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आरएसएस का राजनीति में दखल

१७ अक्टूबर २०१३

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय समाज को संगठित कर राष्ट्र को महिमा के शिखर पर ले जाने को अपना आदर्श बताता है. इस लक्ष्य के लिए उसने देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी भाजपा में दखल बढ़ा दिया है.

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तस्वीर: picture alliance/AP Photo

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में विजयादशमी के पर्व का विशेष महत्व है. इस अवसर पर आयोजित समारोह में उपस्थित स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए संगठन के सरसंघचालक यानि सर्वोच्च नेता अगले वर्ष के लिए संघ की दिशा के बारे में स्पष्ट मार्गदर्शन करते हैं और उनके संबोधन को संगठन का सुचिंतित नीति वक्तव्य माना जाता है. रविवार को नागपुर में संघ मुख्यालय में आयोजित विजयादशमी समारोह में भाषण देते हुए सरसंघचालक मोहन भागवत ने अधिकांश समय देश की राजनीतिक, आर्थिक एवं सामरिक समस्याओं और चुनौतियों की ही चर्चा की. संघ के इतिहास में किसी भी सरसंघचालक ने इस अवसर पर इतना राजनीतिक भाषण नहीं दिया. इससे यह स्पष्ट हो गया कि आने वाले चुनावी साल में संघ की गतिविधियों का स्वरूप और चरित्र कैसा रहने वाला है. यूं औपचारिक रूप से संघ स्वयं को सांस्कृतिक संगठन बताता है और राजनीति से दूर रहने का दावा करता है. उसका कहना है कि उसके सदस्य अर्थात् स्वयंसेवक अपनी निजी हैसियत में किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होने के लिए स्वतंत्र हैं परंतु संघ स्वयं संगठन के तौर पर राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करता, लेकिन हकीकत कुछ और ही है.

30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. इस प्रतिबंध को 11 जुलाई, 1949 को तब हटाया गया जब संघ के तत्कालीन प्रमुख माधवराव सदाशिव गोलवलकर ने देश के गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की यह शर्त मान ली कि संघ अपना लिखित संविधान तैयार करेगा जिसमें लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव होंगे और वह राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहेगा. संघ ने कभी भी अपनी इस वचनबद्धता को उसकी भावना के अनुरूप नहीं निभाया और वह केवल इस अर्थ में राजनीति से दूर रहा कि उसने संगठन के रूप में कभी भी चुनाव में भाग नहीं लिया. राजनीति में सीधे-सीधे हस्तक्षेप करने के लिए उसने हिन्दू महासभा के नेता डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में एक राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ का गठन किया. इसे चलाने के लिए उसने अपने चुनिन्दा स्वयंसेवकों को भेजा. दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जनसंघ में भेजे गए स्वयंसेवकों की पहली पीढ़ी में थे. इस पीढ़ी के अब केवल आडवाणी ही बचे हैं क्योंकि वाजपेयी खराब स्वास्थ्य के कारण कई वर्षों से निष्क्रिय हो चुके हैं.

Mohan Bhagwat Anführer der Organisation Rashtriya Swayamsevak Sangh
तस्वीर: Strdel/AFP/Getty Images

जब तक गोलवलकर सरसंघचालक रहे, संघ का भारतीय जनसंघ पर मुख्य रूप से वैचारिक नियंत्रण रहा. उसकी रोजमर्रा की गतिविधियों में या विभिन्न राजनीतिक स्थितियों में लिए जाने वाले निर्णयों में कोई विशेष भूमिका नहीं थी, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद संघ प्रमुख बनने वाले बालासाहब देवरस की राजनीति में अधिक रुचि थी. 1979 में संघ की सदस्यता के सवाल पर ही जनता पार्टी का विभाजन हुआ और जनसंघ के सदस्यों ने पार्टी छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी नाम का नया दल बना लिया. वर्ष 2005 से लगातार बीजेपी पर संघ की पकड़ बढ़ती जा रही है और अब वह पूरी तरह से उसे संचालित करने लगा है. कामकाज में जिस स्वायत्तता का दावा पहले जनसंघ और बाद में बीजेपी किया करते थे, वह अब पूरी तरह से खोखला साबित हो चुका है. नरेंद्र मोदी को पहले चुनाव अभियान समिति का संयोजक और फिर प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनवाने में संघ ने जिस तरह से खुल्लमखुल्ला भूमिका अदा की है और आडवाणी समेत अनेक भाजपा नेताओं के विरोध को नजरंदाज करके जिस तरह से अपना फैसला मनवाया है, उससे उसका राजनीतिक रूप पूरी तरह से खुलकर सामने आ गया है. बुधवार को अहमदाबाद में लालकृष्ण आडवाणी ने सार्वजनिक रूप से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार स्वीकार करके स्पष्ट कर दिया कि अब उनके जैसे भीष्म पितामह को भी यदि भाजपा रूपी हस्तिनापुर के दरबार में रहना है तो संघ रूपी दुर्योधन का आदेश मानना ही होगा. उनकी घोषणा के बाद अब भाजपा पर संघ का पूर्ण एवं निर्विरोध नियंत्रण कायम हो गया है. पाकिस्तान में आडवाणी ने मुहम्मद अली जिन्ना के बारे में जिस तरह के बयान दिये थे, उसके बाद संघ के विरोध के कारण ही उन्हें 2005 में बीजेपी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना पड़ा था. अब जिस तरह से उन्होने सिर झुका कर नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी को स्वीकार कर लिया है, उसके साथ ही पिछले आठ सालों से चल रही प्रक्रिया अपनी तार्किक परिणति तक पहुंच गई है.

मोहन भागवत ने अपने भाषण में मतदाताओं को यह तक बताया है कि मतदान करने से पहले उन्हें किन-किन बातों पर सोचना चाहिए. उन्होंने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, रुपये की कीमत में गिरावट, चीन की ओर से खतरा जैसे केवल उन्हीं विषयों पर बोला है जिनका किसी भी किस्म की सांस्कृतिक गतिविधि से कोई संबंध नहीं है, जबकि संघ का दावा है कि वह शुद्ध रूप से सांस्कृतिक संगठन है और उसका लक्ष्य चरित्र निर्माण है. इस क्रम में संघ ने सरदार पटेल को दिये गए इस वचन का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन किया है कि वह अपनी गतिविधियों को केवल सांस्कृतिक क्षेत्र तक ही सीमित रखेगा. देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी पर सीधा नियंत्रण स्थापित करके संघ एक अर्थ में सुपर राजनीतिक संगठन बन गया है जिसके पास असीमित अधिकार हैं लेकिन जिसकी जिम्मेदारी जरा-सी भी नहीं है और जो उस पार्टी को कठपुतली की तरह नचा सकता है जिसकी कई राज्यों में सरकारें चल रही हैं और जो केंद्र में सरकार बनाने के लिए प्रयत्नशील है.

हालांकि 11 जुलाई, 1949 की सरकारी विज्ञप्ति में संघ पर से प्रतिबंध हटाये जाने की शर्तों का स्पष्ट रूप से उल्लेख है, फिर भी एस. गुरुमूर्ति जैसे संघ के कुछ समर्थक दावा कर रहे हैं कि संघ ने राजनीति से दूर रहने का कोई वचन नहीं दिया था, और उस पर से प्रतिबंध बिना किसी शर्त के हटाया गया था, लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य इस दावे के बिलकुल उलट हैं.

ब्लॉग: कुलदीप कुमार

संपादन: निखिल रंजन