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आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा जरूरी

३० मई २०१५

राजस्थान में गुर्जर समुदाय आरक्षण की मांग कर रहा था. कुछ दिनों पहले हरियाणा के जाट समुदाय ने भी यही मांग उठाई थी. बीते तीन-चार दशकों में आरक्षण का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए नया हथियार बन कर उभरा है.

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तस्वीर: DW/M. Krishnan

अपने राजनीतिक हितों के लिए लगभग सभी पार्टियां समय-समय पर इस मुद्दे को हवा देती रही हैं. नब्बे के दशक की शुरूआत में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग के जरिए आरक्षण की जो चिंगारी सुलगाई थी वह अक्सर रह-रह कर भड़क उठती है. ऐसे में देश में आरक्षण की नीति पर व्यापक चर्चा और पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है. अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में जब आरक्षण का प्रावधान किया गया था तब राष्ट्र की मुख्यधारा में बराबरी के लिए उनको इसकी जरूरत थी. लेकिन आजादी के करीब सात दशक बाद अब इस मुद्दे पर दोबारा गंभीरता से विचार करना जरूरी है कि क्या अब भी विकास के लिए आरक्षण की जरूरत है?

वर्ष 1982 में संविधान में सावर्जनिक क्षेत्र के उपक्रमों और सरकारी सहायता-प्राप्त शिक्षण संस्थानों में नौकरियों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए क्रमशः पंद्रह और साढ़े सात फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया. यह आरक्षण पांच वर्षों के लिए था और उसके बाद कोटा व्यवस्था की समीक्षा की जानी थी. वर्ष 2006 में अन्य पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसदी आरक्षण के प्रावधान के बाद अब कुल सीटों में से लगभग आधी (49.5) आरक्षित हो गई हैं. आरक्षण के फायदों को ध्यान में रखते हुए ही अब देश के विभिन्न राज्यों के अलग-अलग तबके के लोगों में खुद को आरक्षित वर्ग में शामिल कराने की होड़ मची है. यह होड़ अक्सर हिंसक रूप ले लेती है. गुर्जर आंदोलन से रेलवे को 100 करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ है.

आरक्षण का इतिहास

देश की आजादी के बाद वर्ष 1953 में सबसे पहले पिछड़ी जातियों की पहचान के लिए काका कालेलकर आयोग का गठन किया गया था. आयोग ने 2399 पिछड़ी जातियों की पहचान की थी. लेकिन इसके लिए किसी जनगणना को आधार नहीं बनाने की वजह से उसकी सिफारिशें लागू नहीं की गईं. बहुचर्चित मंडल आयोग का गठन वर्ष 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने किया था. आयोग ने 3,743 पिछड़ी जातियों की पहचान करते हुए उनको आबादी के अनुपात में आरक्षण देने की सिफारिश की.

आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह लागू करने पर कुल नौकरियों में से तीन-चौथाई आरक्षित हो जातीं. शायद यही वजह थी कि मोरारजी के बाद अगले एक दशक में सत्ता संभालने वाली चार सरकारों में से किसी ने भी मंडल आयोग की सिफारिशों के पिटारे को खोलने का साहस नहीं दिखाया. लेकिन वर्ष 1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने किसी से सलाह-मशविरा किए बिना इसे लागू कर दिया.

खामियाजा

आरक्षण का विरोध करने वालों की दलील है कि इसकी वजह से इंजीनियर, मेडिकल और दूसरे प्रमुख शिक्षण संस्थानों में ऐसे छात्र भी प्रवेश पा जाते हैं जो योग्य नहीं हैं. नतीजा यह है कि ऐसे पेशेवेर लोग आगे भी आरक्षण की बैसाखी के सहारे जीवन काट देते हैं और वे स्तरीय नहीं बन पाते. इसका खमियाजा पूरे देश को भरना पड़ता है. सरकारी नौकरियों में आरक्षित श्रेणी के लोगों की संतान भी अक्सर कोटा के सहारे योग्य नहीं होने के बावजूद नौकरियां और प्रमोशन पा जाती हैं जबकि सामान्य वर्ग के कई छात्र बेहतर शिक्षण संस्थानों में दाखिले और सरकारी नौकरियों से वंचित रह जाते हैं.

ऐसे में अनारक्षित वर्ग के लोगों का सवाल पूछना लाजिमी है कि आखिर कोटा सिस्टम के बहाने उनको वंचित क्यों किया जा रहा है? रोजगार के लिए जातियों की प्रतिस्पर्धा क्यों? क्या आरक्षण का कोई विकल्प नहीं है? दरअसल, वोट बैंक और जातिवाद पर आधारित राजनीति के बढ़ते वर्चस्व की वजह से ही राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है. आर्थिक उदारीकरण के बाद बदली परिस्थितियों में आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा होनी और इसे नए सिरे से परिभाषित किया जाना चाहिए. ऐसा नहीं होने से प्रतिभाओं का पूरी तरह इस्तेमाल नहीं हो पाएगा और कभी हरियाणा आरक्षण की आग में जलता रहेगा तो कभी राजस्थान और उत्तर प्रदेश. नुकसान राष्ट्रीय संपत्ति और समाज का होता रहेगा.

प्रभाकर, कोलकाता