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अपनों से हताश और निराश नेपाल

ओएसजे/आईबी (एएफपी)२२ अप्रैल २०१६

कभी कभार जल्द फैसले लेने पड़ते हैं, तर्क वितर्क का समय नहीं होता. नेपाल शायद यह भूल रहा है. भूकंप की मार झेलने वाला देश अभी भी पीड़ितों की मदद को लेकर हरकत कम, चिंतन ज्यादा कर रहा है.

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तस्वीर: Sachit Shrestha

काठमांडू के एयरपोर्ट के पास लगे तंबुओं में मेनुका रोकाया अपने पति और नौ महीने के बच्चे के साथ रहती हैं. वे उन 40 लाख लोगों में हैं जो आज भी बेघर हैं. भूकंप के बाद कुछ महीने तक जब जब हवाई जहाज आते थे, उन्हें लगता था कि मदद आ रही है. लेकिन अब विमानों का आना सिर्फ शोर भर रह गया है. रुआंसी आवाज के साथ मेनुका कहती हैं, "हमने बच्चे के साथ मानसून और पूरी सर्दियां ऐसे ही गुजारी हैं. पहले भूकंप ने हमें तबाह किया, अब जिंदा रहना मुश्किल हो रहा है. पहले बहुत सारे लोग हमारी मदद के लिए आते थे लेकिन अब वे सब गायब हो चुके हैं."

हिमालय की गोद में बसे नेपाल में 25 अप्रैल 2015 को 7.8 रिक्टर तीव्रता का भूकंप आया. प्राकृतिक आपदा ने करीब 9,000 लोगों की जान ली. 50 लाख से ज्यादा घर पूरी तरह ध्वस्त हो गए. नेपाल की मदद के लिए दुनिया ने करीब चार अरब डॉलर की सहायता जुटाई. लेकिन फंड के नियंत्रण को लेकर राजनीतिक दलों में रसाकसी होती रही. यही वजह है कि ज्यादातर पीड़ितों को शुरुआत में हल्की सहायता के अलावा और कुछ नहीं मिला.

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कब आएगी मददतस्वीर: DW

शिथिल सरकारी तंत्र

भूकंप के वक्त मेनुका गर्भवती थीं. अब उनका नौ महीने का बच्चा लोटने पोटने लगा है, लेकिन मदद का सरकारी तंत्र अपनी जगह जाम सा दिखता है. नेपाल सरकार ने भूकंप में तबाह हुए हर घर के लिए 2,000 डॉलर की सहायता राशि देने का वादा किया, लेकिन अब तक सिर्फ 700 परिवारों को इसकी पहली किस्त मिली है. वह भी सिर्फ 500 डॉलर. मेनुका कहती हैं, "हमने मुआवजे के बारे में कुछ नहीं सुना. हमारे पास बिल्कुल पैसा नहीं है, ऐसे में हम अपना घर कैसे बनाएं." मेनुका के पति चाय बेचते हैं और दिन भर में करीब 400-500 रुपये कमाते हैं. तंबू के भीतर परिवार इसी रकम से पल रहा है.

अंतरराष्ट्रीय सहायता संस्था फेडरेशन ऑफ रेड क्रॉस के मुताबिक नेपाल के 40 लाख लोग अब भी ऐसे ही अस्थायी शिविरों में रह रहे हैं. इनमें से कई बुरी तरह गरीबी की चपेट में हैं. संवैधानिक गतिरोध के चलते भारत से लगी सीमा बंद करने वाले मधेसी आंदोलन ने हालात और बदत्तर किए. कई महीनों तक चले इस बंद से नेपाल में ईंधन, खाने और दूसरी आवश्यक सेवाओं की कमी हो गई.

नेपाल की अर्थव्यवस्था को टूरिज्म से बड़ा सहारा मिलता है. लेकिन भूकंप के बाद ज्यादातर बुकिंग्स रद्द हो गईं. सैलानियों की पंसदीदा विश्व सांस्कृतिक धरोहरों को अब फिर से ठीक किया जा रहा है. लेकिन कई शताब्दी पुरानी इमारतों या स्मारकों के पुर्ननिर्माण में अब कई साल लगेंगे. एक तरफ लोग कह रहे हैं कि सरकार को पर्यटन को पटरी पर लाने पर ध्यान देना चाहिए ताकि लोगों को रोजगार मिल सके, अर्थव्यवस्था में जान आ सके. दूसरी तरफ यह तथ्य भी है कि लाखों लोग बेघर हैं और भूख से लड़ रहे हैं.

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भारत विरोधी प्रर्दशन के दौरान सीमा बंदतस्वीर: Getty Images/AFP/D. Dutta

करो या मरो बनाम ऐसे करो

वित्तीय मदद के बंटवारे को लेकर आखिरकार दिसंबर 2015 में राष्ट्रीय पुर्ननिर्माण प्राधिकरण (एनआरए) बना. सरकार ने एनआरए को आदेश दिया कि मदद की मांग करने वालों को भूकंप निरोधी इमारत का डिजायन पेश करना होगा. अंतरराष्ट्रीय और नेपाल दानदाता पुर्ननिर्माण की प्रमुख जेनिफर डुयेन के मुताबिक, "कई संस्थाएं है, जो घरों के पुर्ननिर्माण में मदद करना चाहती हैं, लेकिन उनके सामने नीति संबंधी असमंजस है. एक तरह से निर्वात की स्थिति है. यानि वे काम शुरू कर ही नहीं सकतीं."

कई संस्थाओं ने स्कूल और अस्पताल फिर से बनाने भी शुरू कर दिए थे, लेकिन तभी "काम रोको" आदेश आया. पुर्ननिर्माण करने वालों से कहा गया कि उनकी इमारतों की समीक्षा के बाद ही काम आगे बढ़ाया जाएगा, इसमे महीनों लग गए.

कहीं कहीं सुधरते हालात

काठमांडू के पूर्व में स्थित रामेछाप जिले में 40,000 घर क्षतिग्रस्त हुए. इस इलाके से विश्व प्रसिद्ध गोरखा जवान आते हैं. अपने इलाकों को नया जीवन देने का बीड़ा गोरखा जवानों ने उठाया है. गोरखा जवान बीते 200 साल से ब्रिटिश सेना में सेवाएं दे रहे हैं. भारत और ब्रिटेन की सेना आज भी नेपाल के इस इलाके से हर साल गोरखा सैनिक भर्ती करती है. ब्रिटेन के गोरखा वेलफेयर ट्रस्ट ने 2017 तक 1,200 घरों का काम पूरा करने का लक्ष्य रखा है. भोजराज सनवार किसान हैं. कुछ महीने तंबू में बिताने के बाद उन्हें घर मिला. गोरखा सेना का आभार जताते हुए वह कहते हैं, "अगर वे यहां नहीं होते तो एक और साल शिविर में गुजारना पड़ता. मुझे सरकार से कोई उम्मीद नहीं है."