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अब डायपर का इस्तेमाल बंद

६ अगस्त २०१३

बच्चे जब तक टॉयलेट जाना सीख जाते हैं तब तक वह करीब दो से तीन हजार डायपर पहन चुके होते हैं. अब जर्मनी में कुछ मां बाप बिना डायपर के ही बच्चे बड़े करने की कोशिश में हैं और घर साफ रखने की भी.

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तस्वीर: Fotolia/Claudia Paulussen

भारत में लंबे समय तक बच्चों को कोई डायपर नहीं पहनाए जाते थे. उनकी लंगोट घर की दादी, नानी, मां या दाई बदलती रहती थी और घर में यहां वहां पोछा भी लगाती रहती थीं. अर्थव्यवस्था खुली तो उसके साथ डायपर भी आए. फेंके जा सकने वाले ये डायपर आज दुनिया भर के कई देशों में इस्तेमाल किए जाते हैं.

जर्मनी में कुछ माता पिता अब बिना डायपर के अपने बच्चों को टॉयलेट जाने की आदत लगा रहे हैं. हर सुबह जब 15 महीने की एलिस जागती हैं तो उसकी मां फ्रेयर डोनर उसे टॉयलेट में ले जाती हैं. जब वे बाहर जाती हैं तो झाड़ियों में. एलीस लू लू शब्द को समझती हैं और इस तरह उसे टॉयलेट जाने की आदत बचपन से ही पड़ रही है.

बिना डायपर के बच्चे बड़ा करने वाले डोनर दंपति डोनर की तरह यूरोप में फिनलैंड से इटली तक कई और दंपति इस दिशा में चल पड़े हैं. डायपर नहीं, पाउडर नहीं और डायपर बैग भी नहीं.

फ्रेया डोनर के लिए डायपर फ्री समस्या नहीं बल्कि समाधान हैं. वह बताती हैं, "एलिस बहुत रोती थी. मैंने डायपर फ्री बेबीज किताब लिखने वाली से बात की. उन्होंने कहा कि बच्चे बताते हैं. जबसे हमने डायपर का इस्तेमाल बंद किया है, एलिस का रोना कम हो गया है और वह संतुष्ट दिखाई देती है. हमें तो तुरंत अच्छे नतीजे मिले."

आदत पड़ी

डोनर ने सिर्फ अपनी बच्ची को ये आदत नहीं लगाई बल्कि वह दूसरे दंपतियों को भी सिखा रही हैं कि बच्चों को बिना डायपर के कैसे टॉयलेट जाने की आदत लगाएं. उन्होंने 2012 में बेबीज विदाउट डायपर्स संगठन के साथ ये काम शुरू किया था. वह इसकी वर्कशॉप में शामिल होने वाले पहले ग्रुप का हिस्सा थी.

ऑनलाइन फोरम के जरिए डॉक्टर हाइनरिष राट्ज से वह मिली. राट्ज जनरल प्रैक्टिशनर हैं और उत्तरी जर्मनी के ब्राउनश्वाइग में स्कूल फिजिशियन हैं.

Workshop windelfrei Freya Donner mit ihre Tochter
फ्रेया डोनर की डायपर फ्री वर्कशॉपतस्वीर: DW/Li Fern Ong

राट्ज करीब 20 साल से डायपर के कारण बच्चों में होने वाले डर्मिटाइटिस का इलाज करते हैं, इसे सामान्य बोलचाल में डायपर रैश कहा जाता है. चार साल पहले उन्होंने माता पिता को डायपर्स का इस्तेमाल बंद करने की सलाह दी. डी डब्ल्यू से बातचीत में उन्होंने कहा, "अंग्रेजी बोलचाल में एलिमिनेशन कम्यूनिकेशन कहा जाता है. चिकित्सा की दुनिया में अभी इस बारे में कम जानकारी है लेकिन डॉक्टर लगातार इसमें रुचि ले रहे हैं." एलिमिनेशन कम्यूनिकेशन यानी मौखिक संकेत जिससे शिशुओं को बाथरूम या टॉयलेट ही जाने की आदत पड़ती है. राट्ज बताते हैं कि जर्मनी के मेडिकल स्कूल में उन्हें सिखाया गया था कि बच्चे ब्लॉडर पर नियंत्रण करने की आदत 24 महीने के होने के दौरान ही सीख जाते हैं.

हालांकि एक 13 महीने के बच्चे का डायपर रैश इतना ज्यादा था कि डॉक्टर राट्ज ने डायपर हटा देने की सलाह दी और बच्चे की मां से कहा कि घर जाने से पहले बच्ची को पेशाब करवाने की कोशिश करे और मां के संकेत पर बच्ची ने ऐसा किया. एलिमिनेशन कम्यूनिकेशन में पॉटी और टॉयलेट पेपर का इस्तेमाल किया जाता है.

अभ्यास जरूरी

एलिमिनेशन कम्यूनिकेशन (ईसी) के लिए काफी समय देना पड़ता है. बाद में यह कम हो जाता है. तीसरा साल लगते लगते डायपर फ्री बेबीज अपने आप टॉयलेट जा सकते हैं जबकि दूसरे बच्चे पॉटी करने की आदत इस उम्र में सीखना शुरू करते हैं. अमेरिका में ईसी पायोनियर लॉरी बुके ने अपने तीसरे बच्चे के साथ यह प्रैक्टिस शुरू की थी. वह लिखती हैं, "नौ महीने बाद उन्हें शायद ही कभी डायपर की जरूरत पड़ी, न दिन में न रात में. 18 महीने का होने पर दिन में वह अक्सर सूखा रहता और 24 महीने के होने तक वह पॉटी जाने का तरीका अच्छे से सीख गया था."

इसके तीन मुख्य तरीके हैं टाइमिंग, क्यू और सिगनल. टाइमिंग का मतलब है एक टाइम टेबल बना देना जिससे बच्चा कभी भी पॉटी नहीं करता. यह सोने या खाने से पहले हो सकता है.

क्यू एक आवाज होती है जो मां या पिता बच्चे को टॉयलेट में ले जाने के लिए करते हैं. जैसे भारत में अक्सर सू या शू ध्वनि का इस्तेमाल किया जाता है. शुरुआत में बार बार ये आवाज देने से बच्चा एक असोसिएशन बना लेता है. डोनर अपनी वर्कशॉप में आने वाले लोगों से कहती हैं, "90 फीसदी शिशु बता देते हैं कि वे क्या करना चाहते हैं. एलिस के मामले में वह पॉटी करने से पहले बहुत रोती थी." दूसरे संकेतों में बच्चे पेशाब लगने पर अपने कपड़े हटाने या ब्लेंकेंट हटाने या फिर अचानक अजीब व्यवहार करने लगते हैं.

बड़ी बचत

फ्रेया की वर्कशॉप में जाने वालों के करीब 800 से 1000 यूरो बच जाते हैं. भारत में डायपर की कीमत 10 से 20 रुपये के बीच है. इतना ही नहीं एक डायपर को खत्म होने में साढ़े चार सौ साल लगते हैं. सिर्फ जर्मनी में हर दिन कम से कम 84 लाख डायपर फेंके जाते हैं. यहां देश के करीब 20 लाख बच्चे पीएंडजी का डायपर पहनते हैं. प्रोक्टर एंड गैम्बल कंपनी ने डायपर फ्री मूवमेंट पर तो कोई प्रतिक्रिया नहीं दी लेकिन ब्रांड हेट मेलानी श्निट्जलर ने हाइजीन का मुद्दा जरूर उठाया.

डॉक्टर राइनर गांशोव बॉन के चिल्ड्रन क्लीनिक के निदेशक हैं. वे मानते हैं कि डायपर फ्री होने में हाइजीन की समस्या तो है. वे कहते हैं, "मैं खुद बच्चों को बिना डायपर के बड़ा करने की पैरवी करता हूं. लेकिन ईसी के बारे में और शोध की जरूरत है. क्योंकि अधिकतर बाल रोग विशेषज्ञ इसमें कोई अनुभव नहीं रखते."

डोनर और बेबी एलिस के लिए अब डायपर फ्री रोज की बात हो गई है. वह रात में बिना डायपर के अपनी मां के पास सोती हैं. और जरूरत पड़ने पर उठ कर बिस्तर के पास रखी पॉटी पैन का इस्तेमाल करती हैं.

रिपोर्टः ली फर्न ओंग/आभा मोंढे

संपादनः एन रंजन