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सुरक्षा परिषद में जर्मनी को स्थायी सीट के आसार कम

२७ दिसम्बर २०११

पिछले साल जर्मनी दो वर्षों के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य चुना गया. लेकिन जर्मनी के लिए यह वक्त कितना फायदेमंद रहा, इस बात पर बहस अभी जारी है.

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पेटर विटिषतस्वीर: picture-alliance/dpa

विश्लेषकों का कहना है कि जर्मन अधिकारी भले ही अपने काम और व्यवस्था के लिए जाने जाते हों, लेकिन किसी मुद्दे पर अपनी तरफ से उसकी पहल थोड़ी कम होती है, और यह बात सुरक्षा परिषद के फैसलों में भी सामने आई. जहां तक संयुक्त राष्ट्र की सबसे मुख्य संस्था में स्थायी सदस्यता की बात है, उस मकसद को पाने में जर्मनी को बहुत वक्त लगेगा.

एक वीटो काफी है

सुरक्षा परिषद में सारे अहम फैसलों में पांच स्थायी सदस्यों, यानी रूस, चीन, अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन का बोलबाला है. एक वीटो से वह बाकी चार देशों के किसी भी फैसले को रोक सकते हैं. इसके चलते रूस और चीन ने सीरिया को हथियार बेचने के सिलसिले में हर तरह के फैसले को रोका.

लेकिन परिषद में पांच स्थायी सदस्यों के अलावा दस अस्थायी सदस्य भी शामिल होते हैं. इनमें से हर दो साल पर पांच देशों का परिषद में कार्यकाल समाप्त होता है. 2010 में जर्मनी की सदस्यता को संयुक्त राष्ट्र के 193 देशों में से दो तिहाई ने समर्थन दिया. इसकी वजह के तौर पर कहा जाता है कि दुनिया भर में जर्मनी पर लोग विश्वास करते हैं और जर्मनी का व्यवहार बाकी देशों के मुकाबले बहुत स्वाभिमानी नहीं है. 2010 में जर्मनी के अलावा भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका ने सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग की.

दूसरे विश्व युद्ध का अंतरराष्ट्रीय संयंत्र

Bundesaussenminister Guido Westerwelle Libyen
सुरक्षा परिषद में विदेश मंत्री गिडो वेस्टरवेलेतस्वीर: dapd

ज्यादातर लोगों का मानना है कि 1945 में विश्व सत्ताओं शक्ति संतुलन के आधार पर बना परिषद 21वीं शताब्दी की बदली हुई विश्व राजनीति को नहीं दर्शाता है. जर्मनी के संयुक्त राष्ट्र दूत पेटर विटिष भी इस बात का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि जर्मनी की एक और समस्या है: फ्रांस और ब्रिटेन दोनों सुरक्षा परिषद में हैं और कई देश मानते हैं कि सुरक्षा परिषद में पहले से ही यूरोप का दबदबा है.

विश्वभर के प्रतिनिधि मानते हैं कि जर्मनी संयुक्त राष्ट्र को वित्तीय सहायता देने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है और अंतरराष्ट्रीय विकास मदद देने में भी उसका बहुत बड़ा हाथ है. लेकिन अब सवाल यह उठ रहा है कि जहां भारत जैसा देश आर्थिक विकास और एक अरब की आबादी के साथ भविष्य में बहुत बड़ा योगदान देने की स्थिति में है, वहीं जर्मनी आने वाले दिनों में ऐसा क्या कर सकता है जिससे उसे स्थायी सदस्यता दी जाए?

क्या कर सकता है जर्मनी?

लेकिन विटिष मानते हैं कि जर्मनी की विदेश नीति हमेशा साझेदारी पर आधारित रही है और यह उसका सबसे बड़ा योगदान है. जर्मनी बहुपक्षीय समाधानों पर विश्वास रखता है क्योंकि 21वीं शताब्दी में परेशानियों को सुलझाना किसी एक देश के बस की बात नहीं.

जहां जर्मनी की स्थायी सदस्यता के खिलाफ कोई ठोस तर्क नहीं है, वहीं उसके पक्ष में भी कुछ ठोस बात नहीं. मगर विटिष कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन और युद्ध क्षेत्रों में बच्चों की सुरक्षा पर जर्मनी ने आवाज उठाई है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विश्लेषक खोसे लुइस दियास का कहना है कि सीरिया में जहां कुछ देश हिंसा और हथियार का साथ दे रहे हैं, वहीं जर्मनी इस बात को हर बार उठाता है. साथ ही जर्मनी हमेशा कहता है कि अपराधियों को अदालत में पेश किया जाना चाहिए.

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लीबिया में कार्रवाई के खिलाफ जर्मनीतस्वीर: picture-alliance/dpa

लेकिन जर्मनी केवल परोपकार के लिए मशहूर नहीं है. लीबिया में जब पश्चिमी देशों और नाटो ने मुअम्मर गद्दाफी के शासन को खत्म करने का फैसला लिया, वहीं जर्मनी ने लीबिया में हिंसा को समर्थन देने से मना किया और रूस और चीन के साथ हो गया. विटिष के मुताबिक सबने इसे एक स्वायत्त जर्मन फैसले के रूप में स्वीकार किया. संयुक्त राष्ट्र मामलों के एक जानकार के मुताबिक, "लेकिन यह ऐसा एक ही मौका था, जहां सबने कहा, देखो, जर्मनी को भी कुछ कहना है!"

जर्मनी की दो साल की अस्थायी सदस्यता का एक साल पूरा हो रहा है और संयुक्त राष्ट्र में सुधारों पर कोई नया फैसला नहीं हुआ है.

रिपोर्टः डीपीए/एमजी

संपादनः महेश झा

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