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कैसे रुकेगा पृथ्वी का मरुस्थलीकरण

शिवप्रसाद जोशी
९ सितम्बर २०१९

वैश्विक मरुस्थलीकरण के बढ़ते संकट से निपटने के उपायों पर चर्चा के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र अभियान की 14वीं बैठक भारत के ग्रेटर नोएडा में चल रही है.

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Indien Konferenz der UNO zu Wüstenbildung
तस्वीर: AFP/M. Sharma

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बैठक के उद्घाटन सत्र के अपने संबोधन में कहा कि विश्वव्यापी मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया पर अंकुश लगाने के लिए वैश्विक जल अभियान एजेंडा लागू करना होगा. प्रधानमंत्री ने 'सिंगल यूज प्लास्टिक' के इस्तेमाल पर तत्काल प्रभाव से बैन लगाने की अपील भी की. उनके मुताबिक भारत ने इस दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं. मरुस्थलीकरण से निपटने की भारत की कोशिशों का जिक्र करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि देश में वन और वृक्ष आच्छादन में वृद्धि हुई है.

संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण निवारण सम्मेलन (यूएनसीसीडी) की 14वीं बैठक (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज, सीओपी) में दुनिया के 196 देशों के प्रतिनिधि शामिल हैं. 13 सितंबर तक चलने वाली इस बैठक में दुनिया के प्रतिनिधि जमीन के तेजी से मरुस्थल बनते जाने और बढ़ते जल संकट का हल तलाशने की कोशिश कर रहे हैं. सम्मेलन के महासचिव इब्राहीम थियाव ने कहा कि धरती को बचाने के लिए भू-संवर्द्धन जरूरी है. उनके मुताबिक जमीन की पुनर्स्थापना का ये काम जीवन स्थितियों में सुधार, जलवायु परिवर्तनों की चुनौतियों से निपटकर और अर्थव्यवस्था के जोखिमों में कमी लाकर किया जा सकता है.

Indien Konferenz der UNO zu Wüstenbildung
सम्मेलन के महासचिव इब्राहीम थियाव के साथ भारत के पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर.तस्वीर: AFP/M. Sharma

दुनिया के 23 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र का ह्रास हो रहा है यानी वो घट रहा है और मरुस्थल में बदल रहा है. भारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र का एक तिहाई यानी करीब 33 करोड़ हेक्टेयर जमीन और जंगल गायब हो चुका है. संयुक्त राष्ट्र विशेषज्ञों के मुताबिक वैश्विक स्तर पर हर एक मिनट पर 23 हेक्टेयर जमीन गंवा दी जाती है. हर रोज भू-क्षरण दुनिया को 1.3 अरब डॉलर की चपत लगा रहा है.

भारत ने पिछले दिनों पांच राज्यों में जमीन के ह्रास को रोकने और भूसंवर्द्धन के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है. हरियाणा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, नागालैंड और कर्नाटक में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) के साथ भागीदारी में इस अभियान को आगे चलकर पूरे देश में चलाया जाएगा. भारत ने 2015 में जलवायु परिवर्तन से निपटने के "बॉन चैलेंज” के तहत 2020 तक एक करोड़ तीन लाख हेक्टेयर वनीय और स्थलीय भूभाग को पुनर्स्थापित करने की प्रतिबद्धता जताई थी. 2030 तक ये लक्ष्य दो करोड़ हेक्टेयर का है. वैश्विक स्तर पर 15 करोड़ और 35 करोड़ हेक्टेयर का लक्ष्य रखा गया है.

इंडियन स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (आईएसएफआर) 2017 में बताया गया है कि भारत के वृक्ष और वन आच्छादन में 2015 से 2017 के दौरान एक प्रतिशत यानी आठ हजार वर्ग किलोमीटर या आठ करोड़ हेक्टेयर की वृद्धि हुई है. हर दो साल में जारी होने वाली इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्र का करीब साढ़े 21 प्रतिशत यानी  सात लाख आठ हजार वर्ग किलोमीटर जंगल है. वृक्ष आच्छादन को भी मिला दें तो ये भूभाग 24 फीसदी से कुछ ज्यादा है.

लेकिन वन क्षेत्र और वृक्ष आवरण में सरकार की इस सुखद रिपोर्ट के समांतर एक विशेषज्ञ संस्था का अध्ययन अलग ही कहानी बताता है. वो ये कि पिछले 17 साल में गोवा राज्य के आकार का चौगुना जंगल क्षेत्र मिटा है. वर्ल्ड रिसोर्स इन्स्टीट्यूट की इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने 2001 से 2018 के दरम्यान अपना डेढ़ करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा का वृक्ष कवर खोया है. नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम और मणिपुरल - पूर्वोत्तर के वे पांच राज्य हैं जहां 50 प्रतिशत से ज्यादा नुकसान हुआ है. भारत के आधिकारिक वन अध्येताओं ने इस रिपोर्ट की प्रामाणिकता पर सवाल उठाए हैं. उनका दावा है कि इस अवधि में न सिर्फ भारत का जंगल और वृक्ष क्षेत्र फलाफूला बल्कि नासा की एक रिपोर्ट भी इस बात की तस्दीक करती है कि भारत और चीन में हरित क्षेत्र में वृद्धि देखी गई है.

लेकिन ये भी सच है कि अतिशय औद्योगिकीकरण, रिहायश के लिए जमीन की मांग और कृषि भूमि के विस्तार, वनाग्नि की बढ़ती घटनाओं ने जंगल को छिन्नभिन्न तो किया ही है. कॉरपोरेट जरूरतों की पूर्ति के लिए जंगलों के मूल निवासी और आदिवासी समुदाय भी जड़ों से अलग-थलग किए गए हैं. आदिवासियों का जंगल के साथ जैविक संबंध है इसलिए कट्टर संरक्षणवाद और कॉरपोरेट रणनीति में नहीं, जंगल सहजीविता में ही पनप सकता है. आदिवासी और जंगल एकदूसरे के पूरक हैं. वन क्षेत्र को बढ़ाने के अभियानों में ये तथ्य नहीं भुलाया जाना चाहिए.

और बात सिर्फ धरती को सूखे से बचाने के लिए वृक्षारोपण, वनीकरण, जल संरक्षण की ही नहीं है. ये भी देखना चाहिए कि आखिर इतने सारे उपायों और दावों के बावजूद धरती के रेगिस्तान बनने की नौबत क्यों आ रही है. लिहाजा दुनिया भर में अपनाए जा रहे कॉरपोरेट केंद्रित विकास के मॉडल की विसंगतियों पर भी खुलकर बात की जाए. संयुक्त राष्ट्र और विश्व सरकारों की व्यापक और गहन चिंताएं इस मोड़ पर आकर न जाने क्यों ठिठक जाती हैं. असल में वन-क्षेत्र के साथ साथ व्यापक मानव कल्याण की भावना को भी रिस्टोर किए जाने की जरूरत है.

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