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ईरान से समझौते के कई विजेता

२४ नवम्बर २०१३

ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर समझौते से इस में शामिल कई पक्षों को फायदा होगा. हालांकि डीडब्ल्यू की फारसी सेवा के प्रमुख जमशेद फारुकी विवाद का अंत होने में कुछ नाखुश चेहरों को भी देख रहे हैं.

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तस्वीर: Martial Trezzini/AFP/Getty Images

निश्चित रूप से इस समझौते में सबसे बड़ी जीत ईरान के लोगों की हुई है. कथित "होशियार" प्रतिबंधों का मकसद सबसे पहले उन लोगों को नुकसान पहुंचाना था जो ईरान की सत्ता में थे. तेल और गैस के निर्यात पर प्रतिबंध, धार्मिक शासन वाले देश के वित्तीय ढांचे को गंभीर और दृढ़ रूप से नुकसान पहुंचाने के लिए लगाए गए थे. वास्तव में ईरान के अंतरराष्ट्रीय विरोधियों के उठाए कदमों ने अपने लक्ष्यों को हासिल कर लिया. हालांकि बहुत होशियारी इस्तेमाल करने के बावजूद इन प्रतिबंधों ने जितना सोचा गया था उससे ज्यादा नुकसान पहुंचाया और ईरान की जनता ने इसकी आंच झेली.

राष्ट्रीय गौरव की भावना के कारण ईरान में बहुत से लोग देश के संदिग्ध परमाणु कार्यक्रम के साथ खड़े रहे, लेकिन जब आप भूख से मर रहे हों तो रोटी की जगह यूरेनियम तो नहीं खाएंगे. लोग ईरान के लोग अलगाव की स्थिति से तुरंत बाहर निकलना चाहते थे. उन्होंने देश के नेताओँ से ज्यादा उदार होने की उ्म्मीद लगाई जिससे कि प्रतिबंध हटें या उनमें उनमें ढील आए ताकि देश की आर्थिक हालात सुधारे जा सकें. इसके साथ ही वह ज्यादा अधिकार और आजादी चाहते हैं. ईरानी राष्ट्रपति हसन रोहानी का चुनाव लोगों की इसी मांग का नतीजा है और जिनेवा से भी ईरानी जनता चमत्कार की उम्मीद कर रही थी.

Deutsche Welle Persische Redaktion Jamsheed Faroughi
जमशेद फारुकीतस्वीर: DW/P. Henriksen

बदलाव की बयार

ईरान की सरकार खुद को भी विजेता मान सकती है. प्रतिबंध एक तरह से ईरान की तरफ रेंगती हुई मौत बन गए थे. सरकार के अपने रास्ते को बदलने की कई वजहें हैं, आतंकी हमले जैसे कि इस हफ्ते बेरूत में हुए, कुर्द और बलोच इलाकों में सरकार और धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच तनाव, लोगों में आमतौर पर असंतोष, पड़ोसी देशों की गुप्त रूप से देश के आंतरिक मामलों में दखलंदाजी और इन सब के ऊपर सैन्य हमले का खतरा. ऐसे में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर समझौता ज्यादा सुरक्षा और देश के नेताओं की सत्ता के लिए ज्यादा संभावनाएं लेकर आया है. रोहानी आखिर इसी वादे के दम पर देश के राष्ट्रपति बने हैं.

ईरान के साथ समझौता अमेरिका और पश्चिमी देशों के लिए भी बेहद अहम है. दुनिया मध्य पूर्व में एक और शीत युद्ध लड़ने की स्थिति में नहीं है. अफगानिस्तान से विदेशी सैनिकों की वापसी के बाद वहां के भविष्य के बारे में अनिश्चितता बनी हुई है. इस्लामियों को पाकिस्तान में नया घर मिल गया है, इराक में सुरक्षा की हालत गंभीर स्थिति में है, सीरिया का गृह युद्ध खत्म होने का नाम नहीं ले रहा और अरब वसंत का फल आखिरकार खट्टा साबित हो रहा है. मौजूदा हालत में इलाके में नई जंग छेड़ना पागलपन जैसा होगा. युद्ध को साफ तौर पर "ना" कहना, ईरान के साथ परमाणु विवाद पर शांतिपूर्ण और कूटनीतिक हल का सबसे अच्छा रास्ता साबित होगा.

पहला कदम

हालांकि बहुत से लोग हैं जिनका फायदा ईरान के साथ विवाद और उस पर प्रतिबंधों के जारी रहने में है. सस्ता तेल और गैस, कम खर्चीले करार, कारोबारी सामान और देश की मुद्रा इसके कुछ उदाहरण है. तुर्की, रूस, चीन, संयुक्त अरब अमीरात और यहां तक कि अफगानिस्तान ने भी इस स्थिति का भरपूर फायदा उठाया है. हालांकि भले ही ये देश "बड़े शैतान" या "दुष्ट की धुरी" के साथ रिश्तों के सामान्य होने से खुश ना हों लेकिन वो भी इलाके में शीत युद्ध नहीं देखना चाहते. यहां तक कि इस्राएल भी युद्ध नहीं बल्कि केवल सुरक्षा की गारंटी चाहता है.

यह समझौता ईरान और बाकियों के बीच परमाणु विवाद को खत्म करने की दिशा में केवल पहला कदम है. शायद यह सच है कि इस करार से सारी समस्याएं नहीं सुलझेंगी. जाहिर है कि यह कहना अभी जल्दबाजा होगी कि सारी चिंताएं खत्म हो गई हैं और भला अंत आ गया है. स्थिति अब भी विस्फोटक है और ईरान के साथ पश्चिमी देशों की सुलह सबको खुश नहीं करेगी, पर अब यह बहुत चौंकाएगी नहीं.

समीक्षाः जमशेद फारुकी/एनआर

संपादनः ईशा भाटिया