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क्या इंडो-पैसिफिक में दबदबे के लिए गंभीर हो रहा है अमेरिका?

राहुल मिश्र
२ अप्रैल २०२२

बाइडेन का 1.8 बिलियन का इंडो पैसिफिक फंड, आसियान के साथ वाशिंगटन में विशेष शिखर वार्ता की घोषणा और इंडो पैसिफिक में व्यापार वार्ता की पहल. लगता है कि इंडो पैसिफिक में उभरती अमेरिकी रणनीति के ये नए पाये हैं.

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बाइडेन प्रशासन ने इंडोपैसिफिक के लिए कई कदमों और फंड का एलान किया है
बाइडेन प्रशासन ने इंडोपैसिफिक के लिए कई कदमों और फंड का एलान किया हैतस्वीर: Patrick Semansky/AP Photo/picture alliance

इसी हफ्ते अमेरिकी प्रशासन ने अमेरिकी संसद को अपना सालाना बजट प्रस्ताव भेजा है. यह धनराशि अमेरिका के 2023 के रक्षा बजट का हिस्सा है जिसकी कुल धनराशि 773 बिलियन डालर है.

इस हफ्ते की शुरुआत में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 1.8 अरब डालर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र पर खर्च करने की घोषणा की. साथ ही उन्होंने अतिरिक्त 40 करोड़ डालर भी इंडो-पैसिफिक में लगाने की पेशकश कर दी.

ये 1.8 अरब डालर मुक्त, सुरक्षित, और कनेक्टेड इंडो-पैसिफिक व्यवस्था को मूर्त रूप देने के लिए खर्चे जाएंगे. 400 मिलियन डालर की राशि चीन के इंडो-पैसिफिक में दुष्प्रभाव को रोकने में खर्च होगी. आश्चर्य की बात है कि वाइट हाउस के बयान में इन 40 करोड़ डॉलरों को "चाइनीज मलाइन इन्फ्लुएंस फंड की संज्ञा दी है.

इससे जाहिर होता है कि बाइडेन प्रशासन इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन से आर्थिक मोर्चे पर भी दो-दो हाथ करने को तैयार है.

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बाइडेन से पहले भी हुई हैं कोशिशें

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही अमेरिका की सैन्य और कूटनीतिक मौजूदगी पूर्वी और उत्तरपूर्वी एशिया के अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अभिन्न हिस्सा रही है.

जैसे जैसे ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य यूरोपीय शक्तियां एशिया से बाहर खिसकती गयीं, अमेरिका (सोवियत रूस और चीन भी) इस क्षेत्र में ताकतवर होते गए. बीसवीं सदी के आधे हिस्से और इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में अमेरिका की मौजूदगी कमोबेश मजबूत रही. 

लेकिन पिछले दस सालों में जैसे जैसे चीन ताकतवर होता गया और अमेरिका का ध्यान अफगानिस्तान, पश्चिमी एशिया, और अन्य क्षेत्रों में खिंचता गया, एशिया के तमाम देशों को लगने लगा कि शायद अमेरिका का ध्यान उनकी और नहीं है. 

दक्षिणपूर्वी एशिया के तमाम देशों को अमेरिका की गैरमौजूदगी खली, और उन्होंने इस पर अपनी प्रतिक्रिया भी जाहिर की. दिलचस्प बात यह रही है कि पिछले पांच सालों में अमेरिका को लेकर भी चीन के तेवर बदले हैं.

खुद को दुनिया का चौधरी समझ बैठे अमेरिका को जब यह एहसास हुआ कि चीन उसके वर्चस्व के लिए ही खतरा बना गया है तब उसके व्यवहार में परिवर्तन आने शुरू हुए.

इंडो पैसिफिक में अमेरिका को अपने दबदबे की फिक्र हो रही है
इंडो पैसिफिक में अमेरिका को अपने दबदबे की फिक्र हो रही हैतस्वीर: U.S. Navy/ZUMAPRESS/picture alliance

हालांकि बराक ओबामा के कार्यकाल में ही "पिवट टू एशिया" जैसी महत्वाकांछी परियोजनाएं शुरू हो गयी थीं, लेकिन डॉनल्ड ट्रंप के समय में अमेरिका और चीन के संबंधों में तल्खी भी आयी और चीन को काबू करने की व्यापक कोशिशें भी शुरू हुई.

अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध के साथ ही साथ इंडो-पैसिफिक रणनीति पर भी आधिकारिक मुहर लगी और भारत के इस रणनीति में प्रमुख स्थान पर भी व्यापक चर्चाएं हुईं. ट्रंप के बेबाक अंदाज चीन को रास नहीं आये और दोनों के बीच तनातनी बढ़ती गयी.

नतीजा यह हुआ कि इंडो-पैसिफिक में चीन को घेरने के ट्रंप के मंसूबों को अमली जामा पहनाया जाने लगा. हालांकि ट्रंप की अपनी खामियां थीं और शायद उनके अंदाज दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों को ज्यादा रास नहीं आये.यह भी पढ़ेंः यूरोप की हिंद प्रशांत फोरम में नाम लिए बिना होती रही चीन की चर्चाजो बाइडेन के गद्दी संभालने के बाद ऐसा लगा कि अमेरिका शायद चीन को लेकर लचर पड़ जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बाइडेन ने ना सिर्फ ट्रंप प्रशासन की नीतियों को जारी रखा है बल्कि तमाम वायदों को पूरा करने की कोशिश भी शुरू की है.

इसके पीछे कहीं ना कहीं यह समझ भी है कि बेल्ट और रोड परियोजना के बाद से चीन आर्थिक मोर्चे पर अमेरिका से आगे निकल रहा है. यही वजह है कि बाइडेन प्रशासन अब रूस के साथ - साथ इंडो-पैसिफिक पर भी नजर जमाये बैठा है.

इंडो-पैसिफिक इकनामिक फ्रेमवर्क

अक्टूबर 2021 में हुई ईस्ट एशिया समिट के दौरान अपने ऑनलाइन बयानों में बाइडेन ने इस फ्रेमवर्क की बात पहली बार की थी. इस फ्रेमवर्क के तहत कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर साथ काम करने की बात कही गयी है जिसमें व्यापार बढ़ोत्तरी, डिजिटल टेक्नोलॉजी और इकॉनमी, सप्लाई चेन, स्वच्छ ऊर्जा, इंफ्रास्ट्रक्चर आदि मुद्दों पर काम होने की उम्मीद है.

इंडो पैसिफिक इकनोमिक फ्रेमवर्क के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं.

पहली वजह यह है कि इस फ्रेमवर्क के माध्यम से अमेरिका चीन को बाहर रख कर सप्प्लाई चेन रेसिलिएंस बढ़ाने पर काम करना चाहता है. उसकी यह भी कोशिश है कि 5जी तकनीक जैसे मसलों पर इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के देश चीन के बजाय पश्चिमी देशों की तकनीकी सुविधाओं का इस्तेमाल करें.

क्वाड की बैठकों को भी अमेरिका खूब महत्व दे रहा है
क्वाड की बैठकों को भी अमेरिका खूब महत्व दे रहा हैतस्वीर: Sarahbeth Maney/Pool/Getty Images

दूसरी वजह यह है कि रीजनल कंप्रिहेंसिव इकनोमिक पार्टनरशिप (आर. सी. ई. पी.) मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर और चीन की बेल्ट और रोड परियोजना की सफलता के बाद अमेरिका को यह एहसास हो चला है कि आर्थिक मोर्चे पर वह चीन से काफी पीछे हो गया है.

यही वजह है कि अब अमेरिका व्यापार से लेकर रक्षा, तकनीकी सहयोग से कूटनीतिक मुलाकातों - सभी पर फोकस कर रहा है.

इसी सिलसिले में अमेरिका ने यह भी प्रस्ताव किया था कि अमेरिका और आसियान के देश एक शिखर वार्ता में शिरकत करें. हालांकि यह वार्ता कुछ समय के लिए स्थगित हो गयी है लेकिन इसी हफ्ते सिंगपुर के प्रधानमंत्री ली शिन लूंग अमेरिका पहुंचे.

सिंगापुर आसियान क्षेत्र में अमेरिका का सबसे बड़ा आर्थिक साझेदार और करीबी सामरिक सहयोगी देश है. अपनी चर्चाओं में कहीं न कहीं बाइडेन प्रशासन ने आसियान क्षेत्र का रुख भांपने की कोशिश भी की होगी.

सिंगापुर ने यूक्रेन मसले पर रूस की जम कर आलोचना की है. हालाकिं फिलीपींस के अलावा आसियान के दूसरे देश इस मामले में चुप्पी साधे हुए हैं लेकिन बाइडेन की कोशिश है कि दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों को रूस और अमेरिका से जुड़े मामलों में अपनी तरफ लाया जाये.

दूसरी और म्यांमार का मुद्दा भी पेचीदा है. खास तौर पर तब जब कि आसियान के 2022 में अध्यक्ष देश कंबोडिया ने शिखर वार्ता के प्रस्ताव पर टालमटोल कर दिया है. म्यांमार को लेकर भी कंबोडिया अमेरिका के साथ खड़ा नहीं दिखता.

प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है अमेरिका
प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है अमेरिकातस्वीर: U.S. Navy/ZUMAPRESS.com/picture alliance

इतना आसान नहीं है अमेरिका का रास्ता

जाहिर है यह सब इतना आसान नहीं है. दक्षिणपूर्वी एशिया के देश चीन पर काफी निर्भर हैं और वह सिर्फ अमेरिका के भड़काने पर चीन से नाता नहीं तोड़ेंगे.

जब तक अमेरिका की दक्षिणपूर्वी एशिया और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में प्रतिबद्धता पूरी तरह स्थापित नहीं हो जातीं और  अमेरिका अपने वादों को जमीनी हकीकत में नहीं बदलता, तब तक नीतियां सिर्फ कागजी रहेंगी और उनका हासिल जबानी दोस्ती की खोखली गर्मजोशी.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)

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