सीपीएम को बसु का सहारा
९ जुलाई २०१३बसु के जन्म शताब्दी वर्ष के दौरान पूरे साल विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजन के जरिए सीपीएम एक बार फिर अपनी कमजोर हो चुकी जड़ों को मजबूत करने का प्रयास कर रही है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि सीपीएम को अब अपने राजनीतिक पुनर्जन्म के लिए बसु का ही सहारा है. बसु के निधन के बाद सीपीएम में जो बिखराव शुरू हुआ वह अब तक नहीं रुका है. उनके मरने के साल भर बाद ही बंगाल में 33 साल की पुरानी सत्ता भी सीपीएम के हाथ से निकल गई.
करिश्माई व्यक्तित्व
बसु का व्यक्तित्व करिश्माई रहा है. अपनी खासियतों और राजनीति की वजह से सिर्फ वामपंथी ही नहीं बल्कि देश की राष्ट्रीय राजनीति में भी उनकी एक अलग पहचान थी. धुर राजनीतिक विरोधी भी बसु की खासियतों का लोहा मानते थे. इंदिरा गांधी से बसु का विरोध जगजाहिर था. लेकिन वह भी बसु की प्रशंसक थीं और राष्ट्रीय हित से जुड़े अहम मामलों में उनसे सलाह लेती थीं.
बसु को युवा पीढ़ी का भी रोल मॉडल कहा जाता है. बसु की मौत के बाद के तीन वर्षों में वामपंथी आंदोलन तो पटरी से उतर ही गया है, सीपीएम के वजूद पर भी सवाल उठने लगे हैं. सीपीएम की बंगाल प्रदेश समिति के सदस्य रबीन देव कहते हैं, "यह सही है कि पार्टी फिलहाल बुरे दौर से गुजर रही है. इसलिए हम बसु के आदर्शों व नीतियों के जरिए पार्टी को दोबारा मजबूती से संगठित करने का प्रयास कर रहे हैं."
यही वजह है कि सीपीएम ने अपने नियमों को बदलते हुए आठ जुलाई से शुरू हुए बसु के जन्मशती वर्ष के दौरान पूरे साल विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करने का फैसला किया है. अब तक सिर्फ वामपंथी नेता और संस्थापकों में से एक मुजफ्फर अहमद का ही जन्मदिन मनाने की परंपरा थी. सीपीएम नेता और पूर्व मंत्री मोहम्मद सलीम कहते हैं, "बसु किसी एक पीढ़ी तक सीमित नहीं थे. बसु देश में वामपंथी, लोकतांत्रिक और धर्मनिरेपक्ष ताकतों के प्रतीक बन गए थे."
राज्य के आम लोगों में सीपीएम के खिलाफ भले नाराजगी हो, बसु के प्रशंसकों की तादाद कम नहीं है. एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर सुकुमार बागची कहते हैं, "बसु जैसा दूसरा कोई करिश्माई नेता सीपीएम में है ही नहीं. उनके सक्रिय राजनीति से संन्यास लेते ही पार्टी का बिखराव शुरू हो गया."
विभिन्न कार्यक्रम
बसु के जन्मदिन के मौके पर सुबह विधानसभा में सरकार की ओर से एक श्रद्धांजलि समारोह आयोजित किया गया. बसु के नाम लंबे समय (49 साल) तक इस सदन का सदस्य रहने का रिकार्ड दर्ज है. इस मौके पर बसु के नजदीकी सहयोगी रहे पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने उनकी खासियतों को याद करते हुए कहा, "बसु विधायिका को लोकतंत्र का मंदिर मानते थे." चटर्जी ने अतीत के पन्ने पलटते हुए कहा कि जब वह राजनीति में आए तो बसु ने कहा था कि यह लोगों की सेवा करने का सबसे बेहतर मंच है.
तृणमूल कांग्रेस के सांसद सौगत राय कहते हैं, "बसु चाहते तो आसानी से लोकसभा चुनाव जीत कर राष्ट्रीय राजनीति में जा सकते थे. लेकिन उन्होंने राज्य में ही रहने का फैसला किया. पार्टी के प्रति बसु की यह निष्ठा अनुकरणीय है." राय ने कहा कि राजनीति में लंबी छलांग लगाने का प्रयास करने वालों को बसु के त्याग से सीखना चाहिए. संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने में उनकी भूमिका बेहद अहम रही है.
इससे पहले महिलाओं, मानसिक विकलांगों और बच्चों ने महानगर के साल्टलेक स्थित बसु के आवास इंदिरा भवन से सुबह एक रैली निकाली. रैली में शामिल लोगों ने अपने हाथों में बसु की तस्वीरें और पोस्टर ले रखा था. शाम को महानगर में सीपीएम की ओर से बसु की याद में एक और समारोह आयोजित किया गया. वहां पार्टी महासचिव प्रकाश करात समेत तमाम वक्ताओं ने बसु की राजनीति, राजनय और व्यक्तित्व के दूसरे पहलुओं का जिक्र किया.
राजनीतिक सफर
आठ मई, 1914 को जन्मे बसु लंदन से बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के बाद 1940 में सीपीआई में शामिल हुए. रेलवे की ट्रेड यूनियन का काम संभालने वाले बसु 1946 में पहली बार बंगाल विधानसभा के सदस्य चुने गए. सीपीआई के विभाजन के बाद वह सीपीएम की पोलित ब्यूरो व केंद्रीय समिति के संस्थापक सदस्य बने.
बसु 1977 से लगातार 23 साल तक मुख्यमंत्री रहे. स्वास्थ्य खराब होने की वजह से उन्होंने छह नवंबर, 2000 को स्वेच्छा से कुर्सी छोड़ दी. वह 1996 में केंद्र की गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए थे. सीपीएम नेतृत्व ने उनको प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया. बाद में बसु ने इस फैसले को ऐतिहासिक गलती करार दिया था. उनका निधन 17 जनवरी, 2010 को हुआ.
अपने जीते-जी वामपंथी दलों को एकसूत्र में बांधे रख कर लगातार 33 साल तक बंगाल की सत्ता पर काबिज रखने और राष्ट्रीय राजनीति में वामपंथी दलों की अहमियत बनाने का करिश्मा बसु जैसा नेता ही कर सकता था. शायद यही वजह है कि बसु की जन्मशती के बहाने सीपीएम और उसकी सहयोगी पार्टियां एक बार फिर उनके सहारे अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास कर रही हैं.
रिपोर्ट: प्रभाकर, कोलकाता
संपादन: महेश झा