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कुप्रथाओं को तोड़ने में मजहब की बाधा नहीं

निर्मल यादव२९ सितम्बर २०१५

भारत में बाल विवाह एक ऐसी कुप्रथा है जो पिछली तीन सदियों से तमाम विरोध और कानूनों के बावजूद खत्म नहीं हो पा रही है. 19वीं सदी में मालवीय आंदोलन से लेकर 21 वीं सदी में बाल विवाह निषेध कानून तक का सफर भी इसे मिटा नहीं पाया

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तस्वीर: Getty Images/A. Joyce

बाल विवाह की कुरीति किसी एक जाति संप्रदाय या मजहब तक सीमित नहीं है. आलम यह है कि 21वीं सदी में एक तरफ देश जबकि चांद पर कदम रखने को बेताब है वहीं समाज का एक तबका ऐसा भी है जो बाल विवाह को चुनौती देने के लिए अदालतों का भी दरवाजा खटखटाने से नहीं हिचक रहा है.

ताजा मामला मुस्लिम समुदाय को बाल विवाह निषेध कानून के दायरे से बाहर रखने का है. गुजरात हाईकोर्ट ने कानून की तलवार से इस कुरीति को फिर से न पनपने देने की पहल करते हुए साफ कर दिया कि किसी भी कुरीति को खत्म करने के लिए बना केन्द्रीय कानून मजहबी निजता के दायरे से बाहर है. लिहाजा मुस्लिम पर्सनल लॉ हो या हिंदू विधि, हर हाल में बाल विवाह निषेध कानून की परिधि में आते है. कोई भी समुदाय अपने निजी कानून का हवाला देकर इस तरह की कुरीति को अपनाने का दावा नहीं कर सकता.

दरअसल इस मामले में मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखने वाले एक व्यक्ति के खिलाफ 16 साल की एक युवती का अपहरण कर बलात्कार करने का मामला दर्ज करने और बाल यौन शोषण निषेध कानून के प्रावधानों का संरक्षण युवती को प्रदान करने की अदालत से गुहार लगाई गई. जस्टिस जीबी परदीवाला ने आरोपी की दलीलों को आंशिक रुप से मानते हुए पुलिस को बाल विवाह कानून के तहत मामला दर्ज करने का आदेश दिया. असल में आरोपी ने युवती से विवाह करने की मंशा जताते हुए उसकी सहमति से उसे अपने साथ रखने की दलील दी.

अदालत ने आरोपी के खिलाफ लगे बलात्कार और अपहरण के मामले को खारिज कर इसे बाल विवाह कानून के उल्लंघन का मामला बताया. हालांकि आरोपी ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के हवाले से बाल विवाह कानून से खुद को मुक्त बताया. अदालत ने इसे खारिज कर कहा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के प्रावधान किसी भी तरह से बाल विवाह कानून के प्रावधानों के विरोध में नहीं है. जस्टिस परदीवाला ने कहा बाल विवाह कानून के प्रावधान मुस्लिम लॉ पर भी लागू होते है. जो लोग इसकी राह में बाधक बन रहे हैं असल में वे समुदाय का नुकसान कर रहे हैं.

समस्या के व्यावहारिक पहलू से इतर इस मामले के कानूनी पहलू को अगर देखें तो याचिकाकर्ता ने इसे धार्मिक निजता का मामला बताया. दलील दी गई कि हिंदू लॉ में विवाह एक संस्कार माना गया है जबकि इससे उलट मुस्लिम लॉ में शादी एक करार है. जो उम्र की सीमा से बाधित नहीं हो सकता है. अदालत ने इस दलील को खारिज करते हुए विवाह को ऐसा सामाजिक करार बताया जो निजता की कानूनी सीमाओं से मुक्त है. विवाह किसी भी संप्रदाय के लोगों का हो, उसका समाज पर असर पडता है. खासकर एक ऐसे देश में जहां परंपराएं समाज को जोड़ने में अहम भूमिका निभाती हैं. वहीं परंपराओं के बिगडे रुप में सामने आने वाली कुरीतियां समाज के लिए खतरा साबित होती हैं और बाल विवाह इनमें से एक है.

विकास की राह पर सरपट दौडने को आमादा भारतीय समाज की गति को धीमा करने में मजहब रोड़े अटकाता नजर आ रहा है. बात चाहे हिंदू धर्म की हो या मुस्लिम समुदाय, कट्टरपंथी तबके इस दिशा में बाधक बन रहे है. कम से कम बाल विवाह जैसी समस्या का पोलियो की तरह समूल नाश करने के लिए मुस्लिम समुदाय को खुले दिल दिमाग से अदालत के फैसले को सरमाथे लगाना अब समय की मांग है.

ब्लॉग: निर्मल यादव