कैसा है भारत में "सिंगल" पेरेंट होना?
सुप्रीम कोर्ट के एक सिंगल मदर को उसके बच्चे की अभिभावक होने की मान्यता देना ऐतिहासिक कदम है. बिना शादी के पैदा हुए बच्चे की जिम्मेदारी लेने के लिए उसके पिता की पहचान और सहमति जरूरी है. भारत में सिंगल पेरेंट की चुनौतियां.
परित्यक्त, बेसहारा और अनाथ बच्चों की देश में इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद भारत में इन्हें गोद लेने के लिए काफी कम लोग सामने आते हैं. शादीशुदा जोड़ों से परिवार को उनके खुद के बच्चे पैदा करने की अपेक्षा होती है. किसी कुवांरे लड़का या लड़की को बच्चे गोद देने में संस्थाएं हिचकिचाती हैं. ऐसे में कई बच्चे अनाथ ही रह जाते हैं.
जनवरी से मार्च 2015 के बीच भारत में गोद लिए जाने वाले बच्चों की तादाद में तीन साल में पहली बार बढ़ोत्तरी दर्ज हुई है. इनमें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर गैरशादीशुदा महिलाओं का भी एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण हिस्सा है. सुष्मिता सेन जैसी सफल सेलिब्रिटी और अपने पैरों पर खड़ी कई महिलाएं इसकी मिसाल हैं.
भारत में दुनिया भर के मुकाबले अब भी तलाक लेने का चलन काफी कम है. इसी कारण अमेरिका, कोरिया और दूसरे विकसित देशों की तुलना में वैसे तो कम ही शादीशुदा भारतीय महिलाओं को बच्चों की जिम्मेदारी अकेले उठानी पड़ती है. लेकिन तलाकशुदा महिलाओं के प्रति भी भेदभावपूर्ण सामाजिक रवैया देश में सर्वव्याप्त है.
2006 के आंकड़ों के अनुसार, 82 फीसदी से अधिक भारतीय बच्चे अपने माता-पिता के साथ ही रहते हैं. किसी एक अभिभावक के साथ रहने वालों में ऐसे करीब 8.5 फीसदी बच्चे थे, जो केवल अपनी मांओं के साथ रहते हैं. इन मांओं को भी समय समय पर बच्चे के पिता की पहचान से जुड़े कई गैरजरूरी सवालों का सामना करना पड़ता है, जैसे स्कूल में बच्चे के दाखिले के समय.
एशिया, मध्यपूर्व, दक्षिण अमेरिकी और उपसहारा अफ्रीका के ज्यादातर घरों में बच्चे केवल अपने माता पिता ही नहीं बल्कि परिवार के और कई बड़े सदस्यों के साथ भी रहते हैं. भारत के करीब आधे परिवारों की ऐसी ही संरचना है. फिर भी एक सिंगल मदर को बिना किसी और की अनुमति के अपने बच्चे की अभिभावक होने का सुप्रीम कोर्ट का यह व्यावहारिक फैसला बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए बेहद मददगार साबित होगा.