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कारोबारी जंग में उलझना अमेरिका की मजबूरी है?

निखिल रंजन
२ अक्टूबर २०१८

दुनिया अमेरिका को एक अमीर, ताकतवर देश के रूप देखती है और अमेरिकी राष्ट्रपति को दुनिया का दारोगा समझती है. ट्रंप प्रशासन कारोबारी हितों पर जिस तरह आए दिन एलान कर रहा है उससे यह छवि बदल रही है.

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USA | Trump über das Abkommen USMCA zwischen USA und Kanada
तस्वीर: Reuters/L. Mills

1930 में अमेरिका ने एक कारोबारी जंग की शुरुआत की थी. तत्कालीन राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर ने स्मूट हावले टैरिफ एक्ट पर दस्तखत कर उसे कानून का रूप दिया था. इस एक्ट में 20 हजार से ज्यादा चीजों पर टैक्स बढ़ा दिया गया था. इसका नतीजा यह हुआ कि दुनिया पर वैश्विक मंदी का घेरा और ज्यादा कस गया.

इस साल की शुरुआत में जब अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने विदेशों से आने वाले उत्पादों पर टैक्स बढ़ाने का फैसला किया तो उनके सलाहकारों ने कहा कि इसे ट्रेड वार नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि सिर्फ स्टील और एल्युमिनियम पर ही टैक्स बढ़ाया गया है. साल अभी खत्म नहीं हुआ लेकिन उसके पहले ही ना सिर्फ चीन बल्कि कई और देशों के साथ अमेरिका ने कारोबारी समझौतों को बदलने की कवायद तेज कर दी है.

Kanada Caledon - Milch
तस्वीर: Getty Images/C. Burston

चीन के साथ तो अमेरिकी प्रतिद्वंद्विता समझ भी आती है लेकिन कनाडा, मेक्सिको, दक्षिण कोरिया, यूरोपीय संघ और जापान जैसे देश भी अब इस कतार में शामिल हो गए हैं. आखिर अमेरिका को इसकी जरूरत क्यों पड़ गई है? लंदन के किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय राजनीति पढ़ाने वाले प्रोफेसर हर्ष वी पंत कहते हैं, "ट्रंप प्रशासन यह संदेश देने की कोशिश में है कि अमेरिका अपने हितों की अब ज्यादा व्यापक तरीके से रक्षा करेगा. ऐसा नहीं था कि पुराने समझौते में अमेरिका को कोई बहुत नुकसान था लेकिन जिस तरह से अमेरिकी कंपनियों को घटती मांग के कारण नुकसान उठाना पड़ा है और अमेरिका आर्थिक मंदी की चपेट में आया है, उसे ट्रंप प्रशासन अंतरराष्ट्रीय कारणों से जोड़ कर देख रहा है और चाहता है कि पहले के मुक्त व्यापार समझौतों में कुछ प्रतिबंध लगाए जाएं. अमेरिका, मेक्सिको और कनाडा के बीच मुक्त व्यापार रहा है और अब तक अमेरिका उदारता दिखाता रहा है लेकिन अब उसमें कमी की जा रही है."

रविवार की रात अमेरिका और कनाडा के अधिकारी बड़ी मुस्तैदी से एक कारोबारी समझौते को आखिरी रूप देने में जुटे थे. यह समझौता करने की आखिरी रात थी क्योंकि अमेरिका ने पहले से ही एलान कर दिया था कि मेक्सिको के साथ अगस्त में हुआ करार ही तब आखिरी रह जाएगा और कनाडा इस डील से बाहर हो जाएगा. कनाडा अमेरिका का दूसरा सबसे बड़ा कारोबारी साझीदार है और यह स्थिति काफी असहज होती. जाहिर है अधिकारियों ने जी जान से कोशिश की. नतीजतन करार हो गया और कनाडा, मेक्सिको के साथ ही अमेरिका ने भी चैन की सांस ली. यह साझेदारी नाफ्टा यानी नॉर्थ अमेरिकी फ्री ट्रेड एग्रीमेंट की जगह लेगा और इसे नाम दिया गया है यूनाइटेड स्टेट्स, मेक्सिको कनाडा एग्रीमेंट यानी यूएसएमसीए.

USA-Mexiko-Handel- NAFTA
तस्वीर: picture alliance/dpa/Servicio Universal Noticias

नई डील में अमेरिकी कंपनियों को कनाडा के अतिसुरक्षित माने जाने वाले डेयरी बाजार में सेंध लगाने का मौका मिल गया है. कनाडा बाहरी कंपनियों को दूर रखने के लिए 275 फीसदी की दर से टैक्स लगाता है लेकिन अब उसे अमेरिकी कंपनियों को छूट देनी पड़ेगी. दोनों देशों ने कारोबारी विवादों को सुलझाने के लिए एक तंत्र विकसित करने पर भी रजामंदी दिखाई है. यह कनाडा के लिए जीत है क्योंकि पुरानी डील के इस प्रावधान को अमेरिका खत्म करना चाहता था. इसके अलावा संस्कृति को बचाने के नाम  पर कनाडा को अपने देश की मीडिया कंपनियों के हित की रक्षा करने में कामयाबी मिली है.

कुल मिला कर दोनों इस डील से खुश हैं और इसे अपनी जीत मान रहे हैं लेकिन दुनिया के लिए इसमें क्या संदेश छिपा है क्योंकि अमेरिकी रुख में यह बदलाव सिर्फ अपने पड़ोसियों के लिए ही नहीं है. अमेरिका ने चीन के साथ कारोबार में 250 अरब डॉलर के सामान पर टैक्स लगा दिया है. अमेरिका के परम सहयोगी माने जाने वाले दक्षिण कोरिया के साथ कारोबारी साझेदारी की नई शर्तें बनी हैं. जापान के साथ भी नए कारोबारी शर्तों पर बातचीत के लिए तारीख तय की जा रही है. इस कतार में एक नाम भारत का भी लिया जा रहा है.

अमेरिकी राष्ट्रपति यह महसूस कर रहे हैं कि दुनिया के देशों ने अब ठीक ठाक आर्थिक प्रगति कर ली है और वे अमेरिकी हितों को प्रभावित कर रहे हैं. चीन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. प्रोफेसर हर्ष पंत कहते हैं, "चीन और अमेरिका के बीच जो कारोबारी समझौता था वो तब का है जब चीन उतनी बड़ी आर्थिक महाशक्ति नहीं था. अब चीन बड़ा हो गया है. ऐसे में अमेरिका चाहता है कि जिस तरह से अमेरिका ने चीन के लिए अपने दरवाजे खोले हैं चीन भी वही करे लेकिन चीन इसके लिए तैयार नहीं है. नतीजे में अमेरिका ने चीनी कंपनियों के सामान पर टैक्स लगा दिया जिसका जवाब चीन भी उसी तरह से टैक्स लगा कर दे रहा है."

इसी साल जुलाई में यूरोपीय संघ के साथ भी कई महीने की तनातनी के बाद अमेरिका ने एक समझौते की तरफ कदम बढ़ाए. हालांकि व्हाइट हाउस में ट्रंप और यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष ज्यां क्लोद युंकर की मुलाकात में हुए तात्कालिक समझौते में बात सिर्फ इतनी हुई कि जब तक पक्का समझौता नहीं होता दोनों एक दूसरे के खिलाफ कारोबारी जंग नहीं छेड़ेंगे और जीरो टैक्स फिलहाल लागू रहेगा. 

USA Washington Jean-Claude Juncker, Präsident EU-Kommission & Donald Trump
तस्वीर: Reuters/J. Roberts

यूरोपीय संघ से डील के बाद ट्रंप ने कहा था, "करीबी दोस्ती और मजबूत कारोबारी रिश्तों के एक नए दौर की शुरूआत हो रही है जिसमें हम दोनों फायदा होगा. अगर हम टीम की तरह काम कर सकें तो अपनी धरती को बेहतर, ज्यादा सुरक्षित और समृद्ध बना सकेंगे.“ युंकर ने भी कहा कि एक अच्छी रचनात्मक मुलाकात हुई लेकिन सच्चाई यह है कि अब तक दोनों पक्षों में कोई स्थायी समझौते पर सहमति नहीं हो सकी है.  

अमेरिका और खास तौर से ट्रंप प्रशासन यह मान रहा है कि दुनिया के देश उसकी उदारता का लाभ उठा कर अपने पांव जमा रहे हैं और इसका खामियाजा अमेरिकी कंपनियां उठा रही हैं. राष्ट्रपति ट्रंप ने कुछ ही दिनों पहले कहा कि अमेरिका का व्यापार घाटा 817 अरब डॉलर का है जिसे वह घटाना चाहते हैं. विशेषज्ञ इस आंकड़े पर सवाल उठा रहे हैं लेकिन अमेरिकी चिंता को वाजिब कहने वालों की भी कमी नहीं है.

हाल ही में राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत को उदाहरण की तरह इस्तेमाल कर कहा कि अमेरिकी कंपनियों के सामान पर भारत 100 फीसदी टैक्स लगाता है और भारतीय कंपनियां अमेरिका में बिना टैक्स के सामान पहुंचा रही हैं तो फिर अमेरिका इन पर टैक्स लगाएगा. हो सकता है कि यह टैक्स की दर 25 फीसदी हो, 15 फीसदी या सिर्फ 10 फीसदी ही लेकिन टैक्स देना होगा. अगर इस टैक्स से बचना है तो फिर अमेरिका के साथ कारोबारी समझौता करना होगा.

USA China Symbolbild Wirtschaftskrieg
तस्वीर: imago/C. Ohde

ट्रंप ने यह भी कहा कि भारत और दूसरे देश अमेरिका के साथ कारोबारी समझौता करना चाहते हैं. हर्ष पंत कहते हैं, "अमेरिका भारत के संबंधों के परिमाण को देखें तो एक कारोबारी समझौता तो जरूर हो सकता है लेकिन इसकी शर्तें क्या होंगी सब कुछ इस पर निर्भर करेगा. हालांकि एक अहम मुद्दा यह है कि भारत रूस और चीन के साथ मिल कर एक मोर्चा बनाने की भी कोशिश में है जिसके जरिए संरक्षणवाद को चुनौती दी जाएगी. ऐसे में अमेरिकी रुख क्या करवट लेगा यह कहना मुश्किल है. भारत को दोनों तरफ से फायदा मिल सकता है, अगर अमेरिका के साथ भी करार होता है तो यह भी उसके फायदे में ही होगा."

अमेरिकी चिंता की वजहें किसी से छिपी नहीं है. वक्त के साथ बदली परिस्थितियों में उसकी पकड़ कमजोर हो रही है ना सिर्फ सामरिक ताकत में बल्कि आर्थिक प्रभाव में भी. ट्रंप प्रशासन को लगता है कि चीन, भारत, और दूसरे देश अपनी प्रगति से उसे आहत कर रहे हैं और वह हर हाल में खुद को इस होड़ में बनाए रखना चाहता है. मौजूदा कारोबारी कदमों के पीछे भी शायद यही चिंता काम कर रही है. 

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