अदालती फैसला और अम्मा की पॉलिटिक्स
२९ सितम्बर २०१४एक दौर में तमिल फिल्मों की मशहूर अदाकारा रह चुकीं जयललिता के राजनैतिक जीवन में ये एक बड़ा नाटकीय मोड़ है. उन पर लगा 100 करोड़ रुपए का जुर्माना किसी राजनेता पर अब तक का सबसे बड़ा जुर्माना है. वो पहली मुख्यमंत्री हैं जिन्हें फैसला आने के बाद पद छोड़ना पड़ा और जेल भी जाना पड़ा. हालांकि जयललिता ने हाईकोर्ट में जमानत की अर्जी लगा दी है.
अम्मा के समर्थकों में जाहिर है अत्यंत गुस्सा और शोक है. जयललिता अदालती फैसले से दुखी तो होंगी लेकिन हैरान नहीं. 18 साल से चली आ रही सुनवाई के ऐसे किसी नतीजे के लिए वो तैयार ही होंगी. रणनीति के तहत बिना देर किए “अम्मा के वफादार सिपाही” ओ पनीरसेलवम को सीएम पद की कमान सौंपी गई. सिंहासन पर पादुकाएं रख कर शासन चलाने का काम वो 2011 में भी बखूबी निभा चुके हैं, जब तांसी जमीन मामले में कुछ अंतराल के लिए जयललिता को हटना पड़ा था.
लेकिन अप्रैल 2011 के विधानसभा चुनावों के बाद से उनकी अगुवाई में पार्टी राज्य का हर चुनाव और उपचुनाव जीतती आई है. इस लिहाज से देखें तो तमिलनाड की राजनीति में जयललिता की प्रत्यक्ष उपस्थिति के अभाव को राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी डीएमके भुनाने की पूरी कोशिश करेगी लेकिन फिलहाल वो अपनी आंतरिक कलहों और पारिवारिक झगड़ों से परेशान है. इधर जयललिता और उनकी पार्टी ने अपने प्रति सहानुभूति की एक पुख्ता लहर का निर्माण करना शुरू कर दिया है. 18 महीने बाद जब राज्य में चुनाव होंगे तो कौन जानता है कि एआईएडीएमके और ताकतवर होकर उभरे. ये निर्भर करता है कि डीएमके इस दरम्यान आक्रामक राजनीति कर पाती है या नहीं.
राष्ट्रीय राजनीति में भी अम्मा के जेल प्रवास और एआईएडीएमके के कमजोर पड़ने की आशंका से बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला है. भले ही बीजेपी प्रचंड बहुमत के साथ सरकार में हो तब भी वह विपक्ष के रूप में एआईएडीएमके के सांसदों को नाराज रखने का जोखिम मोल नहीं लेगी. क्योंकि हिंदुस्तान में सियासत का खेल बड़ा विचित्र है. यहां अर्श से फर्श की कहावतें न सिर्फ चरितार्थ होती हैं बल्कि पलटती भी रहती हैं. ये देखना दिलचस्प होगा कि अगर जयललिता दस साल तक चुनाव लडऩे के अयोग्य पाई जाती हैं तो फिर वो अपने कद को किस तरह पुनर्गठित करेंगी.
भारतीय राजनीति के समकालीन वृतांत बताते हैं कि राजनैतिक दलों और चतुर नेताओं के पास अपनी सत्ता राजनीति को चमकाए रखने के सौ रास्ते हैं. अदालती सजाओं को राजनैतिक करियर में सौगात की तरह लेने का चलन भी है. जनता राजनैतिक शुचिता और संयम के तर्क ढूंढने नहीं निकलती. यहां तथ्य और गप घुलमिल जाते हैं और अलग पाठ निर्मित कर देते हैं. राजनीति का ये सरलीकृत पाठ ही लोगों को लुभाता है. फिर वो चाहे तमिलनाडु हो या कोई और राज्य.
ब्लॉग: शिवप्रसाद जोशी
संपादन: महेश झा