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सूनामी भी नहीं तोड़ पाई संघर्ष का जज़्बा

प्रिया एसेलबोर्न (संपादन: एस गौड़)२६ दिसम्बर २००९

पांच साल पहले जब हिंद महासागर में एक क़ातिलाना लहर उठी, तो लाखों जानें लेने के बाद ही शांत हुई. मौत के इस दूत को दुनिया ने सूनामी के रूप में पहचाना. लेकिन पुरुषों से कहीं ज़्यादा प्रभावित हुईं महिलाएं.

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एक नई शुरुआततस्वीर: AP

समुद्र की शांत लहरें कब ग़ुस्से में आ जाएं, कोई नहीं जानता और जब ग़ुस्सा हद से बढ़ जाता है तो सूनामी जैसी घटना हो जाती है. यूं तो कहा जाता है कि क़ुदरत का क़हर भेदभाव नहीं करता और सबको इसकी मार झेलनी पड़ती है. लेकिन सच तो यह है कि यहां भी महिलाओं को ज़्यादा दुश्वारी उठानी पड़ती है. एक बीवी के तौर पर, एक मां के तौर पर और घर चलाने वाली एक महिला के तौर पर.

क्रिकेट की दुनिया के लिए श्रीलंका का गॉल शहर जाना पहचाना नाम है. लेकिन अब यह शहर सूनामी से पीड़ित शहर के रूप में भी जाना जाने लगा है. हरी भरी घास वाले विशालकाय क्रिकेट ग्राउंड के पास से गुज़रते हुए या फिर समुद्र किनारे छुट्टियां बिताते सैलानियों को देख कर ऐसा नहीं लगता कि पांच साल पहले यह जगह प्रकृति के क्रोध का शिकार हुई थी. सब कुछ ठीक ठाक. लेकिन इसी समुद्र के किनारे देविका भी खड़ी है. मानों लहरों से पूछ रही हो कि सूनामी में उसके मां बाप को क्यों छीन लिया. उसे क्यों अनाथ बना दिया.

Wiederaufbau nach Tsunami in Indonesien Flash-Galerie
तस्वीर: dpa

16 साल की देविका दो साल से आश्रम में रह रही हूं. इससे पहले वह एक दूसरे आश्रम में थी. उसका सपना है कि वह बड़ी होकर एक डॉक्टर बने.

सूनामी की क्रूर लहरों ने देविका के आंखों को नम ज़रूर कर दिया हो लेकिन सपने नहीं छीन पाई. देविका के साथ उसके अबिगेल आश्रम में दो कमरों में 24 लड़कियां हैं. पांच साल पहले ये लड़कियां बेबसी का बहाना कर ग़लत रास्ते पर भी निकल सकती थीं लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. इन बच्चियों के साथ काम करने वाले वसंत हेवागे कहते हैं कि बच्चियां जब उनके पास आती हैं तो बहुत दुखी होती हैं, क्योंकि उनको प्यार करने वाला या देखभाल करने वाला कोई नहीं हैं.

2004 के आख़िरी दिनों में आई सूनामी की लहरों के बाद की पहली तस्वीरें सबको याद हैं. जब लाशों का ढेर लगा था और सबसे ज़्यादा महिलाओं की लाशें दिख रही थीं. अंतरराष्ट्रीय ग़ैर सरकारी संगठन ऑक्सफ़ैम का मानना है कि सूनामी ने महिलाओं को ज़्यादा निशाना बनाया. कई जगहों पर तो पुरुषों से तीन गुना ज़्यादा महिलाओं की मौत हुई.

ऑक्सफ़ैम का कहना है कि मां की ममता और घर की ज़िम्मेदारी भी महिलाओं पर भारी पड़ी. लहरों के थपेड़ों के बीच या तो वे अपने बच्चों को बचाने की कोशिश करती ज़िन्दगी से हार गईं या फिर घर के बड़े बुज़ुर्गों को सही जगह पहुंचाने की कोशिश में.

समुद्र किनारे रहने वाले मछुआरे भले ही लहरों से निपटना जानते हों, तैरना जानते हों लेकिन पीछे घर पर छूटी महिला तैरना भी नहीं जानती. सूनामी ने हज़ारों ज़िंदगियों को तोड़ दिया लेकिन उनके हौसले नहीं तोड़ पाया. उन्हें ज़िन्दगी नए सिरे से शुरू करने की हिम्मत दी.

सिंदिखा ख़ुशनसीब है कि सूनामी ने उसका सिर्फ़ घर बर्बाद किया, परिवार को छोड़ दिया. लेकिन अब वह ख़ुद अपने पति के साथ नहीं रहती. असल में रहना नहीं चाहती. बच्चों के साथ अलग हो गई है. सिंदिखा कहती है कि सूनामी ने उसकी ज़िन्दगी बदल दी.

मेरा पति मुझे बहुत मारता था. मुझे गालियां देता था. मेरे सास ससुर भी मुझे तंग करते थे. मेरा और मेरे बच्चों का समर्थन करने वाला कोई नहीं था. अब मेरे तीन बच्चे स्कूल जाते हैं और मै भी थोड़ा सा पैसा कमा सकती हूं. मेरा यही सपना है कि मेरे बच्चे ज़िंदगी में आगे बढे.

Trauer nach Tsunami in Sri Lanka Flash-Galerie
तस्वीर: AP

ऑक्सफ़ैम का भी कहना है कि सूनामी की त्रासदी के बाद महिलाओं पर घरेलू हिंसा बढ़ी है. शायद अपनों और घर बार छिनने की व्यथा भी इसकी वजह हो. इन महिलाओं पर ज़ुल्म भले ही हुआ हो लेकिन इन्होंने तो आगे बढ़ना सीख ही लिया है.

भारत में भी सूनामी ने कोई कम क़हर नहीं बरपाया था. ख़ासकर नागापट्टनम में. सूनामी के फ़ौरन बाद 2004 में भी मैं यहां आई थी. पांच साल मन में वही उजड़े हुए, बिखरे बिखरे से गांवों की तस्वीर उभर रही थी. लेकिन वहां पहुंच कर ख़ुशी भरी हैरानी हुई. सबसे पहले नज़र आए क़ायदे से बने घर और इन्हें क़ायदे से चलाती औरतें.

मुझे याद है कि इस इलाक़े में पानी की बहुत समस्या हुआ करती थी लेकिन आज हालात बदल गए हैं. महिलाओं की हिम्मत और मेहनत ने पानी भी दिया और ख़ुशहाली भी. 39 साल की शांति बताती हैं कि उन्होंने कितना कुछ सीखा.

मैंने सीखा कि हाथ धोना कितना ज़रूरी है. किस तरह से छोटे बच्चों को साफ रखा जाता है. और इसके लिए बहुत पैसे की ज़रूरत नहीं है. कैसे खाने को भी ऐसा रखा जाए कि वह सुरक्षित रहे. यह सब करने से मेरे घर में बीमारियां अब कम होती हैं.

यहां की औरतें ख़ास तौर पर मछुआरों के समुदाय से जुड़ी हैं, जिन्हें रूढ़ीवादी माना जाता है. लेकिन उन्हें साथ भी मिला है. नागापट्टनम में कई ग़ैर सरकारी संगठन महिलाओं की मदद के लिए आगे आए हैं. स्नेहा भी ऐसा ही एक संगठन है. इसी से जुड़े वी जेरोम बताते हैं.

हमने यह फैसला किया कि सुनामी से प्रभावित परिवारों को दिया जाने वाला पैसा सिर्फ़ महिलाओं को दिया जाए. क्योंकि हमने पहले देखा है कि पुरुष पैसे का गलत इस्तेमाल करते हैं, जुआ खेलते हैं. शराब पीते हैं. हमने महिलाओं को समझाया कि पैसा जमा करना कितना ज़रूरी है. कई महिलाएं अब हर महीने 100 रुपये बैंक में जमा करती हैं, उसका उन्हें ब्याज मिलता है जो बच्चों की परवरिश में फायदेमंद साबित हो रहा है.

सूनामी ने दुनिया के इस हिस्से पर काली छाया ज़रूर बनाई लेकिन इसके बाद ही यहां की महिलाओं को अपने बारे में सोचने और कुछ कर गुज़रने की इच्छा पैदा हुई. रिपोर्टें बताती हैं कि फिर से बसने की कोशिश में महिलाएं, पुरुषों से आगे हैं और वे यह काम पूरी ज़िम्मेदारी से निभा रही हैं. 99 प्रतिशत महिलाएं अपने कर्ज़ वक्त से चुका रही हैं और बच्चों को, घर को संभाल रही हैं. नागापट्टनम की चिन्नापुन्न ने सूनामी के बाद दस बकरियां ख़रीदीं. उन्होंने तेरह महिलाओं को जमा कर आगे बढ़ने का फैसला किया. कोई मछली बेचती है, तो कोई दूध. चिन्नापुन्न ने आगे का रास्ता तलाश लिया है. पीछे मुड़ कर नहीं देखना चाहतीं. सूनामी को भुला दिया है.

नागापट्टिनम ही नहीं, सूनामी से प्रभावित भारत के दूसरे हिस्से भी ऐसे ही दिखते हैं. पांच साल पहले की तस्वीर बदल चुकी है. सूनामी ने कई मौक़े भी पैदा किए हैं. विदेशी मदद से चल रही सहायता योजनाएं अब शक्ल लेने लगी हैं.

इस बात से संतोष होता है कि एक त्रासदी ने लोगों को आगे बढ़ना सिखाया. महिलाओं ने मुश्किल घड़ी में भी मौक़ा निकाल ही लिया है. जब सूनामी की आपदा में कवरेज के लिए यहां आई थी, तब लौटते हुए मेरे दिल में अपार दुख और चिंता थी, लेकिन पांच साल बाद यहां से जर्मनी की फ़्लाइट लेते हुए मन में संतोष और ख़ुशी की भावना है.