1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
समाज

आज भी अनसुलझी है गुमनामी बाबा की पहेली

२२ जनवरी २०२१

सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ और 18 अगस्त 1945 को एक विमान दुर्घटना में उनकी जान चली गई. लेकिन इतने साल बाद भी लोग मानते हैं कि वे 'गुमनामी बाबा' के रूप में जी रहे थे.

https://p.dw.com/p/3oIdN
Subhash Chandra Bose
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Kyodo

इतिहास में शायद ही कभी ऐसा हुआ है कि किसी नेता के निधन के आधी सदी बीत जाने के बाद भी उनके बारे में तरह-तरह के कयास लगाए जाते रहे हों. नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगस्त 1945 में भले ही एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई हो, लेकिन जो लोग उन पर विश्वास करते हैं, उनके लिए वह अब भी 'गुमनामी बाबा' के रूप में जीवित हैं.

गुमनामी बाबा - जिनके बारे में कई लोगों का मानना है कि वह वास्तव में नेताजी (बोस) हैं और उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर साधु की वेश में रहते थे, जिनमें नैमिषारण्य (निमसर), बस्ती, अयोध्या और फैजाबाद शामिल हैं. लोगों का मानना है कि वे ज्यादातर शहर के भीतर ही अपना निवास स्थान बदलता रहते थे. उन्होंने कभी अपने घर से बाहर कदम नहीं रखा, बल्कि कमरे में केवल अपने कुछ विश्वासियों से मुलाकात की और अधिकांश लोगों ने उन्हें कभी नहीं देखने का दावा किया.

एक जमींदार, गुरबक्स सिंह सोढ़ी ने उनके मामले को दो बार फैजाबाद के सिविल कोर्ट में ले जाने की कोशिश की लेकिन असफल रहे. यह जानकारी उनके बेटे मंजीत सिंह ने गुमनामी बाबा की पहचान करने के लिए गठित जस्टिस सहाय कमीशन ऑफ इंक्वायरी को दिए अपने बयान में दी. बाद में एक पत्रकार वीरेंद्र कुमार मिश्रा ने भी पुलिस में शिकायत दर्ज कराई.

गुमनामी बाबा आखिरकार 1983 में फैजाबाद में राम भवन के एक आउट-हाउस में बस गए, जहां कथित तौर पर 16 सितंबर 1985 को उनकी मृत्यु हो गई और 18 सितंबर को दो दिन बाद उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया. अगर यह वास्तव में नेताजी थे तो वे 88 वर्ष के थे.

इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि वास्तव में उनकी मृत्यु हुई है. शव यात्रा के दौरान कोई मृत्यु प्रमाण पत्र, शव की तस्वीर या उपस्थित लोगों की कोई तस्वीर नहीं है. कोई श्मशान प्रमाण पत्र भी नहीं है. ऐसा भी कहा जाता है कि गुमनामी बाबा के निधन के बारे में लोगों को तुरंत पता नहीं चला था, उनकी मृत्यु के 42 दिन बाद लोगों को पता चला. उनका जीवन और मृत्यु, दोनों रहस्य में डूबा रहा और कोई नहीं जानता कि क्यों.

एक स्थानीय अखबार, जनमोर्चा ने पहले इस मुद्दे पर एक जांच की थी. उन्होंने गुमनामी बाबा के नेताजी होने का कोई सबूत नहीं पाया. इसके संपादक शीतला सिंह ने नवंबर 1985 में नेताजी के सहयोगी पबित्रा मोहन रॉय से कोलकाता में मुलाकात की. रॉय ने कहा, "हम नेताजी की तलाश में हर साधु और रहस्यमय व्यक्ति की तलाश कर रहे हैं, सौलमारी (पश्चिम बंगाल) से कोहिमा (नागालैंड) से पंजाब तक. इसी तरह, हमने बस्ती, फैजाबाद और अयोध्या में भी बाबाजी को ढूंढा. लेकिन मैं निश्चितता के साथ कह सकता हूं कि वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस नहीं थे."

आधिकारिक या अन्य सूत्रों से इनकार किए जाने के बावजूद उनके 'विश्वासियों' ने यह मानने से इनकार कर दिया कि गुमनामी बाबा नेताजी नहीं थे. हालांकि उत्तर प्रदेश सरकार ने आधिकारिक रूप से इस दावे को खारिज कर दिया है कि गुमानामी बाबा वास्तव में बोस थे, उनके अनुयायी अभी भी इस दावे को स्वीकार करने से इनकार करते हैं.

गुमनामी बाबा के विश्वासियों ने 2010 में अदालत का रुख किया था और उच्च न्यायालय ने उनका पक्ष लेते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को गुमनामी बाबा की पहचान स्थापित करने का निर्देश दिया था. सरकार ने 28 जून 2016 को एक जांच आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष न्यायमूर्ति विष्णु सहाय थे. रिपोर्ट में कहा गया है कि 'गुमनामी बाबा' नेताजी के अनुयायी थे लेकिन नेताजी नहीं थे.

गोरखपुर के एक प्रमुख सर्जन, जो अपना नाम उजागर नहीं करना चाहते, उन्होंने आईएएनएस को बताया, "हम भारत सरकार से यह घोषित करने के लिए कहते रहे कि नेताजी युद्ध अपराधी नहीं थे लेकिन हमारी दलीलों को सुना नहीं जाता है. बाबा अपराधी के रूप में दिखना नहीं चाहते थे. यह बात मायने नहीं रखती है कि सरकार को उन पर विश्वास है या नहीं. हम विश्वास करते हैं और ऐसा करना जारी रखेंगे. हम उनके 'विश्वासियों' के रूप में पहचाने जाना चाहते हैं क्योंकि हम उन पर विश्वास करते हैं."

डॉक्टर उन लोगों में से थे, जो नियमित रूप से गुमनामी बाबा के पास जाते थे और अब भी 'उनपर कट्टर' विश्वास करते हैं. फरवरी 1986 में, नेताजी की भतीजी ललिता बोस को उनकी मृत्यु के बाद गुमनामी बाबा के कमरे में मिली वस्तुओं की पहचान करने के लिए फैजाबाद लाया गया था.

पहली नजर में, वह अभिभूत हो गईं और यहां तक कि उन्होंने नेताजी के परिवार की कुछ वस्तुओं की पहचान की. बाबा के कमरे में 25 स्टील ट्रंक में 2,000 से अधिक लेखों का संग्रह था. उनके जीवनकाल में इसे किसी ने नहीं देखा था. यह उन्हें मानने वाले लोगों के लिए बहुत कम मायने रखता है कि जस्टिस मुखर्जी और जस्टिस सहाय की अध्यक्षता में लगातार दो आयोगों ने घोषणा की थी कि 'गुमनामी बाबा' नेताजी नहीं थे.

आईएएनएस

__________________________

हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore

पायलट बनने गए थे, जंग में फंस गए

 

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें