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कोरोना महामारी बिगाड़ रही है गांवों की आर्थिक सेहत

मनीष कुमार
२१ मई २०२१

कोरोना की तेज रफ्तार का असर बिहार में गांवों की आर्थिक सेहत पर पड़ने लगा है. रोजी-रोटी के संसाधन तो संकुचित हो ही गए है, उपज के भी वाजिब दाम नहीं मिल रहे. लॉकडाउन के कारण उन्हें बाजार नहीं मिल पा रहा है.

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लॉकडाउन के कारण शहरों में भी काम बाधित होने से आमदनी पर असर पड़ा हैतस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

कोविड संक्रमण की दूसरी लहर गांवों को तेजी से अपनी चपेट में ले रही है. जागरूकता की कमी, कमजोर मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर व लचर स्वास्थ्य व्यवस्था के कारण हो रही मौतों से भय का वातावरण बन गया है. नतीजतन खेती व अन्य आर्थिक गतिविधियों पर इसका खासा असर पड़ा है. गांवों में लोग खेती, पशुपालन या फिर मजदूरी करके जीवन-यापन करते हैं. परंपरागत खेती में गेहूं-चावल जैसे मोटे अनाज को छोड़ दें तो लॉकडाउन के कारण सब्जी, फलों व डेयरी उत्पादों का उठाव बुरी तरह प्रभावित हुआ है. व्यापारी गांवों तक नहीं पहुंच पा रहे. इस वजह से इन्हें बाजार उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. लॉकडाउन के कारण बृहत स्तर पर शादी-विवाह जैसे अन्य धार्मिक व सामाजिक आयोजनों पर रोक लगी है. होटल, रेस्तरां व मिठाई या खानपान की अन्य दुकानें काफी दिनों से बंद हैं. इस कारण दूध व अन्य डेयरी उत्पाद, सब्जी व फलों की मांग काफी कम हो गई है.

स्टोरेज की उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण इन उत्पादों को किसान अपने पास रखने में सक्षम नहीं है. उनकी रोजी-रोटी तो रोजाना इनसे होने वाली आमदनी पर निर्भर है. उठाव नहीं हो पाने के कारण या तो इन्हें औने-पौने भाव में बेचना पड़ रहा है या फिर उन्हें फेंकना पड़ रहा है. कोरोना की दूसरी लहर ने उन किसानों की हालत खास्ता कर दी है जो भूमिहीन होने के कारण बटाईदारी कर या एक-दो गाय, भैंस पाल कर जीवन-यापन करते हैं. दुग्ध समितियां या कंपनियां जो गांवों से दूध कलेक्ट करतीं हैं, उनकी बिक्री में काफी कमी आने से उनका कलेक्शन भी घट गया है. किंतु दुग्ध उत्पादन तो ज्यों का त्यों है. जानकार बताते हैं कि कुल दूध उत्पादन का 60 प्रतिशत इस्तेमाल होटलों, मिठाई या चाय की दुकानों में हैं जबकि 40 फीसद इस्तेमाल संगठित क्षेत्र यानी सरकारी, सहकारी या निजी कंपनियां प्रोसेसिंग के लिए करती हैं.

Indien Wanderarbeiter
गांवों में काम की कमीतस्वीर: DW/M. Kumar

दूध के कारोबारी हुए कोरोना से बेहाल

मुंगेर जिले के जमालपुर शहर की प्रसिद्ध बांग्ला मिठाई के लिए दुकानों में दूध सप्लाई करने वाले पशुपालक करीब सौ क्विंटल दूध रोजाना पहुंचा रहे थे. लेकिन दुकान बंद होने से इनकी परेशानी बढ़ गई है. बरियारपुर निवासी अशोक यादव कहते हैं, "कुछ घरों में दूध पहुंचा रहे हैं, फिर भी काफी दूध बच जाता है जो बर्बाद हो रहा है. पूरा आर्थिक चक्र ही गड़बड़ा गया है." दरअसल, लॉकडाउन के गाइडलाइन के कारण ऐसे पशुपालक ज्यादा दूरी तक जाकर बेच भी नहीं पाते. सब्जी या फल उपजाने वाले किसानों का भी यही हाल है. खरीददार नहीं मिल पाने के कारण उनके लिए लागत निकालना भी मुश्किल हो रहा है.

मुजफ्फरपुर जिले के कई गांवों में अन्य जिलों के अलावा असम, नेपाल व पश्चिम बंगाल तक के व्यापारी टमाटर की खरीद के लिए पहुंचते थे. कोरोना के कारण इस बार वे नहीं आ रहे हैं. इसी जिले के मीनापुर के किसान अजय बाबू कहते हैं, "हालत इतनी बुरी है कि जो 25 किलो टमाटर 250 रुपये में बिक रहा था, उसे अब महज 30-40 रुपये में बेचना पड़ रहा है. इससे खर्चा भी निकलना मुश्किल है, आमदनी की तो बात छोड़िए." लीची-आम जैसे फल बेचने वाले तो लॉकडाउन में बिक्री की तय समय सीमा को बढ़ाने की मांग कर रहे हैं. पटना फ्रूट एंड वेजिटेबल एसोसिएशन के अध्यक्ष शशिकांत प्रसाद कहते हैं, "लीची-आम जैसे नाजुक फल 12 से 24 घंटे में खराब होने लगते हैं. इसलिए बिक्री के लिए रोजाना कम से कम एक घंटा अतिरिक्त समय मिलना चाहिए. अन्यथा मंडी में इन फसलों के उठाव पर इसका असर पड़ेगा. लॉकडाउन के कारण व्यापार वैसे ही मंदा है."

गांव वालों ने कैसे रोका कोरोना, देखिए

पीले सोने पर भी कोरोना की काली नजर


मोटे अनाज यथा गेहूं-चावल, चना उपजाने वाले किसान भी बेहाल हैं. खगड़िया जिले के चौथम निवासी ब्रजेश सिंह कहते हैं, "लॉकडाउन के पहले गांव आकर व्यापारी साढ़े सोलह-सत्रह सौ रुपये प्रति क्विंटल गेहूं ले जा रहे थे. जैसे ही लॉकडाउन लगा, वे पंद्रह सौ रुपये प्रति क्विंटल भी देने को तैयार नहीं हैं." इसी गांव के अजय शर्मा कहते हैं, "जो ठोस किसान हैं वे कुछ दिनों तक अनाज रख लेंगे, किंतु जिन्हें बेटी की शादी या अन्य काम करना है वे तो औने-पौने दाम में इसे बेचेंगे ही. समझ में नहीं आता, कोरोना से कब छूटेंगे. ऐसे में तो जीना मुहाल हो जाएगा." अगर खेती की लागत ही नहीं निकलेगी या फिर कम आमदनी होगी तो किसानों की आर्थिक सेहत ही बिगड़ जाएगी.
बिहार में पीले सोने के नाम से विख्यात मक्के की फसल भी कोरोना की मार से अछूती नहीं है. खगड़िया जिले के गोगरी निवासी किसान अजय चौधरी कहते हैं, "2019 में मक्के की बिक्री प्रति क्विंटल 1800 रुपये हुई थी, किंतु कोरोना के कारण पिछले साल 1300 रुपये का रेट मिला और इस बार भी यही रेट मिल रहा है." मक्का व्यवसायी नरेश गुप्ता कहते हैं, "बाहर नहीं भेजे जाने के कारण कीमत में गिरावट आई है. कोरोना के कारण आगे क्या होगा, यह सोचकर हर कोई डरा हुआ है. इसलिए पूर्णिया की गुलाबबाग जैसी मंडी में भी डिमांड कम है." स्थिति की व्याख्या करते हुए अर्थशास्त्र के प्राध्यापक डॉ वीएन खरे कहते हैं, "किसान की पूरी प्लानिंग उपज से प्राप्त धनराशि पर निर्भर करती है. अमूमन 30 प्रतिशत हिस्सा वह खेती के लिए रखता है, करीब 30-35 फीसद राशि जीवन-यापन के लिए और फिर करीब इतना ही हिस्सा वह अन्य जरूरी कार्यो के लिए रखता है चाहे वह भवन निर्माण हो या बाल-बच्चे की पढ़ाई या फिर बेटी की शादी."

Indien | Coronakrise: Wanderarbeiter kehren zurück
परेशान हैं कोरोना की वजह से लोगतस्वीर: Manish Kumar/DW

परियोजनाएं ठप पड़ने से रुका नकदी का प्रवाह

कोरोना की दूसरी लहर व लॉकडाउन के कारण ग्रामीण इलाकों में रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर यथा सड़क, आवास, सिंचाई व निर्माण संबंधी परियोजनाओं का काम रुक गया है. जानकार बताते हैं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था में खेती का हिस्सा बमुश्किल 40 प्रतिशत ही है. शेष हिस्सा गैर कृषि कार्यों का है. जाहिर है इनमें परियोजनाओं या फिर अन्य स्रोतों से प्राप्त धनराशि ही अहम है. वैसे भी अप्रैल से जून तक गांवों में रोजी-रोटी के लिए लोग खेती का काम नहीं होने से अर्थोपार्जन के लिए मजदूरी पर निर्भर रहते हैं. कोरोना काल में विनिर्माण के सारे कार्य ठप हैं जिससे नकदी का प्रवाह रुक गया है. हालांकि मनरेगा के जरिए लोगों को काम दिया जा रहा है. किंतु इसके तहत आठ घंटे काम करने पर मिलने वाली महज 198 रुपये की मजदूरी उन्हें आकर्षित नहीं कर रही है. इतनी कम राशि में तो एक छोटे परिवार की परवरिश भी बमुश्किल ही हो सकेगी. श्रमिक बतौर मजदूरी कम से कम 300 रुपये की मांग कर रहे हैं.

बाहर से लौटे प्रवासी श्रमिकों को केंद्र प्रायोजित गरीब कल्याण रोजगार अभियान के तहत भी कम से कम 125 दिनों तक रोजगार देने की व्यवस्था की जा रही है. वहीं कामगारों के लिए पिछली बार की तरह ही स्किल मैपिंग कराने की तैयारी है, ताकि उनकी क्षमता के अनुरुप उन्हें रोजगार उपलब्ध कराया जा सके. कोरोना की दूसरी लहर में यह भी देखने में आया है कि पिछले साल की तरह इस बार प्रवासियों का गांवों की ओर अपेक्षाकृत कम पलायन हुआ है. लॉकडाउन के कारण शहरों में भी काम बाधित होने से उनकी आमदनी पर असर पड़ा है. इसलिए वे अपने परिजनों को भी पर्याप्त राशि नहीं भेज पा रहे हैं. इससे भी गांवों की अर्थव्यवस्था में नकदी का प्रवाह बाधित हुआ है. कोविड-19 की पहली लहर ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर खासा नकारात्मक प्रभाव डाला था. दूसरी लहर भी जितनी लंबी होगी,  किसानों-खेतिहरों व मजदूरों की आमदनी व क्रय शक्ति भी उसी अनुपात में कमजोर होती जाएगी. अंतत: इससे गरीबी में ही इजाफा होगा.

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