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कहीं समय तो नहीं दोहरा रहा अपने आप को

३० अक्टूबर २०१५

भारत में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक और बहुविवाद के मामलों में मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों पर विचार करने का फैसला किया है. पत्रकार सुहैल वहीद का कहना है कि इस समय यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए परिस्थितियां अनुकूल हैं.

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तस्वीर: Sajjad Hussain/AFP/Getty Images

इसे महज एक संयोग कहा जाए कि जब भारत में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ वैज्ञानिकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों ने अभियान चला रखा है तब सुप्रीम कोर्ट ने सुओ मोटो एक ऐसे मामले की समीक्षा करने का आदेश दे दिया है जिसे भारतीय राजनीति की दुखती रग कहा जा सकता है. मामला यूनिफार्म सिविल कोड का है जिसको लागू करने की बेहद अनुकूल राजनीतिक पस्थितियां इस समय देश में मौजूद हैं, अल्पसंख्यक और विशेष रूप से मुसलमान इसकी आहट से ही परेशान हो जाते हैं. ऑल इंडिया मुस्ल्मि पर्सनल लॉ बोर्ड इसके खिलाफ लड़ाई लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहता है क्योंकि उसका गठन ही मुस्लिम पर्सनल लॉ की हिफाजत के लिए हुआ है.

दरअसल यूनिफार्म सिविल कोड की बात उस समय शुरु हुई जब पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक क्रिश्चियन दंपत्ति की तलाक याचिका पर सुनवाई करते हुए भारत सरकार से पूछा कि वह देश में यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने के बारे में वह क्या सोच रही है. बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने लगभग मान लिया है कि मुस्लिम महिलाओं के साथ भेदभाव होता है और जावेद वर्सेस स्टेट ऑफ हरियाणा मामले में सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिमों की दूसरी शादी को सती प्रथा जैसा मान लिया है.

भारतीय मुस्लिम मानस इस बात को मन से कतई स्वीकार नहीं करने वाला है कि सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश वर्तमान केंद्र सरकार की विचारधारा से प्रभावित नहीं हैं. शाहबानो प्रकरण के समय से ही विचलित भारतीय न्यायपालिका जब तब ऐसे फैसले देती आई है जिसमें मुस्लिम महिलाओं को तलाक के बाद सीआरपीसी की धारा 125 गुजारा भत्ता लेने को अधिकृत किया जाता रहा है. गुजरात के 2002 के भयानक दंगे हों या भिवंडी, भागलपुर, मेरठ के मलियाना और हाशिमपुरा का नरसंहार, भारतीय अदालतों पर भरोसा मुस्लिम मानस के लिए मुश्किल भरा कड़वा घूंट माना जाता रहा है. आम मुस्लिम भारत की अदालतों का रुख मजबूरी में ही करता है और तलाक तथा सम्पत्ति के मामले अपनी शरिया अदालतों में हल करना ज्यादा मुनासिब समझता है.

यही वजह है कि भारत के लगभग हर शहर में एक दारुल कजा मौजूद है जहां तलाक के फतवे जारी करने वाला मौलाना तैनात होता है. दारुल उलूम देवबंद और लखनऊ के नदवा तथा फरंगी महल से जारी फतवों को काफी महत्व मिलता है. लेकिन अब हालात बदल भी रहे हैं. मुस्लिम युवा के हाथ में भी अब साइबर हथियार के रूप में स्मार्ट फोन इंटरनेट सहित मौजूद है और वह दुनिया के तरक्की पसंद मुस्लिम देशों की तस्वीरें और रहन सहन देख रहा है. फेसबुक से वह वैश्विक दोस्ती निभा रहा है. इसलिए आसानी से मौलवियों के झांसे में आने को तैयार नहीं है.

इसे भी संयोग ही कहा जाएगा कि जब सुप्रीम कोर्ट के दो न्यायाधीशों ने मुस्लिम महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव पर समीक्षा के लिए मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक विशेष पीठ बनाने का सुझाव दिया है ठीक उसी समय अलीगढ़ के एक संगठन "मुस्लिम महिला आंदोलन" ने तीन तलाक पर बैन के लिए दिल्ली में "पब्लिक हियरिंग" शुरु करने का फैसला किया है. इस संगठन का कहना है मुस्लिम पर्सनल लॉ के पुरुषवादी ढांचे के कारण महिलाओं के हितों का हनन हो रहा है. इनका तर्क है कि मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में फैमिली लॉ आर्डिनेंस 1961 बहुविवाह और तत्काल तीन तलाक को निषेध मानता है. इसके अलाव तुर्की, टयूनिशिया और मोरक्को जैसे देशों में भी तीन तलाक पर प्रतिबंध है.

लेकिन याद रखने की बात यह है कि राजीव गांधी की सरकार ने जिस प्रकार सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ मुस्लिम वुमेन (प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन डिवोर्स) एक्ट 1986 को संसद से पारित कराया था, बिल्कुल वैसी ही राजनीतिक परिस्थितियां इस समय मौजूद हैं. उनके पास भी उस समय अपार बहुमत था. इतिहास अपने आपको अगर उलटे चक्र के रूप में दोहराता है तो कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि भारत राजनीतिक घटनाओं की विविधता का भी देश रहा है. हर कोस पर बोली और पानी बदलने वाले इस देश की संस्कृति का यही सब हिस्सा रहा है.

सत्तारूढ़ पार्टी की सरकार के चुनावी घोषणा पत्र में यूनिफार्म सिविल कोड की बात इसलिए छूट गई थी क्योंकि उसे तब इतने बड़े बहुमत की उम्मीद नहीं थी, लेकिन हालात उसे इसकी पूरी इजाजत दे रहे हैं कि वह अपना मूल्यवान यूनिफॉर्म सिविल कोड के मुद्दे को पूरी निष्ठा से लागू कर दे. राजीव गांधी सरकार के समय भी जिन्न सुप्रीम कोर्ट से निकला था और इस बार भी शायद वहीं से निकल रहा है. अगर ऐसा होता है तो बोतल तो नई होगी लेकिन शराब नई हो सकती है.

ब्लॉग: सुहैल वहीद

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