किशोर के नाम पर अपराध करने की छूट नहीं
२५ अप्रैल २०१५गंभीर किस्म के अपराध करने वाले किशोरों को महज उम्र के आधार पर कानून का संरक्षण देने के खिलाफ एक दशक से आंदोलन चल रहा था. कानूनविदों से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं तक समाज के हर तबके ने किशोर न्याय संरक्षण कानून में बदलाव के लिए मुहिम छेड़ रखी थी. लेकिन दो साल पहले दिल्ली गैंगरेप मामले के बाद मुंबई सहित देश के अन्य भागों में बलात्कार और हत्या के क्रूरतम मामलों में 18 साल से कम उम्र वाले किशोरों की मौजूदगी ने इस मांग को समय की जरुरत साबित कर दिया.
तस्वीर बताते आंकड़े
कम उम्र के दुर्दांत अपराधियों को कानून का संरक्षण किस प्रकार मिल रहा था इसकी हकीकत कुछ आंकड़ों से साफ हो सकती है. क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबित साल 2013 में सिर्फ बलात्कार के ही 2074 मामले 18 साल से कम उम्र वालों के नाम दर्ज किए गए. चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से 2054 मामलों में अपराधियों की उम्र 16 से 18 साल के बीच थी. जबकि साल 2012 में यह आंकड़ा 1316 था. यह तस्वीर हकीकत की भयावयता को साफ उजागर करने के लिए काफी है. जबकि चोरी, डकैती, स्मलिंग, अपहरण और हत्या जैसे जघन्य मामलों के आंकड़े अगर पेश किए जाएं तब फिर अंदाजा लगाया जा सकता है कि किशोरों के संरक्षण के लिए सन 2000 में लागू किया गया किशोर न्याय कानून किस तरह अपराधियों की पनाहगार बन गया था.
अपराधी की मानसिक स्थिति
केंद्र सरकार ने अब किशोर न्याय विधेयक 2014 को संसद में पेश करने का रास्ता साफ कर मौजूदा कानून में बदलाव की इबारत लिख दी है. अभी तक 16 से 18 साल तक के किशोरों के आपराधिक मामले किशोर न्याय बोर्ड द्वारा सुने जाते थे. दोषी ठहराए जाने पर सजा भी तीन साल तक ही हो सकती थी. मामले की सुनवाई होने तक बाल जेल में रखे जाने के दौरान इन आरोपियों का आपराधिक प्रशिक्षण पूरा होता था और सजा काटने के बाद ये किशोर वयस्क होकर परिपक्व अपराधी के रुप में समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाते थे.
मौजूदा कानून में बदलाव के बाद हालात बिल्कुल सुधर जाएंगे ऐसा मानना भूल होगी. दरअसल अभी भी विधायिका हकीकत को पूरी तरह से स्वीकार किए बिना कानून में संशोधन कर रही है. नया कानून लागू होने के बाद भी 16 से 18 साल तक की उम्र वाले आरोपी को किशोर न्याय कानून का लाभ मिलेगा या नहीं यह एक बोर्ड तय करेगा. मनोविज्ञानियों और कानून एवं समाज शास्त्रियों की मौजूदगी वाला बोर्ड आरोपी के हावभाव ओर मनःस्थिति आदि क्रियाकलापों के आधार पर यह तय करेगा कि अपराध करते समय क्या आरोपी यह समझ रखता था कि वह जो कुछ करने जा रहा है उसका क्या असर होगा. क्या उसकी मनःस्थिति बाल मन वाली है या फिर परिपक्व किशोर वाली. कुल मिलाकर अपराधी की मानसिक परिपक्वता के आधार पर उसके भविष्य का फैसला होगा.
बदलाव के बाद का भविष्य
प्रस्तावित संशोधन की यह पहली व्यवहारिक कमजोर कड़ी साबित होने की कानूनविद अभी से आशंका जताने लगे हैं. जानकारों के मुताबिक इस व्यवस्था का दुरुपयोग नहीं होने की गारंटी कोई नहीं दे सकता है. दूसरी कमजोरी सरकार द्वारा बीते दो दशकों में किशोरों के व्यवहार में आए आक्रामकता के भयंकर बदलाव को नहीं समझने की भूल करना है. एक तरफ दुनिया के तमाम देश किशोरों के आंक्रामक रुख की समस्या के उपाय खोज रहे हैं, वहीं भारत में हुकूमत कानून में व्यवहारिक बदलाव के इस सुनहरे मौके को गंवाने का खुद प्रयास कर रही है. आपराधिक कानून के जानकार अशोक जैन के अनुसार सरकार को संचार क्रांति के दुष्प्रभावों के मदृदेनजर कम उम्र के अपराधियों की संख्या में तेजी से हो रहे इजाफे को समझना चाहिए. अब समय का तकाजा है कि उम्र की सीमा को खत्म कर सिर्फ आईपीसी के तहत 12 साल तक की उम्र वालों को मिले संरक्षण की सीमा को ही अंतिम लकीर मान लेना चाहिए. इससे अधिक उम्र वालों के आपराधिक क्रियाकलापों को सामान्य श्रेणी में रखते हुए कानूनी परीक्षण करना समय की मांग बन गई है.
निर्भया केस हो या चर्चगेट रेप केस, ऐसे मामलों की फेहरिस्त लंबी है जिनमें अपराध की सभी हदों को किशोर अपराधियों ने पार किया था और सिलसिला अभी भी बदस्तूर जारी है. ऐसे में किशोर अदालतों के लचर रवैये और कानून की कमजोरी को सुधारने की पहल को आधे-अधूरे मन से करने के बजाय सरकार को इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए इस मौके का पुख्ता लाभ उठाना चाहिए. कम से कम इस मामले में राजनीति आड़े नहीं आना चाहिए. आखिर पीडि़त पक्षकार के साथ किशोरों के भी जीवन का सवाल यहां मौजूं है.
ब्लॉग: निर्मल यादव