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कर्कश राजनीति के शोर से परेशानी

९ अगस्त २०१४

सारा राय हिन्दी की जानी-मानी कथाकार तो हैं ही वे हिन्दी से अंग्रेजी की बेहतरीन अनुवादक भी हैं. उन्हें इसके लिए दो बार कथा पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है.

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तस्वीर: DW/K. Kumar

सारा राय के दो कहानी संग्रह 'अबाबील की उड़ान' और 'बियाबान में' और एक उपन्यास 'चीलवाली कोठी' प्रकाशित हो चुके हैं. हिन्दी कहानियों के अंग्रेजी अनुवाद पेंगुइन और कथा ने प्रकाशित किए हैं. वे इलाहाबाद और दिल्ली दोनों शहरों में रहती हैं. पिछले दिनों उनके दिल्ली प्रवास के दौरान हुई बातचीत के कुछ अंश:

आपके घर में साहित्य-संगीत-कला का माहौल था. प्रेमचंद आपके दादा थे, आपके पिता श्रीपत राय शांतिनिकेतन में पढ़े, उदयशंकर के साथ रहे और चित्रकला के क्षेत्र में भी उन्होंने नाम कमाया. आपकी मां जहरा राय कहानियां लिखती थीं और उन्होंने आफताब-ए-मौसीकी कहे जाने वाले उस्ताद फैयाज खां से शास्त्रीय संगीत की तालीम ली थी. आपके चाचा अमृत राय स्वयं एक अच्छे लेखक थे. इस माहौल में बड़े होने के कारण क्या लेखक होना आपके लिए नितांत स्वाभाविक था?

हां, साहित्य, संगीत और कला के माहौल में मैं बचपन से पली-बढ़ी. मेरे दादा मुंशी प्रेमचंद मेरी पैदाइश के बीस साल पहले संसार से जा चुके थे, फिर भी घर में उनकी मौजूदगी हमेशा रही. लगभग रोज ही उनकी कोई-न-कोई बात हो जाती, उनके रहन-सहन की सादगी, उनका देर रात तक लालटेन की रोशनी में लिखना, उनका जोरदार ठहाका, उनके ऊंचे आदर्श और उनकी गहरी नैतिकता. और हां, उनके द्वारा दादी (शिवरानी देवी) के हर छोटे-बड़े हुक्म की तामील करने की भी! उनकी गैरमौजूदा मौजूदगी का शायद असर रहा होगा की घर के ज्यादातर सदस्य लिखते-पढ़ते रहे. इसके अलावा मेरी मां दिन के पांच-सात घंटे शास्त्रीय गायन के रियाज में बिताती थीं. लगभग उतना ही समय मेरे पिता पेंटिंग बनाने में गुजारते थे. दादी, चाचा, चाची, मौसी, सभी लिखते थे.

घर में ढेरों किताबें थीं. उनको पढ़ना तो लाजिम था ही. साहित्य में मेरी रुचि पढ़ने से ही शुरू हुई और अब भी अपने को लेखक के साथ-साथ मैं एक रचनात्मक पाठक भी समझती हूं. छह-सात साल की उम्र से पढ़ना शुरू किया था. एकाध साल में लिखने को भी आजमा कर देखा. मेरी पहली कहानी आठ-नौ साल की उम्र में, तब तक के पढ़े हुए बाल-साहित्य की नकल में, लिखी गई थी. तब मुझे लगा था कि कोशिश करने पर लिखा भी जा सकता है.

आपकी कहानियां अपनी संवेदनशीलता और उसे व्यक्त करने के लिए आविष्कृत खास तरह की भाषा के लिए जानी जाती हैं. आपके प्रेरणास्रोत कौन रहे हैं? या, आपने अपना रास्ता स्वयं तलाश किया?

पढ़ने में गहरी रुचि होने की वजह से एक तरह की साहित्यिक दृष्टि बन गयी, एक संवेदबोध जिससे मैं अपने आसपास के परिवेश को टटोलने लगी. हर चीज को बारीकी से देखने की आदत हो गयी. स्मृति, समय, प्रकृति, इंसानी रिश्ते, भाषा की चेतना, न जाने कितने स्तरों पर हमारा रचनात्मक बोध बनता रहता है. लिखते समय लगभग एक रहस्यमयी क्रिया में यह अवचेतन से प्रकट होने लगता है. अपनी समझ यानी कि इंट्यूशन के हिसाब से उसे व्यक्त करना, फिर तराशना और ऐसे रूप में ढालना कि वह अपनी पूरी सच्चाई में संप्रेषित हो सके. लेखन के सीधे-सीधे प्रेरणास्रोत तो मैं नहीं कह सकती, मगर जो कुछ देखा, महसूस किया, पढ़ा, सब मिलाकर एक साहित्यिक बोध बना जिसने लिखने के विषय और शैली को तय किया.

आपके लेखन की एक विशेषता यह है कि वह इस बात से कतई प्रभावित नहीं लगता कि इन दिनों क्या लिखने का फैशन है. फिर भी, क्या कभी तात्कालिक साहित्यिक अभिरुचि का दबाव महसूस हुआ?

नहीं, इस तरह का दबाव मैंने कभी महसूस नहीं किया. हम उसी तरह से लिखते हैं जिस तरह लिख पाते हैं. तात्कालिक या फैशनबल तौर-तरीके अपनाने से लेखन अस्वाभाविक होकर अपनी मौलिकता खो देता है. इतना जरूर है कि आज के समय और दुनिया में तेज बदलाव में ही तो तात्कालिकता है, उसे पकड़ने के लिए नयी शैली का इस्तेमाल आवश्यक लग सकता है.

स्त्रीवादी लेखन इन दिनों बहुत चर्चा में है. आपकी राय?

किसी भी प्रकार के"वाद" यानी लेबल मुझे नहीं भाते. स्त्रियों की चिंताओं और मुद्दों को मैं गहराई से महसूस करती हूं और स्त्रियां अक्सर मेरी कहानियों की पात्र होती हैं. क्योंकि मैं खुद स्त्री हूं तो मेरा स्त्री की तरह छोटी-छोटी चीजों को बारीकी से देखना लाजिमी है. लेकिन "स्त्रीवादी लेखन" कहते ही जो कर्कश राजनीति का शोर हवा के साथ अंदर आ जाता है, उससे मुझे परेशानी है.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा