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समाज

गरीबों को कानूनी सलाह का अधिकार, दिक्कत कहां है?

शिवप्रसाद जोशी
१९ फ़रवरी २०२०

लीगल सर्विसेज अथोरिटीज एक्ट के तहत  वंचित तबकों के लोग, बच्चे और महिलाएं कानूनी मदद के हकदार हैं लेकिन देखा गया है कि इस एक्ट को लेकर जागरूकता की कमी और प्रशासनिक लापरवाहियों से लोग कानूनी मदद से वंचित रह जाते हैं.

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Türkei Fotoreportage Justiz
तस्वीर: DW/U. Danisman

गरीबों को समय पर सही सलाह नहीं मिलती, लिहाजा उन्हें अपने साथ हुई नाइंसाफी का न्याय भी नहीं मिलता. इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2019 में देश की न्यायिक व्यवस्था और पुलिस सिस्टम की कई बुनियादी खामियों और जरूरी सुधारों का विस्तार से विवरण दिया गया है.

इसके तहत न्यायिक व्यवस्था के चारों घटक- पुलिस, जेल, न्यायपालिका और कानूनी सहायता के आधार पर देश के सभी राज्यों में न्यायिक प्रणाली के हाल का पता लगाया है. न्यायिक प्रणाली चरमराई हुई हालत में बताई गई है, और तो और ये भी पता चलता है कि कानूनी सहायता जैसा विधायी अधिकार भी जरूरतमंदों के काम नहीं आ रहा है.

मिसाल के लिए पैरालीगल वॉलंटियर की जरूरत. यौन शोषण, बलात्कार और उत्पीड़न आदि ऐसे कई मामले में हैं जिनमें पीड़िता या सरवाइवर को न्याय के लिए भटकना होता है. पुलिस में मामला दर्ज कराने भी जाएं तो अक्सर कई किस्म के दबाव और अड़चनें आ जाती हैं. कई बार मामले पर लीपापोती करने या सुलह करने का दबाव भी बनाया जाता है.

लीगल सर्विसेज अथोरिटीज एक्ट 1987 (एलएसए एक्ट) के तहत गरीबों, वंचित तबकों, एससी एसटी, विकलांग, मनोरोगी, किसी बड़ी आपदा या जातीय हिंसा के पीड़ित या हिरासती- इन सब श्रेणियों के तहत आने वाले नागरिकों को कानूनी मदद मुफ्त में उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान है. लेकिन अक्सर गरीब पीड़ितों के लिए अदालती राह बहुत कठिन हो जाती है. ऐसी विपरीत पस्थितियों में मदद के लिए पुलिस स्टेशनों पर पैरालीगल वॉलंटियरों, पीएलवी की जरूरत पड़ती है जो पीड़ित या उनके परिजनों को सही कानूनी सलाह दे सकें, एफआईआर लिखाने से लेकर वकील करने या अदालती प्रक्रियाओं में उन्हें हरसंभव मदद कर सकें.

कानून के तहत स्थापित लीगल सर्विस प्राधिकरणों के जरिए 1995 से करीब डेढ़ करोड़ लोगों तक ही ये सहायता पहुंचाई जा सकी है. यूं तो एलएसए एक्ट के तहत जिला स्तर पर कानूनी सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) भी बनाए गए हैं लेकिन उनकी हालत भी दयनीय बताई जाती है. जानकारों के मुताबिक लोगों में भी ऐसी सेवाओं के बारे में जानकारी का अभाव देखा गया है. इसलिए वे यहां से वहां कभी अनभिज्ञता में तो कभी झांसे में भटकने पर विवश होते हैं.

Indien  Supreme Court in New Delhi Oberster Gerichtshof
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Qadri

तालुका स्तरीय कानूनी सेवा कमेटियां भी बनाई गई हैं. पिछले साल इन कानूनी सेवाओं में करीब 64 हजार वकील और 69 हजार पैरालीगल वालंटियर जोड़े गए थे. संख्या तो पर्याप्त दिखती है लेकिन धरातल पर मदद नहीं मिल पाती. वॉलंटियरों में भी महिलाएं सिर्फ 36 प्रतिशत हैं. बिहार और यूपी में ये प्रतिशत 22.3 और 24.2 का है. समझा जा सकता है इन राज्यों में गरीब महिलाएं और उनके परिजन उत्पीड़न की रिपोर्ट लिखाने या कानूनी लड़ाई के लिए किन भीषण मुश्किलों से गुजरते होंगे. डीएलएसए के वकीलों में भी महिलाएं सिर्फ 18 प्रतिशत हैं. राजस्थान, ओडीशा और यूपी में दस प्रतिशत से कम महिला वकील, लीगल सेवा प्राधिकरणों के तहत रखी गई हैं.

टाटा ट्रस्ट्स की ओर से जारी और छह स्वतंत्र संगठनों के सहयोग से तैयार और डाटा पत्रकारिता के लिए मशहूर वेबसाइट इंडिया स्पेंड में प्रकाशित इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत की 80 प्रतिशत आबादी कानूनी मदद हासिल करने की पात्रता रखती है लेकिन इस पर सालाना प्रति व्यक्ति खर्च सिर्फ 75 पैसे का है. न्यायपालिका पर भारत अपनी जीडीपी का महज दशमलव शून्य आठ प्रतिशत ही खर्च करता है. ये लगभग नगण्य खर्च ही माना जाएगा. राज्य के कुल खर्च में पुलिस का बजट तीन से पांच प्रतिशत पाया गया और जेल का बजट दशमलव दो प्रतिशत. न्यायिक सेवाओं मे महिलाओं की उपस्थिति बहुत कम है. पुलिस में सात प्रतिशत, जेल स्टाफ में दस प्रतिशत और हाई कोर्टों और निचली अदालतों के जजों में साढ़े 26 प्रतिशत. 

एक अनुमान के मुताबिक न्यायिक व्यवस्था की बदहाली की कीमत, देश को जीडीपी में नौ प्रतिशत के नुकसान से चुकानी पड़ती है. पीड़ितों पर जो बीतती है सो अलग. इसका असर वैश्विक सूचकांकों में देश की रैंकिंग पर भी पड़ता है, फिर वो चाहे मानवाधिकार हो या "ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस" का इंडेक्स या शैक्षिक हॉटस्पॉट. दीर्घकालीन आर्थिक वृद्धि भी प्रभावित होती है. ध्यान रहे कि 2019 के ही रूल ऑफ लॉ इंडेक्स में 126 देशों की सूची में भारत 68वें नंबर पर है, श्रीलंका और नेपाल से भी नीचे.

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तस्वीर: DW/S. Mishra

पैरालीगल वॉलंटियरी की कमी का मामला हो या अदालती चक्कर, लीगल सेवाओं की ओर से महिलाओं के बीच यूं तो जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं लेकिन साइबर अपराधों के दौर में भी वॉलंटियरों को अपडेट रहने की जरूरत है. महिलाओं के खिलाफ साइबर अपराधों में भी तेजी आई है. यह भी जरूरी है कि जागरूकता और परामर्श कैंप बड़े पैमाने पर और निरंतरता में देश के दूरस्थ इलाकों और ग्रामीण इलाकों में लगाए जाएं.

नागरिकों को इस बारे में अपडेट करते रहने में कोई हर्ज नहीं कि उनके पास कानूनी अधिकार हैं और वे सभी तरह की मदद के हकदार हैं. क्या ही अच्छा हो कि छोटे छोटे समूह इन प्राधिकरणों की देखरेख में ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के बीच बनें जिनमें स्कूल कॉलेज जाने वाली लड़कियों से लेकर माओं और काम पर जाने वाली महिलाओं को शामिल किया जाए. उन्हें भी व्यापक जागरूकता अभियान के वॉलंटियर के रूप में प्रशिक्षित किया जा सकता है.

प्राधिकरणों में खाली पदों को प्राथमिकता के आधार पर भरा जाए. महिला वॉलंटियरों की संख्या बढ़ानी होगी. कानूनी मदद हासिल कराने की व्यवस्था को हर स्तर पर सुधारा जाना चाहिए, दफ्तरी कामकाज के स्तर पर भी और फील्ड स्तर पर भी. पीड़ितों की मदद के लिए ऐसा पारदर्शी और सहज तरीका विकसित करना ही होगा जिसमें पुलिस के पास जाने से पहले ही कानूनी सलाह उनके पास उपलब्ध हो. सुधार और आधुनिकीकरण, कोई एक दिन की प्रक्रिया नहीं है. एक निरंतर अभियान की जरूरत है.

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