कहानी प्लास्टिक की कुर्सी की
सस्ती, हल्की, भारी, महंगी. प्लास्टिक की कुर्सियां हर रंग में, हर डिजाइन में हर मौके के लिए और दुनिया के कई देशों में लोकप्रिय हैं. शादी का मौका हो या फिर कोई बैठक भारत में भी प्लास्टिक की कुर्सियां सब जगह मौजूद होती हैं.
मोनोब्लॉक
प्लास्टिक की इन कुर्सियों को मोनोब्लॉक कहा जाता है. शायद ही कोई ऐसा हो जो अपने जीवन में कभी इस तरह की कुर्सी पर नहीं बैठा हो. सत्तर के दशक से ये कुर्सी दुनिया भर में बनाई जा रही है. इसके डिजाइनर का कोई पता नहीं.
हर जगह बेस्ट
चाहे समंदर किनारा हो घर के बाहर बैठना हो. झट प्लास्टिक की कुर्सी निकाली और बैठ गए. धूल मिट्टी, पानी की कोई चिंता नहीं. किसी मौसम में इसे कुछ नहीं होता. दुनिया भर में ऐसी एक अरब से ज्यादा कुर्सियां हैं.
सबके लिए
छोटे से छोटे बच्चे के लिए और बड़ों में हर ऊंचाई और वजन के इंसान के लिए ये कुर्सियां बनी हैं. पूरी कुर्सी एक साथ बन कर निकलती है.
जर्मनी में
जर्मनी और अमेरिका में इन कुर्सियों का इस्तेमाल सामान्य तौर पर बागीचे में बैठने के लिए किया जाता है क्योंकि ये बारिश में खराब नहीं होती. और जरूरत पड़ने पर इन्हें एक के ऊपर एक रखा जा सकता है.
बस्ते के साथ कुर्सी भी
दक्षिणी अंगोला में स्कूल जाते इन बच्चों को अपनी किताबें तो साथ ले ही जानी पड़ती हैं, अपनी कुर्सियां भी वो रोज साथ ले जाते हैं. ऐसे में हल्की फुल्की कुर्सियों से बेहतर क्या होगा.
अफगानिस्तान में
अफगानिस्तान में स्कूल अक्सर खुले में लगता है. तो वहां भी बच्चों की साथी ये कुर्सियां होती हैं. अफगानिस्तान में स्कूल जाने की उम्र वाले 84 लाख बच्चों में से सिर्फ 1.4 फीसदी ही स्कूल जाते हैं.
सागर किनारे
प्लास्टिक से होने वाले प्रदूषण के साथ यह भी उतना ही सच है कि ये पदार्थ हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है. समंदर किनारे रेत में बैठने के लिए प्लास्टिक की कुर्सी से बेहतर क्या हो सकता है.
ट्यूनीशिया में
रमजान के दौरान ली गई तस्वीर. ट्यूनीशिया में सागर किनारे रमजान के महीने में इफ्तारी का मौका. और पक्की साथी, प्लास्टिक की कुर्सियां
सब तबकों के लिए
चाहे उच्चमध्य वर्ग का बागीचा हो या किसी गरीब बस्ती का कोना. बेलग्रेड की एक झुग्गी बस्ती में प्लास्टिक की टूटी कुर्सी पर बैठा एक बच्चा.