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छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए बढ़ रहा है खतरा

१ सितम्बर २०२०

छत्तीसगढ़ में कोविड-19 के बढ़ते हुए मामलों के बीच सुदूर इलाकों में कुछ ऐसे आदिवासी भी हैं जिन्होंने महामारी के बारे में सुना ही नहीं है. उन लोगों तक जानकारी पहुंचाने के लिए नई कोशिशें की जा रही हैं.

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Indien Das Coronavirus in Stammesgemeinschaften -  Gemeindetreffen von Stammesangehörigen in Parcheli
तस्वीर: DW/D. Vaid

मार्च में जब भारत में कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए तालाबंदी लागू हुई थी, तब छत्तीसगढ़ में कोविड-19 के सिर्फ छह मामले थे. लेकिन अब यह संख्या बढ़ कर 67,000 से भी ज्यादा हो गई है. अनुमान है कि घने जंगलों वाले छत्तीसगढ़ में 70 लाख से भी ज्यादा आदिवासी रहते हैं. इनमें से कई अलग-थलग हैं और जंगलों के काफी अंदर रहते हैं. लेकिन महामारी के दौरान ये अलगाव और जानकारी और संसाधनों की कमी इन आदिवासियों के लिए खतरा बन रहे हैं.

मासा गोंड आदिवासी समुदाय के एक सदस्य हैं और छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर में खुटेपाल गांव के निवासी हैं. 60 वर्षीय मासा यह नहीं जानते कि कोरोना वायरस क्या चीज है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "मैंने ऐसी किसी भी महामारी के बारे में नहीं सुना है. हमें किसी ने इसके बारे में कुछ भी नहीं बताया है."

मासा को हाल ही में स्थानीय अधिकारियों से एक मास्क मिला था. वो उसे व्यवस्थित ढंग से एक बोरे में रखते हैं जिसमें उनका दूसरा सामान रखा हुआ है. वो कहते हैं, "ग्राम प्रधान ने मुझे और कुछ और लोगों को मास्क दिए थे लेकिन हमें यह नहीं मालूम कि ये किस काम आते हैं."

Indien Das Coronavirus in Stammesgemeinschaften - Einwohner von Mandipara mit Ernteerzeugnissen
परचेली गांव के निवासी जंगल से उत्पाद लाते हुए.तस्वीर: DW/D. Vaid

खुटेपाल में ही रहने वाले मंगलदाई महुआ शराब बना कर अपनी आजीविका चलाती हैं. जब बाजार बंद हुए तो उनके पास संसाधन खत्म होने लगे. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "साड़ी दुकानें बंद थीं और हमें इसका कारण नहीं मालूम था. वो लोग मुख्य सड़क पर गाड़ियों के अंदर से घोषणाएं कर रहे थे लेकिन हम उन्हें सुन नहीं पा रहे थे. वो यहां नहीं आए." यह कहते हुए उन्होंने मिट्टी की एक सड़क की तरफ इशारा किया जो गांव के इस हिस्से तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता है.

अलग रहने से जानकारी का अभाव

बस्तर छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों का केंद्र है. राज्य की कुल आबादी में 70 प्रतिशत आदिवासी ही हैं. इनमें सभी समुदायों का जीवन एक सा नहीं है और कुछ समुदाय दूसरों से ज्यादा संसाधनों वाले और बेहतर तरीके से बाहर की दुनिया से जुड़े हुए हैं.

यहां तक कि गांवों के अंदर भी काफी अंतर हैं. ग्राम प्रधान खुटेपाल की दूसरी तरफ रहते हैं जहां ज्यादा संसाधन हैं. वहां मोबाइल नेटवर्क भी है और स्कूलों और अस्पतालों तक पहुंच भी. इस वजह से उस तरफ रहने वाले लोग कोरोना वायरस के बारे में जानते हैं.

Indien Das Coronavirus in Stammesgemeinschaften Zusammenkunft auf dem Dirfplatz
परचेली गांव के आदिवासी.तस्वीर: DW/D. Vaid

प्रधान के 18-वर्षीय बेटे रमेश बताते हैं, "मुझे कोविड-19 के बारे में तब पता चला जब स्कूल बंद कर दिए गए. तब से डॉक्टर भी हमारे पास नियमित रूप से आते हैं." रमेश ने बताया कि गांव के दूसरी तरफ रहने वाले लोगों को महामारी के बारे में इसलिए नहीं मालूम क्योंकि कोविड-19 के बारे में जानकारी फैलाने की कोशिशों पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया." रमेश ने डीडब्ल्यू को बताया, "वो बिना किसी हस्तक्षेप के जीना चाहते हैं और अपनी इच्छा के अनुसार रहना चाहते हैं."

महामारी के बीच माओवादी इंसर्जेन्सी

बस्तर भारत की माओवादी इंसर्जेन्सी का गढ़ भी है. माओवाद प्रभावित इलाकों के अंदर स्थित गांवों में माओवादियों के खतरे की वजह से अधिकारियों को आदिवासियों के लिए संसाधन उपलब्ध कराने में दिक्कत होती है. दंतेवाड़ा जिला एक ऐसे इलाके के बीचों-बीच स्थित है जो माओवादी हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित रहा है. देवा उसी जिले में एक गांव में रहते हैं.

परचेली गांव के पास स्थित उनके घर तक पहुंचने के लिए ऐसी सड़कों का इस्तेमाल करना पड़ता है जिन्हें माओवादी अक्सर दूसरे रास्तों से काट देते हैं. देवा और उनके पड़ोसी कोविड-19 के बारे में ज्यादा नहीं जानते. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि उनके ऐसा दूरसंचार नेटवर्क नहीं है जिसकी मदद से उन्हें कोरोना वायरस से जुड़ी स्थिति के बारे में अधिकारियों से ताजा जानकारी मिल सके. देवा ने बताया, "यहां एक भी मोबाइल टॉवर नहीं है. हमें सिग्नल ही नहीं मिलता."

Indien Das Coronavirus in Stammesgemeinschaften - ein Kind
परचेली में एक आदिवासी बच्चा अपने घर के बाहर.तस्वीर: DW/D. Vaid

पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी यहां आदिवासियों के लिए ऑडियो न्यूज सेवा 'सीजीनेट स्वरा' चलाते हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि इलाके में स्थिति काफी "डरावनी" है क्योंकि यहां ऐसे विशाल इलाके हैं जहां "सरकार की कोई मौजूदगी नहीं है."

उन्होंने बताया, "उन इलाकों में जांच करने या आगे बढ़ कर कुछ भी करने का सवाल ही नहीं है. सरकार और माओवादियों दोनों ने ही संयुक्त राष्ट्र के युद्ध-विराम के अनुरोध को अनसुना कर दिया है. यहां स्वास्थ्य सेवाएं बहुत खराब हैं और यह लड़ाई चीजों को बहुत मुश्किल बना देती है. अगर कोविड-19 आदिवासी इलाकों या माओवादियों के नियंत्रण वाले इलाकों तक पहुंच गया, तो अनर्थ हो जाएगा."

उल्टे पलायन का खतरा

बस्तर के आदिवासी उल्टे पलायन की वजह से कोविड-19 के संक्रमण के खतरे को लेकर भी चिंतित हैं. अब धीरे धीरे पूरे देश में यात्रा संबंधी प्रतिबंधों के हटने की वजह से प्रवासी श्रमिक इन आदिवासी गांवों में वापस लौट रहे हैं और इसके साथ ही इन समुदायों में संक्रमण की संभावना का जोखिम भी बढ़ रहा है. कुआकोंडा जिले के निवासी श्याम और दूसरे कई लोग दक्षिणी राज्यों में श्रमिक का काम करते हैं. श्याम और 14 और आदिवासी हाल ही में वापस लौट कर आ गए."

Indien Das Coronavirus in Stammesgemeinschaften - Masa, ein Stammesangehöriger der Gond
मासा गोंड आदिवासी समुदाय के एक सदस्य हैं और छत्तीसगढ़ के दक्षिण बस्तर में खुटेपाल गांव के निवासी हैं.तस्वीर: DW/D. Vaid

श्याम ने डीडब्ल्यू को बताया, "मुझे नहीं मालूम कि क्वारंटाइन केंद्र कहां हैं और मुझे यह चिंता है कि कहीं मेरी वजह से मेरा परिवार संक्रमित ना हो जाए."

आदिवासियों की पहल

अपने ख्याल खुद ही रखने पर मजबूर कुछ आदिवासी समुदाय खुद ही पहल कर रहे हैं. कुछ गांवों में पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के जरिए इलाज करने वाले जंगल के उत्पादों का इस्तेमाल इम्युनिटी बढ़ाने के लिए कर रहे हैं. परचेली गांव में पारंपरिक पद्धति से चिकित्सा करने वाले बुधराम ने डीडब्लू को बताया, "मैं लोगों को चरोटा सब्जियां खाने की सलाह देता हूं जो यहां प्रचुर मात्रा में मिलती हैं. हमारे पूर्वज इनका इस्तेमाल इम्युनिटी बढ़ाने के लिए करते थे."

उन्होंने यह भी बताया, "वैसे तो जो आदिवासी दवा हमलोग जंगली जड़ी बूटियों से बनाते हैं वो रोगों से हमारी रक्षा करती है, लेकिन अगर हमें कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई देता है जिसकी तबियत ज्यादा खराब है, तो हम उसे अगले गांव के अस्पताल में भेज देते हैं."

- धारवी वेद

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