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इस देश में बीमारी भी एक जंग है

१९ अप्रैल २०१९

दो साल के न्याचोट को जब तक क्लिनिक लाया जाता उसका शरीर अकड़ने लगा था. मलेरिया ने उसके दिमाग पर हमला किया था. दवा देने के बाद वह गहरी नींद में सो गया.

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Sudan Malaria-Patienten in Udier
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Maina

नंग धड़ंग बुखार में तपते बच्चे की कलाई पर ड्रिप लगी है और उसकी चिंतित मां बगल में बैठी है. न्याचोट की जान शायद बच जाएगी लेकिन दूसरे लोग इतने भाग्यशाली नहीं. 

दक्षिणी सूडान से आने वाली खबरों में जंग, जातीय हिंसा, बलात्कार, भूख और विस्थापन के दर्दनाक किस्से भरे होते हैं. हालांकि गृहयुद्ध के साये में जी रहे आम लोगों की जिंदगी पर सबसे बड़ा खतरा है बीमारियों का. अब यह चाहे जंग की वजह से हो या विकास ना होने के कारण लेकिन देश के ज्यादातर लोग दूरदराज के हिस्सों में रहते हैं यहां स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी है.

Sudan Malaria-Patienten in Udier
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Maina

अंतरराष्ट्रीय संगठन रेड क्रॉस देश में छोटे छोटे क्लिनिक चलाने में सहयोग करता है. ऐसी ही एक क्लिनिक में न्याचोट का इलाज चल रहा है. इन इलाकों में बीमारी से होने वाली मौतों में 70 फीसदी मलेरिया, डायरिया और सांस संबंधी मामले हैं, जिनका आसानी से इलाज हो सकता है.

न्याचोट की मां की उम्र 22 साल है वो बताती हैं कि ज्यादा गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए तो कोई जगह ही नहीं है. लंदन स्कूल ऑफ हाइजिन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन की पिछले साल की रिपोर्ट बताती है कि दक्षिणी सूडान के छह साल की जंग के नतीजे में करीब 4 लाख लोगों की मौत हुई है. इनमें से आधे लोग तो हिंसा के शिकार हुए लेकिन बाकी के आधे बीमारी और जंग के कारण स्वास्थ सुविधाओं तक नहीं पहुंच पाने के कारण मारे गए.

रेड क्रॉस की हेल्थ फील्ड अफसर इरेने ओयेन्या का कहना है कि ऊपरी नील का इलाका खासतौर से प्रभावित हुआ है. इरेने ने कहा, "कई ऐसे संगठन हैं जो प्राथमिक चिकित्सा मुहैया कराते हैं लेकिन जंग के दौरान ज्यादातर संगठन इन इलाकों से बाहर चले गए."

उडियर गांव में धूल से सनी हवाई पट्टी है. रेड क्रॉस का विमान हफ्ते में दो बार दवाइयां और दूसरी चीजें लेकर यहीं उतरता है. जिस वक्त विमानों की आवाजाही नहीं होती यह हवाई पट्टी युवाओं के लिए फुटबॉल का मैदान बन जाती है. इतना ही नहीं दूर दराज की झोपड़ियों और मवेशियों के बाड़ों से बाजार आने वाले पैदलयात्री भी यहीं से गुजरते हैं. छोटे से बाजार में ताजा खाना बहुत कम ही दिखाई देता है. गांव के लोग यहां लाल प्याज खरीद सकते हैं या फिर सूडान की स्ट्रांग काफी का मजा लेते हैं जिसमें अदरक भी डला होता है. सूखे दिनों में फलाता बंजारन औरतें अपने मवेशियों का दूध बेचती भी नजर आ जाती हैं.

हवाई पट्टी के पास ही ईंटों से बनी एक इमारत है जिसका छत आंधी में उड़ गई है. यह गांव का स्कूल है लेकिन कई कई दिनों तक यहां कोई टीचर नजर नहीं आता. आस पास के गांवों में औरतें कड़ी मेहनत कर अपनी झोपड़ियों पर मिट्टी का लेप लगाती है, छतों की मरम्मत करती हैं ताकि आने वाले दिनों में अगर बारिश आए तो भी वो सुरक्षित रह सकें. जब बारिश आती है तो चारों तरफ पानी ही पानी नजर आता है और सड़क पार करना लगभग नामुमकिन हो जाता है. गांव में रहने वाला ओयेन्या ने बताया कि छोटे बच्चों के लिए "तैरना या फिर महिलाओं और पुरुषों के लिए बीमारों को यहां लाना बेहद मुश्किल हो जाता है."

सूडान से 2011 में आजादी के बहुत पहले से ही दक्षिणी सूडान की अनदेखी होती रही. 2013 से यह जंग में उलझा हुआ है ऐसे में विकास का काम बहुत कम हुआ है. स्वास्थ्य सेवाएं तो अंतरराष्ट्रीय सहायता संगठनों की बदौलत ही चल रही है. इसके साथ ही देश मानवीय सहयताकर्मियों के लिए सबसे खतरनाक देशों में एक है. बीते पांच सालों में 100 से ज्यादा सहायताकर्मियों की मौत हुई है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक दर्जनों अंतरराष्ट्रीय संगठनों को यहां से निकलना पड़ा. खुद रेड क्रॉस को अपने लूटमार के कारण अस्पतालों से मरीजों को निकालना पड़ा. लुटेरों ने एक एक सुई तक नहीं छोड़ी थी.

एक साल बाद 2018 में तो लोगों की भीड़ ने मानवीय सहयता देने वाले 10 संगठनों के परिसर की पहले घेरेबंदी और वहां लूटपाट की. विपक्षी दल के इलाके उडियर में रेडक्रॉस के समर्थन से चल रहा क्लिनिक आस पास के लोगों को इलाज करती है. पूरे दक्षिणी सूजाड में गर्भवती स्त्रियों और नवजात बच्चों की मृत्यु दर काफी ज्यादा है.

हर रोज मरीजों के एक दल नीम के पेड़ के पास बैठ जाता है ताकी मदद मिल सके. इनमें से कई लोग तो एक या दो दिन चल कर यहां पहुंचे हैं. महिलाएं एक साथ 10-10 बच्चों का ख्याल रखती हैं और कई बार उन्हें क्लिनिक तक लाने में देर हो जाती है क्योंकि उनके जिम्मे दूसरे काम भी हैं. इस कारण कई बार इलाज नहीं मिलने से बच्चों की मौत भी हो जाती है. गर्भवती महिलाओं की समस्या, खून चढ़ाने या फिर ऑपरेशन जैसे कामों के लिए सबसे नजदीकी अस्पताल तक जाने में गाड़ी से चार घंटे या फिर पैदल जाने में तीन दिन लगते हैं. ओयेन्या कहती हैं, "वो वहां जीवित पहुंच सकते हैं और नहीं भी."

एनआर/ओएसजे (एएफपी)