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कैसे दूर होगा वैज्ञानिक चेतना पर मंडराता खतरा

शिवप्रसाद जोशी
७ जनवरी २०१९

106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में पेश कुछ शोध-पत्रों और भाषणों के अजीबोगरीब, हास्यास्पद दावों ने गंभीर अध्येताओं, शोधकर्ताओं, छात्रों और जागरूक नागरिकों को स्तब्ध किया. चिंता, वैज्ञानिक चेतना पर मंडराते खतरे की भी है.

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Symbolbild | gravitational waves are ripples in the curvature
तस्वीर: imago/Science Photo Library

वैज्ञानिक संवाद, शोध, अध्ययन और अभिरुचि के विकास के लिए होने वाले, 1914 से चले आ रहे, इस सालाना जलसे में इस बार की थीम थीः "फ्यूचर इंडिया- साइंस एंड टेक्नॉलजी.” लेकिन पंजाब के जालंधर में हुई इस कांग्रेस में शामिल कुछ पर्चे फ्यूचर के बजाय अतीत के ऐसे निरर्थक, अहंकारी और अवैज्ञानिक गुणगान से भरे थे जिनका कोई ऐतिहासिक और वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है और इस तरह प्राचीन भारत के वास्तविक ज्ञान और अध्ययन मीमांसा के वृहद और गहन कार्यों को भी किनारे लगाने की कोशिश की गई. कुछ नजारे देखें:

एक कुलपति जी ने कौरवों की पैदाइश को स्टेम सेल रिसर्च और टेस्टट्यूब बेबी टेक्नॉलजी से जोड़ा. लक्ष्य भेद कर लौट आने वाले राम के अस्त्र-शस्त्र हों या रावण के विभिन्न आकारों और क्षमताओं वाले 24 विमान और लंका में उसके बहुत से हवाईअड्डे- दावों की झड़ी लग गई.

Sri Lanka: Rama Setu Brücke zwischen Indien und Sri Lanka | Version von Ramayana aus Kangra (c.1850.)
तस्वीर: picture-alliance/CPA Media Co. Ltd

एक वरिष्ठ वैज्ञानिक का दावा भी मीडिया में छपा जिन्होंने न्यूटन और आइनस्टाइन को ही धता बता दिया. उनके मुताबिक न्यूटन को गुरुत्वाकर्षण बलों की बहुत कम समझ थी और आइनस्टाइन ने तो अपने सापेक्षिकता के सिद्धांत से दुनिया को गुमराह किया. वो यहीं पर नहीं रुके, प्रचंड दावा किया कि आगे चलकर गुरुत्वाकर्षण तरंगों को प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर "नरेन्द्र मोदी तरंगे” कहा जाएगा और विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री हर्षवर्धन, पूर्व राष्ट्रपति और वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम से बड़े वैज्ञानिक होंगे.

विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत एक अन्य पर्चे मे कहा गया कि डायनोसोर के बारे में भगवान ब्रह्मा को मालूमात थी और वेदों में उनका उल्लेख हो चुका है और ऐसा कुछ भी नहीं है, जो ब्रह्मांड के रचयिता ब्रह्मा न जानते हों. यहां तक कहा गया कि राइट बंधुओं ने विमान का आईडिया, रामायण काल के पुष्पक विमान से लिया था. 

विज्ञान कांग्रेस में ऐसी ‘दहला' देने वाली दलीलों का ये चलन 2015 से पहले शायद ही सुना गया हो. उस साल मुंबई कांग्रेस में बताया गया था कि भारत ने सात हजार साल पहले विमानों का आविष्कार कर लिया था. 2016 में मैसूर कांग्रेस के एक शोधपत्र में कहा गया कि अगर बाघ की खाल पर बैठकर योगाभ्यास करें तो बुढ़ापा आएगा ही नहीं. 2017 की तिरुपति कांग्रेस में वैज्ञानिक नजरिये को मानो ताक पर ही रख दिया गया.

2018 में इम्फाल विज्ञान कांग्रेस में विज्ञान मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने दावा किया कि स्टीफन हॉकिंग ने सापेक्षता के सिद्धांत पर वेदों से संदर्भ कोट किया था. ये बात अलग है कि हॉकिंग के कार्यालय से इस तरह के किसी हवाले का खंडन तत्काल ही आ गया था. और इस 106वीं कांग्रेस में तो मानो विज्ञान को चारों खाने चित्त कर देने वाला भयानक डंका बज उठा.

बंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के परिसर के बाहर वैज्ञानिक और शोधकर्ताओं के एक छोटे से जत्थे ने विरोध जताया. उसका कहना है कि शायद इन्हीं हालात के चलते- पूरी दुनिया में भारतीय वैज्ञानिक मेधा और प्रतिभा और मेहनत को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

एक आंकड़े के मुताबिक दुनिया के सबसे ज्यादा उल्लिखित होने वाले चार हजार वैज्ञानिकों में सिर्फ 10 भारतीयों का नाम है. तुर्रा ये है कि अगर ऐसे खोखले दावों को चुनौती दें तो सामने से वापस ये सवाल आते हैं:  आप वेदों से ज्यादा जानते हैं? क्या आपको नहीं पता कि वेदों में सब लिखा है? सो व्हॉट? - उनका वनलाइनर है. अब ऐसी कट्टरता और अपनी हिंदुवादी राजनीति का हित साधने वाली ऐसी दलीलों से कैसे निपटें- ये सवाल जागरूक लोगों को सताने लगा है.

सवाल ये भी है कि आखिर विद्रूपताओं के खिलाफ सचेत प्रतिरोध क्यों नहीं है. ये मिथक और वेद-पुराण को विज्ञान में ठूंसकर उनकी अपनी मौलिक विशिष्टताओं को क्षति पहुंचाने जैसा है. लोक विश्वास, धार्मिक मान्यताएं, और मिथकीय आख्यान- लोक-स्मृति और लोकमानस में रचेबसे रहे हैं. उन्हें विज्ञान के समांतर या ऊंचा करने की कोशिश- लोक विश्वासों का उपहास उड़ाने और उनके मिथकीय सौंदर्य को नष्ट करने जैसा है.

कला-मिथक-विश्वास की अपनी अहमियत है और विज्ञान की अपनी अहमियत. वे अलग अलग ध्रुव नहीं हैं. विज्ञान, कला और समाज को असली खतरा धार्मिक कट्टरतावाद और बहुसंख्यकवाद से है. हिटलर और स्टालिन के दौर, अफ्रीका के नरसंहार, अमेरिका की अगुवाई में इराक और अफगानिस्तान की बरबादी और गजा का दमन, हमें ऐसे नाजुक मौकों की याद दिलाते हैं.

क्यों नहीं देश के सभी वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, शोधकर्ता, छात्र एक साथ आगे आएं और इस तरह के वितंडा का विरोध करें- सरकार से अपील करें. शोधपत्रों या आलेखों को प्रस्तुति से पहले कौन स्क्रूटनी कर रहा है- क्या पैमाना है- किस आधार पर वक्ता की वैज्ञानिक और शोध उपलब्धि या गुणवत्ता को आंका जा रहा है- आखिर इस कांग्रेस के पदाधिकारियों और आयोजकों को अव्वल तो इसका जवाब देना चाहिए और आइंदा के लिए अपनी फिल्टर और गेटकीपिंग प्रक्रिया को मुस्तैद बनाना चाहिए. क्योंकि ये सिर्फ एक आयोजन का सवाल नहीं है. देश की वैज्ञानिक प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी है. विज्ञान का लक्ष्य है एक खुले, स्वस्थ, सचेत और संवेदनशील समाज का निर्माण. राष्ट्रीय विकास में विज्ञान का योगदान तभी सार्थक कहा जा सकता है जब सामाजिक तौर पर भी हम जागरूक, निर्भय और तर्कवादी बनें न कि कायर, कुतर्की और पोंगापंथी.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी