उत्सर्जन पर अंकुश के लिए ताप बिजली घरों में चाहिए नयी तकनीक
९ नवम्बर २०१७80 फीसदी संयंत्रों में अब भी पुरानी तकनीक है. अब विशेषज्ञों ने कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए नयी तकनीक का इस्तेमाल करने की सिफारिश की है ताकि तेजी से बढ़ते उत्सर्जन पर अंकुश लगाया जा सके. चालू वित्त वर्ष के दौरान देश में कोयला आधारित बिजली के उत्पादन में 4.05 फीसदी वृद्धि का अनुमान है.
पर्यावरणविदों ने कोयले को ग्लोबल वार्मिंग की सबसे बड़ी वजह करार दिया है. यह सही है कि ईंधन के तौर पर कोयले के इस्तेमाल से बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन होता है. लेकिन बिजली के उत्पादन में इसकी अहमियत से इंकार नहीं किया जा सकता. दुनिया में बिजली के कुल उत्पादन में कोयला आधारित संयंत्रों का 41 फीसदी योगदान है. यही संयंत्र 46 फीसदी कार्बन उत्सजर्न के लिए जिमेमदार हैं. दुनिया में तीसरे सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जन देश का तमगा हटाने के लिए भारत सरकार ने अब वर्ष 2022 तक 175 गीगावाट हरित ऊर्जा पैदा करने की एक महात्वाकांक्षी योजना बनायी है. इसमें से सौ गीगावाट सौर ऊर्जा होगी.
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कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए विशेषज्ञों और नीति निर्माताओं ने सुपरक्रिटिकल और अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल कंबस्टन टेक्नोलाजी, जिसे हाई एफिशिएंसी लो ईमिशिन यानी उच्च दक्षता कम उत्सर्जन (एचईएलई) तकनीक भी कहा जाता है, को अपनाने की सिफारिश की है. उनका कहना है कि इससे वायुमंडल को होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है.
केंद्रीय बिजली प्राधिकरण की ओर से जारी आंकड़ों में कहा गया है कि वर्ष 2014-15 के दौरान बिजली संयंत्रों से कुल कार्बन उत्सर्जन 80.54 करोड़ टन था. उसके बाद इसमें सालाना लगभग सात फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है. विशेषज्ञों का कहना है कि देश के 50 फीसदी ताप बिजली संयंत्रों में अल्ट्रा-सुपरक्रिटिकल तकनीक अपना कर कार्बन उत्सर्जन को काफी हद तक कम किया जा सकता है. इससे सरकार को दूसरे उपायों के मुकाबले 25 हजार करोड़ रुपए की बचत होगी. कोयला मंत्री पीयूष गोयल कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के पेरिस समझौते के प्रावधानों को लागू करने के लिहाज से देश में पुराने कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों में सुपरक्रिटिकल और अलट्रा-सुपरक्रिटिकल तकनीक में निवेश करना फायदे का सौदा साबित होगा.
विशेषज्ञों ने बिजली की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने पर भी जोर दिया है. लेकिन दिक्कत यह है कि भारत का सौर ऊर्जा कार्यक्रम काफी हद तक आयात पर निर्भर है. वर्ष 2015-16 के दौरान देश में 2.34 अरब डॉलर के सोलर सेल का आयात किया गया था. इनमें से 83.61 फीसदी चीन से मंगाया गया था.
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देश में सोलर सेल और इससे संबंधित उपकरणों के निर्माण का कोई केंद्र नहीं होने की वजह से सौर ऊर्जा उत्पादन बढ़ाना महंगा सौदा है. यहां कच्चा माल भी सहजता से उपलब्ध नहीं है. इसकी वजह से देश में बनने वाले सोलर सेल चीन से आयातित सेल के मुकाबले 10 से 15 फीसदी महंगे होते हैं. सौर ऊर्जा के महंगा सौदा होने की वजह से ही विशेषज्ञ उत्सर्जन में कटौती के लिए ताप बिजली संयंत्रों में नयी तकनीक के इस्तेमाल को बढ़ावा देने पर जोर दे रहे हैं.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, बीते तीन साल में भारत में सौर ऊर्जा का उत्पादन अपनी स्थापित क्षमता से चार गुना बढ़ कर 10 हजार मेगावाट पार कर गया है. यह फिलहाल देश में बिजली उत्पादन की स्थापित क्षमता का 16 फीसदी है. अब सरकार का लक्ष्य इसे बढ़ा कर स्थापित क्षमता का 60 फीसदी करना है. सरकार की दलील है कि सौर ऊर्जा की लागत में कमी आने की वजह से अब यह धीरे-धीरे ताप बिजली से मुकाबले की स्थिति में पहुंच रहा है. भारत ने वर्ष 2030 तक अपनी कुल बिजली जरूरतों का तीस फीसदी गैर-परंपरागत स्रोतों से पूरा करने की योजना बनायी है. केंद्रीय बिजली प्राधिकिरण के विशेषज्ञों का कहना है कि गैर-पंरपरिक ऊर्जा के उत्पादन में वृद्धि की वजह से वर्ष 2022 तक कई कोयला आधारित संयंत्रों की स्थापित क्षमता में 48 फीसदी तक कटौती हो सकती है.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार कार्बन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों को विकसित करने पर खास ध्यान दे रही है. बोर्ड के अतिरिक्त निदेशक दीपंकर साहा कहते हैं, "आबादी बढ़ने के साथ निजी व सरकारी क्षेत्र में निर्माण, परिवहन और उद्योगों का भी विस्तार होता है. इन तमाम क्षेत्रों की बिजली की जरूरतें गैर-पारंपरिक ऊर्जा से पूरा करने की स्थिति में रोजगार के नए अवसर भी पैदा होंगे."