कमजोर पड़ता संसदीय लोकतंत्र
२ मई २०१३भारत को 1947 में जो आजादी मिली उसके पीछे लंबे अरसे तक चला एक सशक्त राष्ट्रीय आंदोलन और उपनिवेशवाद एवं सामंतवाद विरोध का आधार था. यही कारण था कि जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे शीर्षस्थ नेताओं ने स्वाधीन भारत को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र बनाने का बीड़ा उठाया और इसके लिए उपयुक्त राजनीतिक व्यवस्था के रूप में संसदीय लोकतंत्र को चुना. जिस समय यूरोप के भी कई देशों में हर किसी को वोट देने का अधिकार नहीं था, उस समय भारत जैसे गरीब, पिछड़े और अशिक्षा के शिकार देश में जनता को यह अधिकार दिया गया. आश्चर्य की बात यह है कि जब भारत एक पिछड़ा देश था, तब प्रारम्भ के कुछ दशकों में यह संसदीय प्रणाली बहुत सुचारु ढंग से चली.
लेकिन आज जब भारत में शिक्षा का काफी प्रसार हो गया है और उसे विश्व की आर्थिक महाशक्तियों की पांत में बैठने के योग्य माना जा रहा है, दुर्भाग्य से उसके संसदीय लोकतंत्र की जड़ें कमजोर पड़ती जा रही हैं. संसद के दोनों सदनों में अक्सर विधायी कामकाज या देश और समाज के सामने खड़े ज्वलंत मुद्दों पर सार्थक चर्चा होने के बजाय हो-हल्ला, वॉक-आउट और अंततः पीठासीन अधिकारी द्वारा कार्यवाही का स्थगन ही अधिक होता है. पिछले चार सालों के घटनाक्रम के मद्देनजर पूरी संभावना है कि वर्तमान पंद्रहवीं लोकसभा एक ऐसा इतिहास रचे जिस पर किसी को भी गर्व नहीं हो सकता. चार सालों में इसकी बैठकें केवल 1,157 घंटे चल पायी हैं. यदि इसकी तुलना पहली लोकसभा (1952-57) से करें तो पाएंगे कि उसकी कार्यवाही 3,784 घंटे चली थी. यानि अगर वर्तमान लोकसभा अपना कार्यकाल पूरा करने में सफल हुई और उसकी अगले एक वर्ष के दौरान निरंतर और निर्विरोध बैठकें हुईं, तो भी वह पहली लोकसभा की तुलना में आधे समय ही कार्यवाही कर पाएगी.
प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संसदीय लोकतंत्र की परम्पराओं के पालन और उनके संरक्षण के प्रति बेहद गंभीर थे. उनकी पूरी कोशिश रहती थी कि संसद का सत्र चलते समय यदि वे दिल्ली में हैं, तो सदन में अवश्य उपस्थित रहें. लेकिन उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद इस परंपरा के प्रति जरूरी गंभीरता नहीं दिखाई और उनके बाद से यह लगातार क्षीण ही होती गई है. अब तो अक्सर प्रधानमंत्री सदन से अनुपस्थित रहते हैं. इसी तरह शुरू की चार लोकसभाओं में, यानि 1952 से लेकर 1970 के बीच विपक्ष ने भी संसदीय कामकाज को बहुत गंभीरता से लिया और भारतीय संसद की विशिष्ट कार्यशैली विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया. शून्यकाल और प्रश्नकाल को सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने के हथियार के रूप में विकसित करने और उसका कारगर इस्तेमाल करने के काम में मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस और ज्योतिर्मय बसु जैसे सांसदों ने विशेष रूप से ख्याति अर्जित की.
लेकिन इन दिनों अक्सर शून्यकाल के दौरान विपक्ष किसी भी मुद्दे को उठाकर इतना हो-हल्ला करता है कि विवश होकर पीठासीन अधिकारी को सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ती है. विपक्ष का अक्सर रवैया यह रहता है कि जब तक सरकार अमुक मुद्दे पर संतोषजनक जवाब नहीं देती, सदन को नहीं चलने दिया जाएगा. सदन हफ्तों तक ठप्प पड़ा रहता है. सरकार के लिए यह एक सुविधाजनक स्थिति है जब वह विपक्ष के सवालों से दो-चार हुए बिना ही निर्बाध और मनमाने ढंग से काम करने के लिए स्वतंत्र हो जाती है. इस क्रम में जनता की बुनियादी समस्याओं और देश की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय नीतियों पर सार्थक चर्चा नहीं हो पाती. संसदीय प्रणाली और लोकतंत्र का शरीर तो बचा रहता है, लेकिन प्राण सूखने लगते हैं.
संसदीय लोकतंत्र में बहुमत का शासन है. संसद के सत्रों में चर्चा का प्रावधान इसीलिए किया गया है ताकि सरकार द्वारा लाये गए विधेयकों पर सार्थक चर्चा द्वारा विपक्ष उनमें संशोधन सुझा सके और तर्कपूर्ण ढंग से सरकार के सामने अपना दृष्टिकोण रखकर उसके नजरिए में बदलाव लाने की कोशिश कर सके. वरना चर्चा की जरूरत ही क्या है. विधेयक पेश करते ही बहुमत के आधार पर सत्ता पक्ष उसे मतदान के जरिए तत्काल पारित करा सकता है. लेकिन लोकतंत्र में बहस-मुबाहिसे, विचार-विमर्श और तर्क-वितर्क को इसीलिए महत्व दिया जाता है क्योंकि यही वह प्रक्रिया है जिसके जरिए एक पक्ष दूसरे पक्ष को अपनी राय से प्रभावित कर सकता है. दूसरे, इन चर्चाओं के जरिए देश की जनता भी राजनीतिक रूप से शिक्षित होती है.
लेकिन अब संसद में महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक चर्चाएं बहुत कम देखने में आती हैं. इस कारण जनता की निगाह में संसद और सांसदों की प्रतिष्ठा गिरी है. सरकार और उसके विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार संसद में भी प्रवेश कर गया है. कुछ साल पहले ‘नोट के बदले वोट' वाले मामले में कई सांसदों की सदस्यता समाप्त की गई, तब तो हद ही हो गई. इसीलिए आज देश में सम्पूर्ण राजनीतिक वर्ग को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा है.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी