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कश्मीर मूवमेंट का इस्लामीकरण

२ जून २०१७

कश्मीर के अलगाववादियों के अल कायदा से जुड़ने की खबर है. तो क्या कश्मीर मुद्दे को इस्लामिक चरमपंथियों से हाइजैक कर लिया है. दक्षिण एशिया विशेषज्ञ अग्नियेश्का कुशेवस्का इसके लिए भारत की नीतियों को भी जिम्मेदार ठहराती हैं.

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Pakisten Aktivist Burhan Wani
तस्वीर: picture-alliance/dpa/R.S.Hussain

डीडब्ल्यू: हाल ही में एक प्रभावशाली कश्मीरी नेता जाकिर मूसा ने अलगाववादी मूवमेंट से दूरी बना ली और अल कायदा में शामिल हो गया. कुछ विशेषज्ञों को लगता है कि दशकों पुराना भारत विरोधी अभियान तेजी से इस्लामीकरण की तरफ बढ़ रहा है. क्या आप इस समीक्षा से सहमत हैं?

अग्नियेस्का कुसजेवस्का: जाकिर मूसा अब हिज्बुल मुजाहिद्दीन अलगाववादी गुट से नहीं जुड़ा है. संगठन ने माना है कि "हुर्रियत के नेताओं का सर कलम करने" वाला मूसा का बयान अस्वीकार्य है और यह उसकी निजी राय है.

मूसा ने कहा कि वह "कश्मीर में शरिया" लागू करना चाहता है और यह ताकत के जरिये होना चाहिए न कि जनमत के जरिये. चरमपंथ के विस्तार और तथाकथित "कश्मीरी तालिबान" के उदय की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है. हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी की कश्मीर के प्रति कड़ी नीति हालात को भड़का रही है. अगर भारत ने घाटी में कड़ी नीति जारी रखी तो कश्मीरी मूवमेंट के कुछ धड़े ज्यादा कट्टर हो सकते हैं.

विशेषज्ञ कहते हैं कि कश्मीर के विवाद में पाकिस्तान 1980 के दशक के आखिर में सीधे शामिल हुआ, इसके बाद ही कश्मीर का नरमपंथी आंदोलन ज्यादा धार्मिक रंग लेने लगा. क्या आपको लगता है कि यह और ज्यादा कट्टर होता जा रहा है, शायद वैश्विक आतंकी संगठनों के संभावित तालमेल के चलते?

इलाके में इस्लामी चरमपंथ का उभार 1980 के दशक में अफगान युद्ध के दौरान आया. इसका सीधा असर कश्मीर विवाद पर भी पड़ा. 1990 में पाकिस्तान में ट्रेनिंग लेने वाले उग्रवादियों की घुसपैठ से भारत विरोधी आंदोलन ज्यादा इस्लामिक हो गया. मौजूद डाटा और तथ्यों की समीक्षा के आधार पर मुझे लगता है कि कश्मीर के लोग इस्लाम का विस्तारवाद नहीं चाहते, वे चरमपंथी संगठनों को भी पंसद नहीं करते और ज्यादातर शरिया लागू करने के भी खिलाफ हैं. कई देशों में फैले आंतकी गुटों के पास कश्मीर में बड़ा समर्थन नहीं है.

श्रीनगर में जब मैं "वेलकम तालिबान" की ग्रैफिटी देखती हूं तो मेरे दिमाग में दो बातें आती हैं. पहली, कुछ युवा कश्मीरी और उग्रवादी संगठन इन संगठनों के प्रति अपना हल्का सा समर्थन जताते हैं क्योंकि वे घाटी में मानवाधिकारों के हालात के खिलाफ विरोध करना चाहते हैं. दूसरी बात है, यह सुरक्षा तंत्र द्वारा भी किया जा सकता है, वे इनकाउंटरों और मानवाधिकार के हनन के अन्य मामलों के लिए बदनाम हैं.

नये कश्मीरी आंदोलन को ज्यादातर नाराज युवा चला रहे हैं, वे भारत और पाकिस्तान दोनों के खिलाफ नजर आते हैं. लेकिन यह 1990 से पहले के उस आंदोलन से कैसे अलग है, जब पाकिस्तान से उम्मीदें नहीं थीं?

यह अलग है क्योंकि बीते तीन दशकों में भूरणनैतिक आयाम बदल चुके हैं. यह इसलिए भी अलग है कि युवा पीढ़ी कई साल की हिंसा देख चुकी है और उनकी स्मृतियां और सदमे पुरानी पीढ़ी के मुकाबले अलग हैं. कश्मीर के युवा थके हैं, गुस्से में है और समाधान की सख्त जरूरत महसूस कर रहे हैं. सुरक्षा बलों के दुर्व्यवहार की वजह से प्रतिरोध ज्यादा लोगों को आकर्षित कर रहा है. युवा अपनी जान दांव पर लगाने को तैयार हो रहे हैं. प्रदर्शनकारी अब खुद को छुपा नहीं रहे हैं. वे सारे दुर्व्यवहार को रिकॉर्ड कर रहे हैं और फिर सोशल मीडिया के जरिये दुनिया से साझा कर रहे हैं. बीते साल जुलाई में सुरक्षा बलों के हाथों मरने वाला बुहरान वानी इस नए ट्रेंड में काफी कुशल था.

इंटरव्यू: शामिल शम्स

अग्निएश्का कुशेव्स्का वारसा यूनिवर्सिटी ऑफ सोशल साइसेंस में प्रोफेसर हैं और थिंक टैंक पोलैंड एशिया रिसर्च सेंटर से जुड़ी हैं.​​​​​​​

(कश्मीर मुद्दे की पूरी रामकहानी)