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सचिन तेंदुलकर: सफलता और सवाल

शिवप्रसाद जोशी (संपादनः एस गौड़)१५ नवम्बर २००९

सचिन तेंदुलकर एक निर्विवाद शख़्सियत हैं. वो एक चतुर खिलाड़ी हैं. क्रिकेट के मैदान पर, बाघ की तरह चपल, चौकन्ने और सजग. मैदान के बाहर भी अपनी सौम्यता, मृदुभाषिता और विनम्रता में उतने ही कुलीन और नफ़ीस.

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क्रिकेट में शास्त्रीयता की प्रतिमूर्तितस्वीर: AP

सचिन की यह एक मानवीय पॉलिटिक्स है. वो देश के हीरो हैं, अपने चाहने वालों के बीच में ईश्वर सरीख़े हैं. ऐसा ईश्वर जो किसी का दुख औऱ मुश्किल तो हल नहीं कर पाता लेकिन एक मीठे मदहोश अनिर्वचनीय आनंद का अवसर मुहैया करा देता है. जो काम अमिताभ और शाहरूख़ फ़िल्म के पर्दे पर करते हैं वही सचिन मैदान में अपने बल्ले से करते हैं. फ़र्क ये है कि शहंशाह और बादशाह कहे जाने वाले ये दोनों फ़िल्मी अभिनेता अपने दुश्मनों पर टूट पड़ने की बेहतरीन एक्टिंग कर रहे होते हैं जबकि सचिन वाकई चौके छक्के या शतक जड़ रहे होते हैं या रन लेते हुए या गेंद झेलते हुए या कैच थामते हुए गिर रहे होते हैं, चोट खा रहे होते हैं. वो मैदान पर वाकई लहुलूहान और धूल धूसरित होते हैं.

जीत की उनकी हुंकार वाकई असली होती है, उनका शौर्य वास्तविक होता है. लिहाज़ा आम लोगों को सचिन में वास्तविक हीरो नज़र आता है. ज़ाहिर है अमिताभ और शाहरूख़ जैसे फ़िल्मी दिग्गजों को इसमें कोई आपत्ति भला क्यों हो. सचिन को खिलाड़ियों का खिलाड़ी मानने वालों में वे भी शामिल हैं ही. सचिन ने समूचा समय क्रिकेट को दिया और फिर मेहनत और लगन से हासिल क़ामयाबी के दौर के बाद क्रिकेट से जुड़े कारोबार को. क्रिकेटीय विज्ञापनों में सचिन नंबर वन हैं, वे बड़े रईस हैं और एक दिलचस्प सर्वे पिछले दिनों किया गया जिसमें उन्हें खेल जगत का सबसे प्रसन्न, सबसे स्वस्थ व्यक्ति आंका गया.

विलंबित से द्रुत की उठान का खेल

सचिन का खेल व्यक्तित्व उनके समूचे व्यक्तित्व का ही एक अंश है. वह एक नर्वसनेस के साथ क्रीज़ पर उतरते हैं और धीरे धीरे ख़ुद को खेल में रमा देते हैं. वह क्रिकेट में शास्त्रीयता के झंडाबरदार हैं. संगीत के सहारे से कहें तो वे ऐसे घराने के गवैये या वादक सरीखे हैं जो अपनी घरानादार क्लासिकी परंपरा को कभी नहीं छोड़ता. संगीत में शास्त्रीयता और कला में इसी चीज़ के सौंदर्य की जो मिसालें हम अपने आसपास बामुश्किल देख पाते हैं क्रिकेट जैसे खेल में सचिन की वजह से वह सहजता से दिखती रहती है. इसलिए कभी कभी उन्हें मास्टर ब्लास्टर कहना भी जैसे सचिन की खेल धीरता और उनके खेल राग में कुछ अतिरंजना मिलाना जैसा लगता है.

वे ब्लास्टर हैं लेकिन इससे पहले वो सर्जक हैं. वे ध्वंस करने से पहले एक रचियता भी हैं. और यही क्रिकेट में सचिन की विलक्षणता है. इसीलिए उनकी तुलना डॉन ब्रैडमैन से की जाती है. सचिन का रनो का अंबार, उनकी ऊर्जा और उनका अटूट उत्साह उन्हें इस खेल का विशिष्ट रचनाकार बनाता है. सचिन के खेल की तुलना संगीत से करना भले ही एक नज़र में अटपटा लगेगा लेकिन आप पाएंगे कि सचिन के मैदान में उतरने से लेकर, गार्ड लेने, खेल शुरू करने और पहले रन के लिए भागने और एक लंबी पारी खेलने तक का सिलसिला, बिल्कुल शास्त्रीय गायकी या वादन में किसी धुरंधर की पर्फ़ोर्मेंस की तरह दिखता है.

Indian cricketer Sachin Tendulkar
तस्वीर: AP

एक आलाप, एक बढ़त, एक दीर्घ तान, सरगम की अठखेलियां, बंदिश का विलोप और फिर सहसा एक बंदिश की नई लकीर, एक द्रुत की स्टार्ट और उसकी गति. जो सचिन का खेल नज़दीक से देखते हैं वे जानते हैं कि कैसे सचिन 50 रन के बाद अचानक उग्र और चपल गति से भर उठते हैं. कैसे वे सहसा किसी मोड़ पर रुके रहते हैं, कैसे वे एक दिनी मैचों में और कैसे टेस्ट मैचों में अपने रनों का निर्माण करते हैं. संगीत में जिसे हम आलाप जोड़ और झाला के रूप में जानते हैं,

सचिन की बैटिंग में वे चीज़ें झरती हैं. क्रिकेट में संगीत जैसी दुर्लभ कलात्मकता का अनुभव पैदा करने वाले शायद वो अकेले जीवित खिलाड़ी कहे जा सकते हैं. अन्य खेलों के समकालीन दिग्गजों में टेनिस जगत के स्टार रोजर फेडरर में ही ये जादू दिखता है. उसी टेनिस की स्टेफ़ी ग्राफ़ भी ऐसे ही कलात्मक स्पर्श भरे खेल के लिए जानी जाती रही हैं

लेकिन अगर आप सचिन से यह पूछेंगे तो उनका सौम्य जवाब यही होगा कि आपको संगीत दिखता होगा मैं क्रिकेट को क्रिकेट की तरह ही खेलता हूं. लेकिन ये उनकी विनम्र शिष्टता ही होगी. एक कलात्मक ऊंचाई की तुलना के लिए आपको वैसी ही या उससे बड़ी कलात्मक ऊंचाई की ज़रूरत होती है. इसीलिए सचिन के क्रिकेट में संगीत नज़र आता है तो ये कोई अस्वाभाविक बात नहीं है.

अपनी महानता के साए में

सचिन तेंदुलकर महानता के शिखर पर हैं, इसमें क्या शक हो सकता है. लेकिन इसी शिखर पर खड़े सचिन के व्यक्तित्व के सामने अब कुछ सवाल भी हैं. वो खेल के मैदान के बाहर एक करोड़पति व्यापारी हैं, मुंबई में उनका भव्यतम होटल है, सबसे ज़्यादा टैक्स भरने वाले खिलाड़ी हैं, क़रीब 35 करोड़ रुपए के दिव्य बंगले में रहते हैं, महंगी आलीशान कारें रखते हैं, महंगे शौक रखते हैं और क्रिकेट के विज्ञापन कारोबार में उनका दबदबा है.

उनके आलोचक कहते हैं कि सचिन शायद अपने ही आकाश के नीचे एक छाया हो गए हैं, अपनी ही महानता के साए में घूमने को विवश हैं. वे खेल के मैदान के बाहर अपने ग्लैमर, चमक और भव्यता का एक अनोखा दिलकश नज़ारा हैं. वे जितने वास्तविक क्रिकेट के मैदान पर हैं उतने ही फ़िल्मी झिलमिल जैसी स्वप्निलता और मोहकता के नकली बाजीगर सरीखे मैदान के बाहर हैं.

उनके आलोचक कहते हैं कि सचिन जैसा व्यक्ति अगर किसी बड़ी त्रासदी के वक़्त ख़ामोश रहता है तो यह नाइंसाफ़ी है.कि सचिन बाढ़, तूफ़ान, बीमारी, और दंगों जैसी विभीषिकाओं में तत्पर जवाबदेही के साथ आगे नज़र नहीं आते. लेकिन सवाल यह भी बनता है कि आखिर सचिन से ये अपेक्षा की ही क्यों जाए. वे अपने खेल धर्म का निर्वाह कर रहे हैं और यही उनकी ज़िम्मेदारी है, इससे आगे क्या. लेकिन बाज़ार और समाज संस्कृति के ये तीव्र विरोधाभास और पेचीदगियां है कि वे पहले नायक की तलाश करती हैं, उन्हें गढ़ती हैं, फिर उनसे लगातार मांग करती रहती हैं.

मास कल्चर अगर सचिन को लगातार टीवी विज्ञापनों में, फ़िल्मी रीलों में, शूटिंग्स में, फ़ैशन शो में, फ़िल्मों के उदघाटनों में, पांच सितारा दावतों में, बहसों और बड़े आयोजनों में देखते या दिखाते रहना चाहता है तो भारत जैसे देश के पॉप्यूलर कल्चर का एक बड़ा तबका भी सचिन से एक सामाजिक भूमिका निभाते रहने की अपेक्षा कर रहा होता है. अपार लोकप्रियता अचानक ही सार्वजनिक दायित्व निभाने की मांग भी मत्थे मढ़ देती है. लेकिन होता क्या है कि इस दायित्व को कोई ठीक ठीक समझे इससे पहले बाज़ार उचक कर आगे आ जाता है.

बाज़ार के बरक्स सचिन

यह नहीं भूलना चाहिए कि खेल की दुनिया में और ख़ासकर क्रिकेट में भारत जैसे देश में जिस तरह बाज़ार की दख़ल बढ़ी है और क्रिकेट देखने वाला उसे चाहने वाला कोई सामान्य दर्शक नहीं रहा, बल्कि क्रिकेट का दर्शक अब बाज़ार की भाषा में क्रिकेट का उपभोक्ता भी है, इस अरबों रुपये के बाज़ार में क्रिकेट अगर एक कमोडिटी बना दिया गया है तो खिलाड़ी कारोबारी बना दिए गए हैं और दर्शक उपभोक्ता और क्रिकेट संस्थान कंपनियों का रोल निभा रहे हैं. बीस साल से मैदान पर पसीना बहा रहे सचिन से बेहतर कौन भला इस बात को और इस बदलाव को समझ सकता है. क्रिकेट में चकाचौंध फ़िल्मी दुनिया की झिलमिलाहटों से कमतर नहीं.

ये अनायास नहीं हुआ कि क्रिकेट और बॉलीवुड कहा जाने वाला हिंदी मुख्यधारा का सिनेमाई उद्योग अब कंधे से कंधा रगड़ता नज़र आता है. ये अध्ययन अभी विस्तार से किए जाने बाकी है कि मुनाफ़े की इस अविश्वसनीय खान में क्रिकेट का मैदान कहां सिकुड़ गया है. और पिछले दो दशकों में सचिन जैसी कितनी प्रतिभाएं भारत जैसे देश में उभरी हैं. वे दो दशक जो सचिन की मेहनत और क़ामयाबी के दशक हैं. पिच खोदने की घिनौनी सांप्रदायिकता भारत में देखी गई है और एक विंडबना भरा माहौल ये आ गया है कि पिच खोदे बिना ही आप एक सोने की ख़ान देख लेते हैं.

क्रिकेट के इस हर दिन ऊंचा और ऊंचा उठते दानवी बाज़ार में लिटिल मास्टर कहे जाने वाले सचिन अभी बने हुए हैं, ये गनीमत मानी जानी चाहिए. इस चिंता के साथ कि क्रिकेट की ये अभूतपूर्व बुलंदियां आखिर किन आदर्शों और किन खेल नैतिकताओं और किन खेल विलक्षणताओं को दबाकर उठी हैं. इस चिंता के साथ भी कि सचिन जैसे क्रिकेटीय आदर्श क्या इस बुलंदी को खेल की तरक्की का एक मापदंड मानते रहेंगे.

बीस साल के क्रिकेट करियर के बाद सचिन के व्यक्तित्व का मूल्यांकन करते हुए इसीलिए ये स्वाभाविक है कि आपको सहसा भारतीय उपमहाद्वीप के क्रिकेट के विकास और उसमें बाज़ार के प्रवेश का भी ज़िक्र करना होता है. लेकिन एक संतोष ये है कि इस बाज़ार में भी सचिन कुछ मौकों पर अपनी शर्तों के साथ प्रकट होते हैं. बताया जाता है कि उन्होंने एक विज्ञापन में बदली हुई पटकथा के बाद ही काम करना स्वीकार किया. मूल स्क्रिप्ट में उन्हें लग रहा था कि उन्हें खेल से बड़ा करके पेश किया जा रहा है. चारों ओर चौके छक्के लगाता हुआ. जबकि सचिन ने बदलावों के बाद जिस विज्ञापन में हिस्सा लिया उसमें वो गेंद को आधी सहजता आधी अधीरता के साथ खेल रहे हैं और आउट भी हो रहे हैं.

तो ये सचिन के खेल विवेक के बारे में बताती हैं. जैसे बैंडमिटन के भारतीय सितारे पुलेला गोपीचंद ने ये कहकर कोल्ड ड्रिंक्स के विज्ञापन करने से मना कर दिया क्योंकि वो उन्हें पीने या किसी को पीने की सलाह देने के सिद्धांत रूप से ख़िलाफ़ हैं. ये एक निजी राजनीतिक विवेक होता है जो खिलाड़ियों के भीतर स्टार हो जाने के बाद भी रह सकता है. लेकिन जिसकी कितनी घोर कमी भारत जैसे देशों में देखी जा सकती है.

बाज़ार, महानता और हस्तक्षेप

और यहीं उस बहस का सूत्र भी छिपा है कि आखिर एक खिलाड़ी से आप क्या सामाजिक अपेक्षा रखते हैं. बीसवीं सदी के आखिरी दशकों से और इक्कीसवीं सदी के इन शुरूआती वर्षों में सचिन तेंदुलकर क्रिकेट खेल के अन्यतम प्रस्थान बिंदु है. क्रिकेट और उनकी शख़्सियत घुलीमिली है. सचिन के खेल करियर के विकास के साथ ही क्रिकेट में आए महा बदलावों की चर्चा का औचित्य इसीलिए बनता है. सचिन बीस साल के निजी क्रिकेट जीवन के लिए ही इस समय याद नहीं किए जा रहे, वे अपने करियर से गुंथे हुए क्रिकेटीय परिवर्तनों के लिए भी याद किए जा रहे हैं. सचिन के खेल व्यक्तित्व के साथ अगर आप क्रिकेट की फ़िलॉसफ़ी देखेंगे तो उसी व्यक्तित्व की रोशनी में क्रिकेट का बाज़ार भी देखना होगा.

लेकिन शायद खेल की दुनिया में वह मौक़ा नहीं आया जो हम बौद्धिक जगत में देख रहे हैं, जहां एक बुद्धिजीवी तबका कॉलेजो, संस्थानों, विश्वविद्यालयों और व्याख्यानों तक सीमित है जबकि उसी बिरादरी के कुछ लोग सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका का निबाह कर रहे हैं. वे अपनी समस्त रचनात्मक ऊर्जा के साथ एक बीहड़ दुनिया में रगड़ खा रहे हैं. बाज़ार की एक रगड़ से करोड़ों कमा देने वाले सचिन तेंदुलकर शायद इस रगड़ से अभी अपरिचित हैं. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहे जाने वाले देश भारत में आख़िर ये सवाल तो पूछा ही जाना है कि निजी महानताएं जो ऐश्वर्य रचती हैं वो कितना स्थायी होता है और उसका देश की बहुसंख्यक आम जनता से कितना गहरा सरोकार होता है.

मैं हमेशा पहले भारतीय हूं हालांकि मुझे महाराष्ट्र का होने पर भी गर्व है. देर से ही सही सचिन तेंदुलकर ने क्षेत्रवाद की आग में हाथ सेंकने वालों को एक करारा जवाब दिया है. हो सकता है ख़ुद को मराठी मानुष कहने वाले राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के कारिंदे कुछ उत्पात इस बयान पर भी कर दें लेकिन इसकी संभावना ज़रा कम ही है. सचिन खेल जीवन से हासिल की हई अपनी महानता के शायद उस बिंदु पर आ गए हैं जहां उनके समक्ष खेल के मैदान के बाहर की चुनौतियां ज़्यादा दरपेश हैं और उनकी महानता की असल परीक्षा का दौर भी शायद यही है.

दो दशक के क्रिकेट जीवन के बाद सचिन सिर्फ़ क्रिकेट के ही महानायक नहीं रह जाते वे अपने चाहने वालों, एक समाज, एक देश और एक अस्मिता के प्रतीक पुरुष भी बन जाते हैं. अपने रचना कर्म के गहन अंधकार और भयावह अकेलेपन में शख़्सियत बनानी पड़ती है लेकिन इस शख़्सियत की अद्भुत चमक का दौर आता है तो समाज और वर्ग उससे हिस्सा चाहते हैं. क्रिकेट जैसे रौनक भरे खेल के नायक सचिन तेंदुलकर उसी दौर में पहुंच गए हैं. देखना यह है कि अपने व्यक्तित्व की ये चमक वो किसके साथ और किस रूप में शेयर कर रहे हैं.