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कैंसर को हराना मुश्किल नहीं: मनीषा

३ अक्टूबर २०१३

मनीषा कोइराला मानती हैं कि अगर किसी में दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी पर भी जीत हासिल की जा सकती है.

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तस्वीर: DW

वह खुद को कैंसर के जबड़े से बच निकला हुआ इंसान नहीं, बल्कि इसके खिलाफ युद्ध छेड़ने वाली मानती हैं. कैंसर के मरीजों और इस बीमारी से बच निकले लोगों में इससे लड़ने की हिम्मत पैदा करने के लिए मनीषा कोलकाता में थीं. इस कार्यक्रम के दौरान क्रिकेटर युवराज सिंह भी मौजूद थे. पेश हैं इस मौके पर मनीषा से बातचीत के प्रमुख अंश :

डॉयचे वेलेः कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से बचने के बाद क्या जीवन के प्रति आपके नजरिए में कोई बदलाव आया है ?

मनीषा कोइरालाः हां, जीवन के प्रति मेरा नजरिया बदल गया है. अब मैं स्वस्थ और शांतिपूर्ण जीवन बिताना चाहती हूं. मुझे भरोसा है कि अब मेरा करियर भी तेजी से आगे बढ़ेगा. कैंसर का एक मरीज किस मानसिक स्थिति से गुजरता है, यह दूसरों के लिए समझना मुश्किल है. इस दौर से बाहर आने के बाद जीवन के प्रति नजरिया बदलना स्वाभाविक है.

डॉयचे वेलेः आपने इस बीमारी के इलाज के मुश्किल दौर से क्या सीखा है ?

मनीषा कोइरालाः पीछे मुड़ कर उस दौर की ओर देखने के दो तरीके हैं. या तो आप इसे दर्द और पीड़ा के लंबे दौर के तौर पर देख सकते हैं या फिर एक चुनौती के तौर पर. लोग इस बीमारी से तो बच सकते हैं लेकिन यह पीड़ादायक अनुभव जानलेवा हो सकता है. इसे चुनौती के तौर लेकर पराजित करने की कोशिश करनी चाहिए. मैं आजीवन एक योद्धा रही हूं. हिम्मत हारना मैंने नहीं सीखा.

डॉयचे वेलेः कैंसर का पता चलने पर आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी ?

मनीषा कोइरालाः गर्भाशय के कैंसर के लक्षण सामने आने पर पहले तो मैंने इसे फूड प्वाइजनिंग समझा था. लेकिन सीटी स्कैन से कड़वी हकीकत सामने आ गई. मुझे एक बड़ा झटका लगा था. समय रहते जांच होने पर मुझे चार महीने पहले ही इस बीमारी के बारे में पता चल गया होता. लेकिन इस बीमारी के ज्यादातर मामलों में अचानक ही इसका पता चलता है. इसलिए लोगों को शुरू से ही नियमित जांच पर ध्यान देना चाहिए.

Bollywood Schauspielerin Manisha Koirala
हारना नहीं सीखाः मनीषा कोइरालातस्वीर: Getty Images

डॉयचे वेलेः अमेरिका में इलाज के दौरान कैसा अनुभव रहा ?

मनीषा कोइरालाः सच कहूं तो एकाध बार मेरी हिम्मत साथ छोड़ने लगी थी. लेकिन वह क्षणिक था. मैंने सोचा कि हर हाल में मुझे जीना है. जीने की इस ललक ने ही शायद मुझमें जीत का जज्बा पैदा किया. इसके अलावा माता-पिता और भाई ने भी मुझे काफी हिम्मत बंधाई. कभी-कभी तो बीमारी से ज्यादा खराब दौर उसके इलाज का होता है. लेकिन परिजनों और मित्रों की मदद से मैं इससे सही-सलामत उबरने में कामयाब रही. प्रशंसकों की दुआएं भी काम आईं.

डॉयचे वेलेः कैंसर से पीड़ित मरीजों व उनके घरवालों को क्या सलाह देना चाहेंगी ?

डॉयचे वेलेः मुझे लगता है कि जब कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा हो तो लोगों को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए और बाकी सब ऊपर वाले पर छोड़ देना चाहिए. अगर लोग डर पर जीत पा लें, तो सब कुछ आसान हो जाता है. इस दौरान परिजनों का भावनात्मक सहयोग बेहद जरूरी है. इस मामले में मैं खुशकिस्मत थी.

डॉयचे वेलेः अब बॉलीवुड में अभिनय और निर्देशन के मामले में क्या बदलाव आया है ?

मनीषा कोइरालाः मैं ज्यादा फिल्में नहीं देखती. लेकिन अब व्यावसायिक सिनेमा की परिभाषा बदल गई है. अब यह यथार्थ के ज्यादा करीब है. अब छोटे बजट की फिल्मों को भी काफी दर्शक मिल रहे हैं. पहले ऐसा सोचना भी मुश्किल था.

डॉयचे वेलेः कैंसर और इसके इलाज के दौरान के अपने अनुभव पर आप एक किताब भी लिखने वाली थीं ?

मनीषा कोइरालाः हां, उस दिशा में काम कर रही हूं. मैं उसमें यह बताना चाहती हूं कि इस बीमारी ने जीवन के प्रति मेरा नजरिया कैसे बदला है. इसके अलावा मैं जीवन के उन अनुभवों का भी जिक्र करूंगी जिनसे मुझे फायदा और नुकसान हुआ है. जीवन का हर पल बेहद कीमती है. मैं अपनी तरह के लोगों को बताना चाहती हूं कि आदमी अगर ठान ले तो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी को हराना भी कोई मुश्किल नहीं है.

इंटरव्यू: प्रभाकर, कोलकाता

संपादन: आभा मोंढे

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