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शैक्षणिक परिसरों को हिंसामुक्त करने की पहल

प्रभाकर मणि तिवारी
९ जून २०१७

हिंसक छात्र राजनीति के लिए बदनाम रहे पश्चिम बंगाल में अब तस्वीर बदलने वाली है. अब तमाम कालेजों और विश्वविद्यालयों में होने वाले छात्र संघ चुनावों को राजनीति से मुक्त रखने का फैसला किया गया है.

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Presidency University in Kalkutta
तस्वीर: DW/Prabhakar Mani Tewari

पश्चिम बंगाल के यूनिवर्सिटी चुनावों में कोई भी गुट किसी राजनीतिक दल के बैनर तले चुनाव नहीं लड़ेगा. शैक्षणिक परिसरों में बढ़ती हिंसा पर अंकुश लगाने के लिए राज्य सरकार ने इस बारे में एक ब्लू प्रिंट तैयार किया है. इसके तहत छात्र संघ चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार किसी राजनीतिक दल के झंडे या पोस्टरों का इस्तेमाल नहीं कर सकते. राज्य में बीते कुछ वर्षों से छात्र संघ चुनावों में हिंसा व बमबाजी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. इनमें कई छात्रों की मौत भी हो चुकी है. यही नहीं, अब चुनाव लड़ने के लिए किसी उम्मीदवार की क्लास में 60 फीसदी हाजिरी जरूरी होगी. साथ ही आपराधिक रिकार्ड वाले छात्र चुनाव नहीं लड़ सकेंगे.

सरकार के इस फैसले पर विवाद भी हो रहा है. विपक्षी राजनीतिक दलों ने इसकी आलोचना की है. यह संयोग ही है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, सीपीएम सांसद मोहम्मद सलीम, लेफ्टफ्रंट अध्यक्ष विमान बोस और पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रिय रंजन दासमुंशी समेत बंगाल के दर्जनों नेता छात्र राजनीति के जरिए ही मुख्यधारा में आए हैं.

राजनीतिक रंग नहीं

ममता बनर्जी सरकार ने पश्चिम बंगाल विश्वविद्यालय और कालेज (प्रशासन व नियमन) अधिनियम 2017 के तहत इसी सप्ताह छात्र संघ चुनावों से संबंधित नए नियम तय किए हैं. इसके तहत राजनीतिक पार्टियों के बैनर तले चुनाव लड़ने या उनके झंडे और पोस्टर लगाने पर तो पाबंदी लगा ही दी गई है छात्र संघ का नाम बदल कर छात्र परिषद कर दिया गया है. साथ ही इसके लिए दो साल की मियाद तय की गई है. ममता बनर्जी ने इससे पहले हर साल छात्र संघ चुनाव कराने के औचित्य पर सवाल उठाया था. नए नियमों के तहत चुनाव की पूरी प्रक्रिया एक महीने के भीतर पूरी करनी होगी. अब हर कक्षा से दो की बजाय एक ही प्रतिनिधि चुना जाएगा जो छात्र परिषद के पदाधिकारियों का चुनाव करेंगे.

शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी कहते हैं, "छात्र प्रतिनिधियों की तादाद प्रति कक्षा एक करने से चुनाव में राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप खत्म हो जाएगा." वह बताते हैं कि सरकार आगे चल कर छात्र प्रतिनिधि के चुनाव की प्रणाली भी खत्म कर देगी. मौजूदा व्यवस्था के तहत ज्यादातर कालेजों व विश्वविद्यालयों में छात्र अपनी कक्षा का प्रतिनिधि चुनते हैं. बाद में उनमें से ही संघ के पदाधिकारी चुने जाते हैं. शिक्षा मंत्री कहते हैं, "अब हर छात्र परिषद में कोषाध्यक्ष का पद एक शिक्षक के पास होगा. छात्रों के हाथों में धन होना ही शैक्षणिक परिसरों में हिंसा की एक बड़ी वजह है. इसी तरह कालेज के प्रिंसिपल ही परिषद के अध्यक्ष होंगे."

Studenten Protest Gewerkschaft
तस्वीर: DW/Prabhakar Mani Tewari

विपक्ष खफा

सरकार के ताजा फैसले से विपक्षी राजनीतिक दलों में भारी नाराजगी है. उसने इसे एक नाटक करार देते हुए कहा है कि जब तक छात्र तृणमूल कांग्रेस की धमकियों से बिना डरे चुनाव में हिस्सा नहीं ले पाते तब तक तमाम सुधार बेमानी हैं. सीपीएम से जुड़े छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन आफ इंडिया (एसएफआई) की प्रदेश अध्यक्ष मधुजा सेन राय कहती हैं, "राज्य के ज्यादातर कालेजों व विश्वविद्यालयों में वर्ष 2011 के बाद चुनाव ही नहीं हुए हैं. विरोधी गुट के छात्रों को नामांकन पत्र भरने पर तृणमूल कांग्रेस नेताओं की धमकी का सामना करना पड़ता है." वह कहती हैं कि जब तक छात्र संघ चुनाव मुक्त व निष्पक्ष नहीं होंगे, तमाम सुधार महज नाटक ही साबित होंगे. मधुजा कहती हैं, "कोई भी चीज राजनीति से अछूती नहीं हो सकती. अगर 18 साल से ज्यादा उम्र वाले छात्र अपने मताधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं तो अपनी कक्षा का प्रतिनिधि क्यों नहीं चुन सकते?" उन्होंने दूसरे वाम व लोकतांत्रिक छात्र संघों के साथ इस मुद्दे पर सड़क पर उतरने की धमकी दी है.

कई पूर्व प्रोफेसरों ने भी नए नियमों की आलोचना की है. प्रेसीडेंसी के पूर्व प्रिंसिपल अमल मुखर्जी कहते हैं, "छात्रों को अपनी राजनीतिक विचारधारा अभिव्यक्त करने की अनुमति होनी चाहिए. छात्र संघ चुनावों के जरिए ही वह लोकतंत्र की बारीकियां सीखते हैं." वह कहते हैं कि 60 फीसदी हाजिरी वाला प्रावधान तो ठीक है. लेकिन आपराधिक रिकार्ड वाले छात्रों को चुनाव लड़ने से वंचित करना दोहरे मापदंड का सबूत है. यहां कितने ही राजनेताओं का आपराधिक रिकार्ड है.

छात्र खुश

नए नियमों से छात्रों का एक बड़ा वर्ग प्रसन्न है. महानगर के जयपुरिया कालेज के एक छात्र आशुतोष कहते हैं, "राजनीतिक झड़पों की वजह से अक्सर कक्षाएं स्थगित हो जाती हैं. राजनीतिक दलों के दूर रहने पर चुनावों में ज्यादा छात्रों की भागीदारी सुनिश्चित हो सकेगी." एक अन्य कालेज छात्रा सुमन गोस्वामी कहती है, "हर हफ्ते दो गुटों के झगड़े की वजह से दो या तीन दिन कक्षाएं नहीं लगतीं. हमें कोचिंग का सहारा लेना पड़ता है. उम्मीद है अब तस्वीर सुधरेगी."

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि हाल के वर्षों में शिक्षण संस्थानों में हिंसा की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं और ज्यादातर मामलों में तृणमूल कांग्रेस की ओर ही संदेह की अंगुली उठती है. इससे उसकी छवि पर बट्टा लगा है. यही वजह है कि सरकार ने अब इस मुद्दे पर ध्यान दिया है. पर्यवेक्षकों की राय में नए नियमों को अमली जामा पहनाने पर ही इसका मकसद पूरा होगा.

रिपोर्टः प्रभाकर