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अन्न का अपमान करता भारत

२५ नवम्बर २०१२

एक जमाना था जब भारतीय प्रधानमंत्री पश्चिमी देशों से अन्न मांगा करते थे. फिर हरित क्रांति हुई. आज पर्याप्त अनाज उग रहा है लेकिन बुरे प्रंबधन के चलते आधा अन्न बर्बाद जा रहा है. बर्बादी वहां, जहां करोड़ों गरीब हैं.

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तस्वीर: DW

अंग्रेजी में एक पुरानी कहावत है कि 'देयर इज मेनी स्लिप्स बिटवीन द कप एंड लिप.' यानी हाथ में पकड़े चाय के प्याले का होठों तक पहुंचने के बीच भी बहुत कुछ हो सकता है. यह कहावत खाद्यान्न के खेतों से लेकर उपभोक्ताओं तक पहुंचने की प्रक्रिया पर भी हूबहू लागू होती है. कृषि प्रधान देश कहे जाने वाले भारत में अनाज के खेतों से आम लोगों के रसोईघरों तक पहुंचने के बीच जो नुकसान होता है, उसके आंकड़े भयावह हैं. यह नुकसान इतना ज्यादा है कि इससे लाखों लोगों को पूरे साल भरपेट भोजन मुहैया कराया जा सकता है. जिस देश की 60 फीसदी आबादी अपनी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर हो, वहां यह स्थिति बेहद दयनीय है कि एक तरफ गरीबों के पास खाने के लिए अनाज नहीं है तो दूसरी तरफ लाखों टन अनाज सरकार की उपेक्षा और गोदामों में हो रही लापरवाही की वजह से खराब होता है. इतना अनाज बर्बाद हो रहा है जितना अगर गरीबों में बांट दिया जाए तो वह वर्षों तक खा सकते हैं.

लेकिन सरकारें या अनाज को खेतों से लेकर दुकानों और घरों तक पहुंचाने वाली सरकारी एजेंसियां इस मामले पर आश्चर्यजनक तौर पर चुप हैं. इस नुकसान को कम करने के लिए केंद्र सरकार ने हाल में नेशनल पालिसी आन हैंडलिंग एंड स्टोरेज आफ फूडग्रेन्स नामक एक नई नीति बनाई है. इसमें खेती के स्तर पर होने वाले नुकसान को कम करने के लिए मशीनों के ज्यादा इस्तेमाल (मैकेनिकल फार्मिंग) को बढ़ावा देने के अलावा अनाज की ढुलाई खास तौर पर बने ट्रकों में करने, भंडारण यानी स्टोरेज को आधारभूत क्षेत्र का दर्जा देने और निजी क्षेत्र को स्टोरेज सुविधाएं बनाने के लिए प्रोत्साहित करने की बात कही गई है. लेकिन इस पर अमल करने की दिशा में अब तक कोई प्रगति नहीं हो सकी है.

Nahrungsmittel Markt in Kalkutta
तस्वीर: DW

धान और गेहूं भारत के दो मुख्य फसलें हैं. लेकिन खेतों में उपजने से लेकर दुकानों तक पहुंचने के सफर में इन खाद्यान्नों का जितना नुकसान होता है उसके आंकड़े हैरत में डाल देते हैं. पहले तो नुकसान होता है खेती के दौरान. खेत में प्रति क्विंटल धान पर 3.82 किलो का नुकसान होता है जबकि गेंहू के मामले में यह 3.28 किलो है. इसके बाद अनाज की थ्रेसिंग या मड़ाई (पौधों से दानों को अलग करने की प्रक्रिया) के दौरान प्रति क्विंटल लगभग पांच सौ ग्राम का नुकसान होता है.

किसान जब अपनी फसल को मंडी में बेच देते हैं तो उसका भंडारण किया जाता है. लेकिन भारत में भंडारण की पर्याप्त क्षमता नहीं होने की वजह से इस दौरान चावल के मामले में 1.2 किलो प्रति क्विंटल और गेहूं के मामले में 0.95 किलो प्रति क्विंटल का नुकसान होता है. भंडारण के दौरान होने वाले नुकसान की वजह अलग-अलग गोदामों की कमी, भंडारण का खराब आधारभूत ढांचा, चूहों व दूसरे कीड़ों की समस्या और कोल्ड स्टोरेजों में मौजूद नमी है. खाद्य विशेषज्ञों का कहना है कि अनाज के खेत-खलिहान से लेकर बाजार तक के सफर में कुल फसल का लगभग 40 फीसदी बर्बाद हो जाता है. इसमें 75 फीसदी नुकसान खेत-खलिहान के स्तर पर होता है और बाकी बाजार के स्तर पर. हर साल लाखों टन अनाज की इस बर्बादी से जहां देश के करोडों लोग भूखे रहने पर मजबूर हैं वहीं आम उपभोक्ताओं को कई गुनी ज्यादा कीमत पर इन वस्तुओं को खरीदना पड़ता है. यह अलग बात है कि कमीशन एजेंटों, मुनाफाखोरों और बाजार के विभिन्न स्तरों पर व्यापारियों के अपना मुनाफा जोड़ने के वजह से किसानों को कई बार लागत मूल्य से भी कम कीमत पर अपनी उपज बेचनी पड़ती है.

धान का कटोरा कहे जाने वाले पश्चिम बंगाल के बर्दवान जिले में धान की अच्छी कीमत नहीं मिलने की वजह से इस साल दो दर्जन से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. बर्दवान के एक किसान जितेन राय कहते हैं, "खेती में कुछ नहीं बचा है. सब बर्बाद हो गया है. लोन कहां से चुकाएंगे. कैसे चुकाएंगे." उपभोक्ताओं को भले ही महंगी कीमत पर अनाज खरीदना पड़े, किसानों के लिए यह खेती अब मुनाफे का सौदा नहीं रही. बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के रहने वाले मनोज प्रसाद ने अपने तमाम खेत बेच दिए हैं. वह अब शहर में रह कर दूसरा काम करते हैं. लेकिन आखिर क्यों. इस सवाल पर मनोज कहते हैं, "खेती की जो बात है, किसान फसल कहीं और उगाता है. फिर वहां से और एक जगह अनाज जाता है. एक से दूसरी जगह जाते समय सामान नष्ट हो जाता है. खेती वाले लोगों को कुछ फायदा नहीं होता. बस यही बात है, कुछ और नहीं."

फिलहाल भारत में सप्लाई चेन की तस्वीर काफी उलझी हुई है. इसका 95 फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र के हाथों में है. एक उत्पाद ग्राहक तक पहुंचने से पहले औसतन छह से सात बिचौलियों के हाथों से होकर गुजरता है. अनाज जितने हाथ बदलेगा, उसका नुकसान (ट्रांजिट लास) भी उतना ही ज्यादा होगा.
मंडी में जाने के बाद किसानों के पास अपना माल आढ़ती को बेचने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचता. अक्सर बाजार में मंदी की दुहाई देकर आढ़ती उससे औने-पौने दाम में फसल खरीद लेता है और बाद में ज्यादा मुनाफा लेकर बेच देता है. मंडी में पांच रुपये किलो खरीदा जाने वाले टमाटर की कीमत आम उपभोक्ता तक पहुंचते - पहुंचते 20 से 50 रुपये किलो हो जाती है. उत्तर भारत की कुछ मंडियों में सीजन के वक्त टमाटर जैसी फसल एक रुपये किलो बिकती है. इसकी वजह से किसान के लिए ट्रैक्टर और ढुलाई का खर्च निकालना तक मुश्किल हो जाता है. देर हुई तो फसल खराब हो जाएगी, इस मजबूरी के चलते भी उन्हें आढ़तियों से समझौता करना पड़ता है.

भुकमरी और बर्बादी

यही वजह है कि मुर्शिदाबाद के किसान समर जाना बिचौलियों को हटाने के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की वकालत करते हैं. वह कहते हैं, "एफडीआई आने पर अच्छा होगा. विदेशी कंपनी किसानों से सीधे माल खरीदेगी तो उनको फायदा होगा. इस समय तो दलाल ही मुनाफा कमा लेते हैं. किसानों को फसलों की बढ़िया कीमत नहीं मिलती. एफडीआई के आने पर दलाल संस्कृति खत्म हो जाएगी."

एशिया में अनाजों की सबसे बड़ी मंडी कोलकाता का बड़ा बाजार है, यहां थोक व्यापारी संघ के एक प्रवक्ता सुनील सेन कहते हैं, "अनाज की ढुलाई के दौरान नुकसान तो होता ही है. अक्सर अनाज की बोरियां फटने की वजह से कई किलो माल बर्बाद हो जाता है. ट्रकों पर माल लादने और उतारने के क्रम में भी काफी नुकसान होता है. इस नुकसान को कम करना जरूरी है. व्यापारी तो अपना मुनाफा जोड़ लेते हैं. ट्रक मालिकों को भी अपना किराया मिल जाता है. लेकिन इस नुकसान का खमियाजा आम उपभोक्ताओं को ही उठाना पड़ता है."

बड़ा बाजार के एक थोक व्यापारी दिनेश अग्रवाल भी सुनील की बातों का समर्थन करते हैं. वह कहते हैं, "खेत से दुकानों तक पहुंचने में काफी अनाज बर्बाद हो जाता है. लेकिन हम तो अपना मुनाफा जोड़ लेते हैं. आखिर हम घाटा सह कर तो व्यापार नहीं करेंगे. नतीजा यह होता है कि अनाज के नुकसान के अनुपात में उसकी कीमतें बढ़ती जाती हैं."

किसानों को हर साल ज्यादा पैदावार की समस्या से दो-चार होना पड़ता है. हाल में पश्चिम बंगाल और पंजाब समेत देश के विभिन्न राज्यों में दो रुपये किलो आलू बिकने की नौबत आई तो किसानों ने कई ट्रक आलू सड़क पर फेंक दिया. फल-सब्जी पैदा करने वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश होने के बावजूद निर्यात में भारत की हिस्सेदारी फलों में महज 0.5 फीसदी और सब्जियों में 1.7 फीसदी है. केंद्र सरकार के मुताबिक कुल पैदावार की अनुमानित कीमत 10 खरब रुपये है . लेकिन इसमें से 57 फीसदी बर्बाद हो जाता है क्योंकि इसके संरक्षण के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचा नहीं है. यहां सालाना पैदा होने वाले 20 करोड़ टन फल-सब्जी में से सिर्फ 2.36 करोड़ टन को ही कोल्ड स्टोरेज में जगह मिल पाती है. इनमें भी 80 फीसदी हिस्सा सिर्फ आलू का है.

खाद्यान्नों के भंडारण के लिए केंद्र सरकार की ओर से गठित भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के पास इस समय 130 लाख टन अनाज भंडारण की क्षमता है. जबकि उसने 150 लाख टन से ज्यादा क्षमता वाले कई गोदाम सरकार और निजी एजेंसियों से किराये पर ले रखे हैं. बावजूद इसमें समुचित प्रबंधन और रखरखाव की कमी की वजह से उन गोदामों में हर साल लाखों टन माल सड़ जाता है. चालू वित्त वर्ष के बजट में भंडारण की क्षमता बढ़ाने के लिए पांच हजार करोड़ रुपये के आवंटन का प्रस्ताव रखा है. पिछले साल के बजट में इस मद में दो हजार करोड़ रुपये आवंटित किये गए थे. पिछले एक साल में सरकार ने 20 लाख टन भंडारण की अतिरिक्त क्षमता को मंजूरी दी है. लेकिन इसके बावजूद यह समस्या जल्दी सुलझने की उम्मीद नहीं नजर आती.

रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी

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