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आरक्षण की मांग या आरक्षण विरोध?

रोहित जोशी२५ फ़रवरी २०१६

जाटों के बाद अब राजपूत आरक्षण की मांग को लेकर उग्र प्रदर्शन करने की तैयारी कर रहे हैं. सामाजिक तौर पर प्रभावशाली रहे ये तबके आखिर 'पिछड़ा' बनने की होड़ में क्यों शामिल हैं?

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तस्वीर: Imago

"मुझे यहां मां गंगा ने बुलाया है." 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान अगर मीडिया पर आपकी जरा भी नजर रही हो तो बताने की जरूरत नहीं है कि समाचार एजेंसी एएनआई के माइक के पीछे इस वाक्य को बोल रहा चेहरा किसका था. चुनावी पर्चा भरने बनारस पहुंचे नरेंद्र मोदी के इस मशहूर बयान को आप थोड़ा और तफसील से सुनें तो आपको गंगा के अलवा ​एक और महत्वपूर्ण नाम इस बयान में सुनाई देगा और वह नाम है "बाबा साहब अंबेडकर" का. इससे पहले सामान्यतया गुजरात के मुख्यमंत्री के बतौर मोदी के सार्वजनिक बयानों में बाबा साहब का जिक्र मिलना जरा मुश्किल है.

पिछले समय में डॉ. भीमराव ​अंबेडकर भारतीय राजनीति में ​इतने अहम होकर उभरे हैं जितना शायद ही उनका कोई समकालीन नेता. तकरीबन सारी ही रा​जनीतिक पार्टियां अक्सर उनके नाम का जाप करती सुनाई दे सकती हैं. हालांकि उनके राजनीतिक दृष्टिकोण से उसकी कितनी ही नाइत्तेफाकी क्यों ना हो.

Indien Ministerpräsident Narendra Modi
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीतस्वीर: UNI

भविष्य में समाजविज्ञान की 'क्वांटम समाजविज्ञान' जैसी कोई नई धारा विकसित होकर शायद संघवाद और अंबेडकरवाद में कोई साम्य तलाश पाए. लेकिन इस दौर के सभी समाजशास्त्री इन दोनों विचारधारों के अध्ययन से आसानी से ​इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि ये दोनों ही न केवल अलग विचारधाराएं हैं, बल्कि एक दूसरे की कट्टर विरोधी भी हैं. लेकिन संघ की विचारधारा के अनुरूप खुद को 'हिंदू राष्ट्रवादी' बताने वाले नरेंद्र मोदी, 'प्रधानमंत्री पद' के लिए अपना पर्चा भरते समय डॉ. अंबेडकर का जिक्र करना नहीं भूलते.

भारत को संविधान सौंपते हुए 25 नवंबर 1949 में संविधान सभा के अपने अंतिम संबोधन में डॉ. अंबेडकर ने भारतीय समाज के एक अंतर्विरोधों से भरे दौर में प्रवेश का इशारा किया था. उन्होंने कहा था, ''26 जनवरी 1950 को हम एक अंतर्विरोध पूर्ण जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं. राजनीति में हमारे पास समानता होगी, जबकि सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम असमानता से ग्रस्त होंगे. राजनीति में हम ‘एक मनुष्य, एक वोट' और ‘एक वोट, एक मूल्य' वाले सिद्धांत को मान्यता दे चुके होंगे. सामाजिक और आर्थिक जीवन के साथ ही अपने सामाजिक-आर्थिक ढांचे का अनुसरण करते हुए हम ‘एक मनुष्य, एक मूल्य' वाले सिद्धांत का निषेध कर रहे होंगे.''

Indien Porträt von Bhimrao Rao Ambedkar auf der Straße in Hyderabad
तस्वीर: AP

अपने इस वक्तव्य में डॉ. अंबेडकर ने जिन ​अंतर्विरोधों का जिक्र किया था वे हमारे उम्रदराज होते लोकतंत्र में और गहराते गए हैं. शायद ही अंबेडकर को इस बात का अंदेशा रहा हो कि इन अंतर्विरोधों से उभरे समीकरण आगे चलकर ऐसे राजनीतिक हालात पैदा कर देंगे कि उनकी धुर विरोधी राजनीति के अनुयायी उनकी राजनीति को न सही मगर उन्हें पूजते जरूर नजर आएंगे.

अंबेडकर का राजनीतिक सपना जाति व्यवस्था के पूरी तरह खात्मे (एन्हीलेशन ऑफ कास्ट) का था. लेकिन तत्कालीन राजनीतिक-सामजिक दबावों के बीच पिछड़ी और उत्पीड़ित जातियों को फौरी राहत पहुंचाने के लिए अंबेडकर ने आरक्षण की व्यवस्था को अपने विस्तृत सपने के पहले पायदान के बतौर चुना.

बीते हफ्ते जाट आरक्षण के लिए हुए हिंसक आंदोलन की स्पष्ट प्रतिछवि पिछले साल अगस्त में गुजरात के पाटीदार और पटेलों के आंदोलन में देखी जा सकती है. इस तरह के आरक्षण की मांग राजस्थान में गुज्जर, आंध्र प्रदेश में कापू और महाराष्ट्र में मराठा भी करते रहे हैं. और दो दिन पहले जयपुर में राजपूत करणी सभा ने भी खुद को ओबीसी श्रेणी में डालकर नौकरियों और उच्चशिक्षा में आरक्षण देने की मांग के लिए एक साथ आठ राज्यों में जाट आंदोलन की तरह उग्र आंदोलन की चेतावनी दी है.

Indien Faridabad Polizisten verfolgen Demonstranten
जाट आरक्षण के लिए उग्र हुए आंदोलन में कम से कम 19 लोग मारे गएतस्वीर: picture-alliance/Photoshot

अंबेडकर ने सामाजिक उत्पीड़न और पिछड़ेपन के आधार पर भारतीय समाज को आरक्षण से परिचित कराया था. उनका मंतव्य इन आधारों पर सदियों से दमन झेल रहे और पिछड़ गए तबकों को आरक्षण के ​जरिए हाथ थामकर धीरे-धीरे मुख्यधारा में शामिल करना था. लेकिन पिछले दिनों में जिन जातियों की ओर से ओबीसी श्रेणी में शामिल कर नौकरियों में आरक्षण दिए जाने की मांग उठ रही है, ये तबके सामाजिक तौर पर प्रभावशाली रहे हैं. जाट, मराठा, पटेल और राजपूत अपने-अपने क्षेत्र की प्रभावशाली जातियां हैं. मशहूर समाजशात्री और एंथ्रोपॉलोजिस्ट एमएन श्रीवासन ने भी भारत में प्रभावशाली जातियों को जिस तरह से व्याख्यायित किया है, ये ​जातियां उस परिभाषा के दायरे में आती हैं.

ये खेती किसानी करने वाली सामान्यतया समृद्ध जातियां रही हैं, जिनके पास काफी जमीनें हैं और इनका सामाजिक रुतबा काफी प्रभावशाली रहा है. लेकिन पिछले दौर में ​जैसे-जैसे भारत की जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान 1950 के 51.81 प्रतिशत की तुलना में 2014 में सिकुड़ते हुए 17.9 प्रतिशत तक आ पहुंचा है और वहीं सेवा क्षेत्र लगातार बढ़ते हुए 33.25 से 57.9 प्रतिशत तक पहुंच गया है, कृषि पर निर्भर लोगों की आमदनी लगातार सिकुड़ती जा रही है. ऐसे में कृषि में दबदबा रखने वाली ये जातियां धीरे-धीरे ​अपने सामाजिक प्रभावक्षेत्र पर संकट महसूस कर रही हैं और बढ़ते सेवा क्षेत्र की ओर इनका स्वाभाविक आकर्षण बढ़ा है, जिसमें एक बड़ा हिस्सा सरकारी सेवा क्षेत्र का भी है. ऐसे में ये जातियां आरक्षण पा कर इस क्षेत्र में अपनी राह आसान कर लेना चाहती हैं.

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पटेल आरक्षण आंदोलन के नेता हार्दिक पटेलतस्वीर: Getty Images/AFP/S. Panthaky

लेकिन इन नए आर्थिक संबंधों के अलावा इन आंदोलनों का उभार असल में आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था की प्रतिक्रिया में भी हुआ है. भारत में ​आरक्षण के विरोध की एक स्पष्ट आवाज रही है. जिसका एक धड़ा सामाजिक उत्पीड़न या पिछड़ेपन के बजाय आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण देने की मांग करता रहा है. इस आवाज का नेतृत्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथ में रहा है. इसलिए भाजपा की बुनियादी विचारधारा में भी मौजूदा आरक्षण का नकार मौजूद है. साथ ही उच्चजातियों और मध्यमवर्ग से आने वाला उसका बुनियादी वोट बैंक भी इससे एकदम सहमत है. लेकिन जिन राजनीतिक वजहों से मोदी को गुजरात से उत्तर प्रदेश के अपने सफर में डॉ. अम्बेडकर की याद हो आती है, यही वह ठोस वजह है कि भाजपा आरक्षण के बारे में खुलकर अपना मंतव्य नहीं रख पाती.

भारत के हालिया इतिहास में दलित और पिछड़े वर्गों के आंदोलन राजनीतिक रूप से काफी निर्णायक रहे हैं​ और इनका असर चुनावों में स्पष्ट रूप से दिखाई दिया है. ऐसे में एससी/एसटी या ओबीसी श्रेणियों को दिए जा रहे आरक्षण का विरोध करना किसी भी राज​नीतिक दल के लिए संभव नहीं है. यहां तक कि इसके चलते आरएसएस के सिर्फ आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने के तर्क को अपनी राजनीति के रूप में सामने लाना भाजपा के लिए संभव नहीं है.

Indien Demonstration von Studenten in Rohtak Haryana
अगस्त 2015 में पटेलों ने उठाई थी आरक्षण की मांगतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Ajit Solanki

ऐसे में मौजूदा आरक्षण व्यवस्था के विरोध के लिए स्पष्ट राजनीतिक पार्टियों के नेतृत्व के अभाव में प्रभावशाली जातियों ने खुद के लिए आरक्षण मांगने का रास्ता चुना है. जाटों और पटेलों के बाद राजपूतों की ओर से भी आरक्षण के लिए उठ रही आवाजों ने बताया है कि अभी यह सिलसिला जारी रहेगा. इन दोनों ही आंदोलनों में जो हिंसा और उग्रता देखी गई है उससे पता चलता है कि प्रभावशाली तबकों के ऐसे और भी आंदोलन आने वाले समय में सरकारों को और परेशान कर सकते हैं. और इस तरह की मांगें हर तरह के आरक्षण को खत्म किए जाने के विचार को ही बल देंगी.

डॉ. अंबेडकर ने अपने जिस विस्तृत सपने की ओर आरक्षण को एक सीढ़ी के बतौर रखा था, सवाल यह है, क्या आरक्षण के लिए उठ रही ये मांगे उस सपने की ओर बढ़ने का कोई कदम हो सकती हैं?

ब्लॉग: रोहित जोशी