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किसे मिलेगा दलित वोट

ब्लॉग: कुलदीप कुमार२ जून २०१५

दलितों के मसीहा भीमराव अंबेडकर को अपना बनाने के लिए कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच कुश्ती शुरू हो गई है. मंगलवार को कांग्रेस के राहुल गांधी ने अंबेडकर के जन्मस्थान मऊ जाकर उन्हें श्रद्धांजलि समर्पित की.

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Bhimrao Ramji Ambedkar
तस्वीर: AP

दरअसल इस वर्ष 14 अप्रैल से अंबेडकर का 125वां जन्मदिवस वर्ष मनाया जा रहा है और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने इसे मनाने के लिए एक समिति का गठन भी कर दिया है. इसके अलावा उसने 197 करोड़ रुपये की लागत से अंबेडकर अंतर्राष्ट्रीय केंद्र की स्थापना की घोषणा भी कर दी है.

एक समय था जब दलित, जिन्हें आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जाति कहा जाता है और महात्मा गांधी ने जिन्हें ‘हरिजन’कहना शुरू किया था,कांग्रेस का पक्का जनाधार हुआ करते थे. लेकिन पिछले चार दशकों के दौरान वे धीरे-धीरे कांग्रेस से दूर चले गए. महाराष्ट्र में तो शुरू से ही अंबेडकरवादी पार्टियां थीं लेकिन फिर उत्तर भारत में दलित कांशीराम-मायावती के नेतृत्व के पीछे लामबंद होते गए. अभी भी मायावती का जादू उत्तर भारत के दलितों पर खासा चढ़ा हुआ है. मायावती राजनीति को अंबेडकर की शब्दावली में समझती हैं और अपने अनुयायियों को समझाती हैं.

दूर का रिश्ता भी नहीं

लेकिन इस समय कांग्रेस और बीजेपी जैसी पार्टियां अंबेडकर की विरासत पर अपना हक जमाने में जुटी हैं जिनका अंबेडकर और उनके विचारों से कभी दूर का रिश्ता भी नहीं रहा. भीमराव अंबेडकर के महात्मा गांधी के साथ दलितों के उत्थान के प्रश्न पर गंभीर मतभेद थे. वे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ चले राष्ट्रीय आंदोलन में भी शरीक नहीं हुए क्योंकि उनका पूरा ध्यान दलित समुदाय के उत्थान पर केंद्रित था. यहां यह याद रखना होगा कि अधिकांश दलितों को सवर्ण हिंदू अछूत समझते थे और उन्हें सामान्य मानवीय अधिकारों से भी वंचित रखा जाता था. जहां गांधी आस्थावान हिंदू थे,वहीं अंबेडकर जाति व्यवस्था के समूल नाश के लिए प्रतिबद्ध थे और उन्होंने घोषणा की थी कि वे हिंदू के रूप में पैदा तो जरूर हुए हैं लेकिन मरेंगे नहीं. अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले उन्होंने अपने हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था. उनका कांग्रेस से कभी संबंध नहीं रहा.

अस्मिता की राजनीति

ऐसा व्यक्ति किसी हिंदुत्ववादी पार्टी का आदर्श पुरुष हो सकता है,यह बात भी गले से नहीं उतरती. लेकिन इस समय बीजेपी भी यह दिखाने में लगी है कि अंबेडकर की विरासत और जीवन मूल्यों के प्रति उससे अधिक कोई और गंभीर नहीं है. हाल ही में जिस प्रकार केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के निर्देश पर आईआईटी मद्रास में अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल की मान्यता रद्द की गई,उससे भी स्पष्ट होता है कि अंबेडकर और उनके हिंदू धर्म विरोधी विचारों को हजम करना बीजेपी के लिए आसान नहीं है.

लेकिन अस्मिता की राजनीति के इस दौर में कांग्रेस और बीजेपी, दोनों ही अंबेडकर की विरासत पर काबिज होने के लिए प्रयत्नशील हैं,जबकि आज भी दलितों की सामाजिक स्थिति बेहद भयावह है. आज भी गांवों से ऐसी खबरें आती हैं कि घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने पर दलितों की हत्या कर दी गई. दलित महिलाओं के साथ बलात्कार भी दलितों के खिलाफ एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है. इसमें कोई शक नहीं कि पिछले 67 सालों में दलितों की स्थिति में सुधार हुआ है,लेकिन वह सुधार इतना नाकाफी है कि आज भी अनेक स्थानों पर उनके साथ जानवरों जैसा बरताव किया जाता है.

ऐसे में इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि कांग्रेस या बीजेपी दलित वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब होंगे. यह सही है कि दलितों का मायावती से भी कुछ हद तक मोहभंग हुआ है,लेकिन यह भी सही है कि अब दलित राजनीति पहले की अपेक्षा अधिक परिपक्व है. दलित मतदाता इतना भोला नहीं रहा कि वह राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के दिखावे से भरमा जाए.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार