इंसानी घोड़ेः कड़वा सच
हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शा और कोलकाता में उसे चलाने वालों के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है. इस रिक्शा को बंद करने की भी काफी कोशिश की गई लेकिन ये अब भी सड़कों पर हैं.
विवादित काम
हाथ के रिक्शे पुराने कोलकाता का हिस्सा है. बिमल रॉय की दो बीघा जमीन, या रोलैंड जॉफ की सिटी ऑफ जॉय जैसी कुछ फिल्में और कई कहानियां इन रिक्शावालों पर लिखी गई हैं. हालांकि बहुत लोग मानते हैं कि सिर्फ आजीविका के लिए एक इंसान का दूसरे को खींचना अमानवीय है.
सदियों का सफर
हाथ से खींचे जाने वाली ये गाड़ियां जापान में 16 वीं सदी के दूसरे हाफ में खोजी गई. भारत में ये 1880 में आई. सबसे पहले शिमला में और फिर कोलकाता में. 1914 तक ये रिक्श रईसों की कोठी से निकल सार्वजनिक परिवहन का हिस्सा बन गए.
सीमित सेवा
आधुनिक दौर में हाथ से खींचे जाने वाले धीमे रिक्शे मुख्य सड़कों पर लाने की अनुमति नहीं है. इसलिए ये अब कोलकाता में भी शहर के पुराने उत्तरी हिस्से में ही चलाए जाते हैं.
टैक्सी और रिक्शा
तेज शहरों में हाथ से खींचे जाने वाले से धीमे वाहन सामान्य तौर पर पसंद नहीं किए जाते. लेकिन बारिश के पानी से भरी सड़कों पर ये काफी काम आते हैं जहां ट्रैफिक जाम से बचते हुए काम धंधे पर पहुंचना होता है.
सुधार की जरूरत
इन रिक्शों को भी मरम्मत, सुधार, तेल पानी की जरूरत पड़ती है. इन रिक्शों को सुधारने या मरम्मत करने वाले एक्सपर्ट होते हैं और अकसर ये हुनर पिता से लड़के को मिलता है.
पुराने दिनों सा
ये रिक्शे आज भी पुरानी स्टाइल से ही बनते हैं. इसके पहियों के बीच में धातु का गोला होता है. पहिए की रिम और कमानी दोनों लकड़ी से बनी होती है. रिम के बाहरी हिस्से पर रबर की मोटी पट्टी लगी होती है.
इको फ्रेंडली
यात्रियों की सुविधा के लिए सीट नर्म बनाई जाती है. सिंथेटिक फोम नहीं बल्कि नारियल के छिलके का इसमें इस्तेमाल होती है. इससे रिक्शॉ काफी आरामदायक हो जाता है, लेकिन सिर्फ बैठने वाले के लिए.
खत्म होता रोजगार
क्या कोलकाता में इन रिक्शा खींचने वालों का रोजगार बना रहेगा? इसका किसी के पास जवाब नहीं.