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"अलग शैली बनाना मेरा लक्ष्य"

२३ अगस्त २०१४

संगीत जगत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाली शास्त्रीय गायिकाओं में गौरी पाठारे प्रमुख हैं. वे कंप्यूटर विज्ञान में इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त कर चुकी हैं और देश-विदेश में अपनी कला का प्रदर्शन करके खूब नाम कमा रही हैं.

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तस्वीर: DW/K. Kumar

बारह साल की उम्र से मंच पर गा रही गौरी पाठारे पिछले दिनों विष्णु दिगंबर जयंती संगीत समारोह में भाग लेने दिल्ली आई थीं. इस अवसर पर उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंश:

संगीत की ओर आपका रुझान बाद में हुआ या बचपन से ही इसका शौक था?

संगीत में मेरी रुचि अपनी मां के कारण पैदा हुई. मेरे माता-पिता डॉक्टर हैं. पिता सर्जन हैं और मां विद्या दामले स्त्रीरोग विशेषज्ञ हैं. लेकिन मेरे नाना बहुत अच्छे कीर्तनकार थे और मेरी मां को उन्हीं से संगीत का संस्कार मिला. बाद में उन्होंने पंडित जितेंद्र अभिषेकी से भी सीखा. वे संगीत के प्रति बहुत गंभीर हैं लेकिन उनका पेशा डॉक्टरी ही है. मुझे छह-सात साल की उम्र में उन्हीं से सीखने को मिला. फिर मैंने माधुरी जोशी और किराना घराने के पंडित गंगाधरबुवा पिंपलखरे से सीखा. इस तरह किराना घराना, उसका सुर लगाव का तरीका और सांगीतिक दृष्टि, ये मेरे संगीत शिक्षा का आधार बने. फिर मैंने आठ-नौ साल तक पंडित जितेंद्र अभिषेकी से सीखा. फिर मैं पद्मा तलवलकर जी के पास सीखने गई. इस तरह ग्वालियर घराने की गायकी का प्रशिक्षण भी मुझे मिला.

कंप्यूटर इंजीनियरिंग और शास्त्रीय संगीत के बीच आपने कैसे सामंजस्य बैठाया? दोनों में ही जबर्दस्त मेहनत करनी पड़ती है.

जहां तक कंप्यूटर इंजीनियरिंग और शास्त्रीय संगीत की तालीम और रियाज के बीच सामंजस्य बैठाने की बात है, तो मुझे इसमें कभी कोई दिक्कत नहीं हुई. जब एक से ऊब गई तो दूसरे में लग गई. इस तरह दोनों ही एक साथ बिना किसी कठिनाई के चलते रहे. मैं यह नहीं मानती कि अच्छा कलाकार बनने के लिए पंद्रह घंटे रियाज करना जरूरी है. संगीत में बहुत कुछ कंठस्थ करना या रटना पड़ता है, उसे बार-बार दुहराना पड़ता है, और इसके लिए रियाज बहुत जरूरी है. लेकिन सब कुछ छोड़-छाड़ कर दिन भर रियाज करने से भी कुछ नहीं होता. इसलिए मैं विज्ञान की पढ़ाई और संगीत, दोनों को एक साथ करती रही. दूसरे, मैंने कभी नहीं सोचा कि मुझे महान संगीतकार बनना है. मेरा काम तो अपना प्रयास करते रहना है और अपने गाने को पहले से बेहतर बनाना ही मेरा लक्ष्य है. इस प्रक्रिया में यदि मैं महान संगीतकार बन गई तो यह एक तरह का बाई-प्रॉडक्ट होगा. मेरा लक्ष्य यह नहीं है. यूं भी मेरा मानना है कि जो भी महान संगीतकार हुए हैं, उनका संगीत उनके इसी जन्म का अर्जित संगीत नहीं है. न जाने कितने पूर्वजन्मों की साधना उसके पीछे रही होगी.

आप पंडित जितेंद्र अभिषेकी के बाद पद्मा तलवलकर जी के पास सीखने गयीं. क्या उनके निधन के बाद?

नहीं, उनके जीवित रहते ही. उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. शायद ही कोई गुरु हो जो खुद अपने शिष्य से कहे कि तुम अब किसी और से सीखो. लेकिन उन्होंने मुझे ऐसा ही कहा क्योंकि गाने में गुरु जब तक स्वयं गाकर नहीं बताएगा, तब तक शिष्य उसे नहीं सीख सकता. पहले तो शिष्य को गुरु की नकल ही करनी होती है और उस नकल को ही परफेक्ट बनाना होता है. और यह एक शारीरिक क्रिया है. यदि स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तो गुरु के लिए क्रियात्मक तालीम देना संभव नहीं. पंडित जितेंद्र अभिषेकी से मैंने संगीत में साहित्य के महत्व को, बंदिश के शब्दों के महत्व को और उन शब्दों को कैसे गाते हुए खोला जाता है, इसके महत्व को समझने की कोशिश की. उनमें आगरा घराने और जयपुर घराने का समन्वय था. तो इन दोनों घरानों की तालीम और एप्रोच मुझे उनसे सीखने को मिली. उनके आदेश के बाद ही मैं पद्मा ताई के पास तालीम के लिए गई. और उन्होंने मुझे बहुत प्रेम और लगन से सिखाया है. लेकिन अब पिछले तीन-चार साल से मैं जयपुर-अतरौली घराने के वरिष्ठ कलाकार अरुण द्रविड़ से सीख रही हूं. वे स्वर्गीय मोगूबाई कुर्डीकर जी और उनकी पुत्री किशोरी अमोणकर जी के शिष्य हैं.

भविष्य की क्या योजनाएं हैं?

मुझे संस्कृति प्रतिष्ठान की ओर से एक स्कॉलरशिप मिली है जिसके तहत मैं दस ऐसे रागों का अध्ययन करना चाहती हूं जो अब नामशेष तो नहीं हुए पर बहुत कम गाये जाते हैं.

मसलन, कौन-कौन से राग? क्या आप कोई शोध पत्र भी लिखेंगी?

बहादुरी तोड़ी, जैतश्री, जैत कल्याण, खोकर और इसी तरह के कुछ और राग. मैं इनका अध्ययन एक कलाकार की दृष्टि से करना चाहती हूं, ऐसे शोधार्थी की तरह नहीं जो शोध करने के बाद उस पर कोई पेपर वगैरह लिखे. एक कलाकार के रूप में सबसे बड़ी बात अपनी अलग शैली बनाना है जिसके लिए अलग दृष्टि होना भी जरूरी है. कोशिश तो कर रही हूं, देखिये क्या होता है.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा