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साहित्य और अड्डेबाज़ी

Ujjwal Bhattacharya१७ अप्रैल २००९

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक विष्णु प्रभाकर का देहांत हो गया. वे साहित्यिकारों के बीच अड्डेबाज़ के रूप में जाने जाते थे. वैसे यह परंपरा सारी दुनिया में अलग-अलग रूपों में पाई जाती है.

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मशहूर हैं गोएथे और शिलर के अड्डेतस्वीर: picture-alliance/dpa

जर्मनी के ट्युबिंगेन शहर में एक छोटी सी किताब की दुकान थी, और उसी दुकान के हिस्से के तौर पर ऊपरी मंज़िल में एक कहवाखाना, जहां प्रसिद्ध आलोचक वाल्टर येंस और हांस मायर अड्डेबाज़ी में अपनी शामें गुज़ारते थे. दुकान की मालकिन को किताबों के बारे में बहुत अधिक पता नहीं था, लेकिन दोनों आलोचक अपनी बातचीत में जिन किताबों का ज़िक्र करते थे, वह उन्हें नोट कर लेती थी, और दुकान के लिए आर्डर करती थी. और दुकान अच्छी चलती थी. इस छोटी सी घटना से पता चल जाता है कि साहित्यिक बातचीत और अड्डेबाज़ी से फ़ायदे का दायरा कहां तक जा सकता है. हर देश के साहित्य में हमें इस परंपरा का परिचय मिलता है. सैमुएल जॉनसन के अड्डेबाज़ जीवन पर जेम्स बॉसवेल की किताब मशहूर है. ऐसी ही बातचीत को गोएथे के निजी सचिव एकरमान्न ने अपनी अमर पुस्तक जीवन के अंतिम दिनों में गोएथे के साथ बातचीत में अपना विषय बनाया है. बाद में जर्मन आलोचक वाल्टर बेन्यामिन अपने साहित्यकार मित्रों के साथ अड्डेबाज़ी के लिए मशहूर रहे हैं. ज़्यां पॉल सार्त्र और उनके अस्तित्ववादी मित्रों की काफ़ीहाउस की अड्डेबाज़ी ने पेरिस के साहित्यिक माहौल पर निर्णायक प्रभाव डाला.

भारत में यूं तो गांव में बरगद या नीम के पेड़ के नीचे चौपाल की लंबी परंपरा रही है, लेकिन आधुनिक साहित्यिक अड्डेबाज़ी का दौर उन्नीसवीं सदी में कलकत्ता में शुरू हुआ. कलकत्ते में कॉलेज स्ट्रीट काफ़ी हाउस की अड्डेबाज़ी एक किंवदंती बन चुकी है, साठ के दशक में हंग्री जेनरेशन के कवियों ने इसे एक नए आयाम तक पहुंचाया था. शरद देवड़ा ने अपने उपन्यास कॉलेज स्ट्रीट के नए मसीहा में इसकी तस्वीर खींचने की कोशिश की थी. इन्हीं दिनों इस ऐतिहासिक कॉफ़ी हाउस को नई सज्जा के साथ पेश करने की कोशिश की गई है. इस अवसर पर वहां बांगला के प्रसिद्ध लेखक व साहित्य अकादमी के अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय, कवि और आलोचक शंख घोष और राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी भी उपस्थित थे.

अड्डे का मूल चरित्र उसकी स्वतःस्फ़ूर्तता में निहित है. रवींद्रनाथ की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए कहा जा सकता है - जाने का वक्त आए तो चले जाओ, फिर आना हो तो आ जाना. बंगला के अनेक लेखकों की तरह शरतचंद्र अड्डेबाज़ थे, उनकी अमर जीवन कथा आवारा मसीहा के लेखक विष्णु प्रभाकर जी भी अड्डे के प्रेमी थे. हर शनिवार को वे कॉनट प्लेस मोहन सिंह प्लेस के काफ़ी हाउस में पहुंचते थे. विष्णु प्रभाकर जी चले गए, वे फिर से लौटकर नहीं आएंगे. दिल्ली में जब हम काफ़ी हाउस की अड्डेबाज़ी की सीन के बारे में सोचते हैं, तो मोहन सिंह प्लेस काफ़ी हाउस का माहौल अब ज़रूर सूना हो जाएगा. वैसे महाभारत की कहानी भी तो शौनक मुनि के अड्डे में सौती की बातों से शुरू होता है. अगर यह परंपरा इतने दिनों तक ज़िंदा रही, आगे भी चलती रहेगी. शायद उसका रूप बदलेगा. क्या फ़र्क पड़ता है?

लेखक - उज्ज्वल भट्टाचार्य

संपादन - प्रिया एसेलबॉर्न