन गाते वक्त हारमोनियम बजाते थे. उन्हें देखकर मुझे भी बजाने का मन करता था. फिर उनकी सख्त हिदायत थी कि कोई उनका हारमोनियम न छूए. इसलिए भी उसके प्रति आकर्षण पैदा हुआ. बाद में मेरी रुचि देखकर उन्होंने छुटपन में ही मुझे सिखाना शुरू किया. बाद में मैंने प्रसिद्ध सारंगीवादक उस्ताद चांद खां के पुत्र उस्ताद महताब खां से हारमोनियम की बाकायदा शिक्षा लेनी शुरू की. उस्ताद चांद खां विद्याधरी बाई, रसूलन बाई और सिद्धेश्वरी देवी जैसी शीर्षस्थ गायिकाओं के साथ सारंगी पर संगत किया करते थे. फिर खयाल गायन के साथ संगत के गुर सीखने मैं प्रसिद्ध हारमोनियम वादक अप्पाजी जलगांवकर के पास गया क्योंकि उस्ताद महताब खां ने मुझे ठुमरी, दादरा और कजरी जैसी बनारसी चीजों की तालीम दी. लेकिन सिर्फ तीन साल ही सीख पाया क्योंकि दुर्भाग्य से अप्पाजी का निधन हो गया.

एक जमाने में हारमोनियम को भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए अनुपयुक्त माना जाता था. आकाशवाणी में तो दशकों तक यह प्रतिबंधित रहा. इसके पीछे क्या कारण है? आप हारमोनियम की सीमाओं का अतिक्रमण कैसे करते हैं?

आपकी बात ठीक है. दरअसल पहले लोग हारमोनियम की ट्यूनिंग पर अधिक ध्यान नहीं देते थे. लेकिन बाद के हारमोनियम वादकों ने साज की तकनीकी जानकारी भी प्राप्त की ताकि सुर सच्चे निकलें. वरना गायक को हारमोनियम बेसुरा लगेगा. फिर वह क्यों उसे संगत के लिए लेगा?

क्योंकि हारमोनियम में मींड़ और श्रुति नहीं निकाली जा सकती, इसलिए भी माना जाता था कि यह हमारे संगीत के लिए उपयुक्त नहीं है. लेकिन बाद में लोगों ने सुर पर बहुत ध्यान दिया. हारमोनियम से मुरकियां बहुत अच्छी निकाली जा सकती हैं, गिटकरी और गमक के अलावा कणस्वर यानि एक स्वर के साथ किसी अन्य स्वर का हल्का-सा स्पर्श, उसका भी बहुत अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता है. मैं कोशिश करता हूं कि गायक की शैली को समझ कर उसके साथ चलूं.

आपको रोज अलग-अलग शैलियों में गाने वालों के साथ संगत करनी होती है. सबको कैसे साधते हैं?

मेरे पास आठ हारमोनियम हैं. मैं कलाकार की आवाज और शैली को ध्यान में रखकर साज चुनता हूं. कार्यक्रम से पहले उस कलाकार की रिकॉर्डिंग सुनता हूं और उसके संगीत को समझने की कोशिश करता हूं. उसके बाद ही मैं संगत के लिए बैठता हूं ताकि संगत से गायक की प्रस्तुति बेहतर हो सके, खराब न हो.

आपके प्रेरणास्रोत कौन हैं?

सुना है कि ग्वालियर राजघराने के भैयाजी गणपतराव जैसा हारमोनियम किसी ने नहीं बजाया. लेकिन उनकी तो कोई रिकॉर्डिंग है नहीं. लेकिन यह सुनकर प्रेरणा मिलती है कि वे हारमोनियम पर लगभग हर चीज निकाल लेते थे. पंडित भीमसेन जोशी के साथ शुरुआती दिनों में एकनाथ ठाकुरदास हारमोनियम पर संगत करते थे. उनकी रिकॉर्डिंग्स को सुनकर मन करता है कि काश, मैं भी ऐसा बजा सकूं. इन दिनों डॉ. अरविंद थत्ते बेहद सूझबूझ के साथ बजाते हैं. उनसे भी प्रेरणा मिलती है.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा