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उच्च शिक्षा में आगे आती लड़कियां लेकिन चुनौतियां कायम

शिवप्रसाद जोशी
२४ सितम्बर २०१९

उच्च शिक्षा संस्थानों में लड़कियों की संख्या बढ़ रही है. कुल नामांकन भले ही अभी बहुत ज्यादा नहीं है लेकिन विषय के आधार पर देखें तो कई जगहों पर लड़कियों की संख्या लड़कों से ज्यादा है.

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Indian Institutes of Technology in Kota
तस्वीर: AP

 इस बात की ताकीद करते हैं उच्च शिक्षा के नये आंकड़े जो केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग के अखिल भारतीय सर्वे (एआईएचईएस) ने जारी किए हैं. उसके मुताबिक बीटेक एमटेक के दाखिलों में रिकॉर्ड गिरावट है लेकिन उच्च शिक्षा की कुल नामांकन दर में उछाल आया है. लैंगिक विभेद इंडेक्स (जीडीआई) बहुत मामूली सा बढ़ा है लेकिन लड़कियों की संख्या में अपेक्षाकृत वृद्धि भी हुई है. कला, मानविकी और विज्ञान विषयों में लड़कियां ज्यादा हैं और कॉमर्स में लड़के ज्यादा.

तकनीकी कोर्सो में मास्टर्स डिग्री में दाखिला लेने वालों की संख्या 2015-16 में 18 लाख थी तो 2018-19 के सत्र में 12 लाख 36 हजार ही रह गई यानी करीब 32 प्रतिशत की गिरावट. इसी अवधि में बीटेक नामाकंन 42 लाख 54 हजार से घटकर नामांकन सिर्फ 37 लाख 70 हजार रह गया यानी नौ प्रतिशत की गिरावट. एमबीए, एमबीबीएस, बीएड और एलएलबी जैसे कुछ प्रोफेशनल  कोर्सों में छात्रों का रुझान बना हुआ दिखता है. इन कोर्सों के लिए दाखिले में पिछले पांच साल के दौरान बढ़ोतरी देखी गई है. बीएड में तो 80 प्रतिशत का उछाल आया है.

प्रोफेशनल कोर्सों में ये भारी गिरावट ऐसे समय में आई है जब उच्च शिक्षा में कुल नामांकन ऑल टाइम हाई यानी करीब पौने चार करोड़ है. पिछले साल ये साढ़े तीन करोड़ से कुछ ज्यादा था. मानविकी, कला और वाणिज्य संकायों में छात्रों की दिलचस्पी बढ़ी है. सर्वे में बताया गया है कि उच्च शिक्षा में सकल नामांकन दर (जीईआर) 2017-18 में 25.8 प्रतिशत था और 2018-19 में ये बढ़कर 26.3 प्रतिशत हो गया है. जीईआर के जरिए 18-23 साल के आयु वय के युवाओं के अंडरग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट कक्षाओं में दाखिले की दर मापी जाती है.

उच्च शिक्षा में नामांकन के नये आंकड़ों में लड़कियों की बढ़ती संख्या गौरतलब है. कुल नामांकन भले ही कम है लेकिन विषयवार देखें तो लड़कियों की संख्या ज्यादा है. तीन करोड़ 74 लाख छात्रों में से एक करोड़ 92 लाख लड़के और एक करोड़ 82 लाख लड़कियां हैं. 2014-15 में जेंडर पैरिटी इंडेक्स (जीपीआई) 0.92 था तो 2018-19 में ये एक हो गया है. लैंगिक समानता का ये अनुपात यूं तो गिरा है लेकिन अंतर बहुत मामूली सा है. विषयवार लैंगिक आधार पर देखें तो लड़कियां अधिक हैं. कला और मानविकी में दाखिला लेने वाले 93.49 लाख छात्रों में से 53 प्रतिशत लड़कियां हैं. विज्ञान विषयों में नामांकित 47.13 लाख छात्रों में 51 प्रतिशत लड़कियां हैं. कॉमर्स ही ऐसा विषय है जिसमे दाखिला लेने वाले 40 लाख छात्रों में से 51 प्रतिशत लड़के हैं. यही मामूली सा अंतर लैंगिक विभेद इंडेक्स में भी झलकता है. उत्तर प्रदेश के विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में पिछले साल एक करोड़ 61 लाख लड़के ज्यादा थे. इस बार 90 हजार लड़कियां ज्यादा हैं. कर्नाटक में भी लड़कियों की संख्या पुरुषों से अधिक है.

सही है कि भारतीय परिवारों में कुछ हद तक पहले के मुकाबले जागरूकता आई है, कुछ अनुदारवादी और पूर्वाग्रहों की बेड़ियां टूटी हैं, लड़कियां खुद साहसी, सचेत और आत्मनिर्भर हो रही हैं. आर्थिक चुनौतियों ने भी लड़कियों को लड़ाई में कुछ हद तक साझेदार बनाया है. स्कूलों और कॉलेजों और विश्वविद्यालयों तक लड़कियों की पहुंच पहले की अपेक्षा सुगम और सहज हुई है. इसीलिए सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक विसंगतियों, अड़चनों, विरोधाभासों और पितृसत्तात्मक अवरोधों के बावजूद लड़कियों की बढ़ती संख्या को एक राहत के रूप में भी देखा जा सकता है. हालांकि ये जानना भी जरूरी है कि इसके बावजूद कितनी लड़कियां करियर या आत्मनिर्णय का हक हासिल कर पाती हैं. क्योंकि सेवा क्षेत्र में रोजगार के आंकड़े अब भी महिलाओं के नजरिए से उत्साहवर्धक नहीं कहे जा सकते हैं.

Universität Visva-Bharati
तस्वीर: DW/P. Samanta

राष्ट्रीय सैंपल सर्वे जैसी आधिकारिक भारतीय सर्वे एजेंसी के मुताबिक कुल आबादी में कामकाजी महिलाओं का अनुपात 2012-13 में 25 प्रतिशत, 2013-14 में 29.6 प्रतिशत और 2015-16 में 25.8 प्रतिशत रहा है. डेटा संग्रहण में प्रतिष्ठित अमेरिकी मल्टीनेशनल संस्था डेलॉयटे रिपोर्ट के मुताबिक भारत में महिला श्रम भागीदारी 2018 में 26 प्रतिशत ही रह गई जबकि 2005 में ये कहीं ज्यादा यानी 34 प्रतिशत थी. सामाजिक आर्थिक अवरोध, क्वालिटी शिक्षा के अभाव और डिजिटल विभाजन की वजह से महिलाओं के लिए अवसर कम हुए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक साढ़े 19 करोड़ महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं या उन्हें अपने काम का वेतन नहीं मिलता. ये आंकड़े उच्च शिक्षा में लड़कियों की बढ़ती भागीदारी के समांतर नये सवाल खड़े करते हैं.

बेशक सेना से लेकर बैंक और शिक्षा तक कंधा से कंधा मिलाकर चलने की बात अक्सर नारे की हद तक बार बार बताई और फैलाई जाती है लेकिन ये भी सच है कि कंधे से कंधा मिलाने के मुहावरे से आगे महिलाओं की स्थिति आंकने की कोशिश की भी नहीं गई है यानी उनके लिए कमोबेश सभी क्षेत्रों में नेतृत्व के आंकड़े अब भी विरल हैं क्योंकि वहां पहुंच पाना उनके लिए अब भी स्वप्न से कम नहीं. ये उन महिलाओं तक सीमित रवैया नहीं है जिन्हें पारिवारिक समृद्धि नहीं मिली, पर्याप्त शिक्षा और संसाधन नहीं मिले और जो शहरी जीवन की सुविधाओं और विलासिताओं से अनभिज्ञ और दूर हैं.

Indien Saraswati Puja
तस्वीर: DW/P. Mani

विश्व बैंक की एक हाल की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि लड़कियों को शिक्षित ना बनाने या उनके सामने मुश्किलें खड़ी कर देने का असर विश्व अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है. अमेरिकी डॉलर में ये नुकसान 15 से 30 खरब डॉलर का आंका गया. कुछ सकारात्मक परिवर्तनों के बावजूद ये भी सच है कि लड़कियों को रोजगार में बराबरी पर लाना या उन्हें नेतृत्व की जिम्मेदारियां सौंपने के मामले में भारतीय समाज खासा कंजरवेटिव है. उच्च शिक्षा में दाखिले के आंकड़ों का स्वागत इसलिए भी किया जाना चाहिए क्योंकि इसी नजरिए के बलबूते ना सिर्फ शिक्षा में बल्कि अन्य सेक्टरों में उस असमानता को भरा जा सकता है जिसे जेंडर डिसपैरिटी सूचकांक के रूप में दर्ज किया जाता है.

भारतीय संदर्भ में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक लैंगिक असमानता के कई आंकड़े चिंतित करने वाले हैं. इसमें भी अगर सामान्य वर्ग की गरीब लड़कियों के अलावा दलितों और अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिम समुदायों की छात्राओं का आंकड़ा देखें तो पूरी वर्चस्ववादी और विभेदकारी बनावट को समझा जा सकता है और ये भी कि इस बनावट को तोड़ना कितना चुनौतीपूर्ण है.

शीर्ष पद हों या निचले पद- उन पर महिलाओं की उपस्थिति हो या संसद या विधानसभाओं में- आरक्षणों, प्रावधानों और अभियानों के बावजूद आर्थिक और सामाजिक रूप से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर स्त्री की लड़ाई अभी बहुत लंबी, परतदार और बहुआयामी है. इसलिए उच्च शिक्षा में लड़कियों की बढ़ती संख्या का स्वागत करना चाहिए लेकिन इस शिक्षा का उनके जीवन को हर लिहाज से बेहतर बनाने में क्या योगदान रहने वाला है- ये भी जानते रहना जरूरी है.

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