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शिक्षा पर और संसाधन लगाने की जरूरत

२७ जून २०१२

शिक्षा जीवन की तैयारी ही नहीं करवाती बल्कि पढ़ाई जीवन है. इस जीवन के लिए आर्थिक सहयोग और विकास संगठन ओईसीडी क्या सहयोग दे रहा है, खासकर विकासशील देशों के लिए. इस गोष्ठी में फिक्की निदेशक शोभा मिश्रा घोष ने हिस्सा लिया.

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तस्वीर: AP

फिक्की क्या है और देश में शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा और रोजगार की क्या हालत है इस बारे में आंकड़ों के साथ शोभा मिश्रा घोष ने अपने लेक्चर की शुरुआत की. कॉफ्रेंस के बाद डॉयचे वेले हिन्दी ने फिक्की की डायरेक्टर, शोभा मिश्रा घोष से बातचीत की.

वैश्विक संदर्भ में आप भारत की शिक्षा व्यवस्था को कैसे देखती हैं.

घोषः आज मैंने जब दूसरे लोगों सुना तो जर्मन शिक्षा प्रणाली और स्वीडन की शिक्षा व्यवस्था के बारे में जाना तो समझ में आया कि हमारे यहां की स्थिति जितनी खराब नहीं है जितनी दिखती है. ज्यादा खराब इसलिए दिखता है क्योंकि हमारा दायरा बहुत बड़ा है. इसीलिए जब आप गिनती करने बैठ जाते हैं तो वो बहुत ज्यादा अखरता है. लेकिन मुद्दे और चुनौतियां करीब करीब सभी देशों में एक जैसी हैं.

फिक्की के निदेशक होने के नाते आप शिक्षा के लिए क्या कर रहे हैं.

घोषः हम लोग कई स्तर पर काम करते हैं.हम लोग सरकारी और प्राइवेट दोनों के साथ मिलकर काम करते हैं. प्राइवेट शिक्षण संस्थान से बात करके हम लोग तय करते हैं कि कहां पर दिक्कत है. इसके बाद सरकार को इस बारे में बताते हैं.

Indien Bildung für alle
तस्वीर: AP

भारत में एक समान शिक्षा व्यवस्था की बात तो खूब की जाती है लेकिन जब बात लागू करने की होती है तो देखा गया है कि काफी अंतर है.शहरी लोगों को बेहतरीन शिक्षा मिलती है जबकि ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोगों को उतनी अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाती. समस्या कहा हैं?

घोषः लागू करने में तो दिक्कत तो है ही. गुणवत्ता में अंतर इसलिए है कि संसाधन नहीं है. जितने संसाधन डाले जाएंगे उतनी ही गुणवत्ता बढ़ेगी. दूसरा कारण जिम्मेदारी का है. अगर नीति की बात करें तो हमारे यहां शायद दुनिया की सबसे अच्छी नीति है. हम संसाधन के स्तर पर मार खाते हैं. जो सरकारी संस्थान हैं वहां जिम्मेदारी का आभाव है. प्रशासन ठीक नही हैं. निजी क्षेत्र की बात करें तो वहां लाभ कमाने की भावना हावी रहती है.

निजी स्कूलों को तो कोर्ट ने भी आदेश दिया था कि वो गरीब बच्चों को प्रवेश देंगे लेकिन यह प्रभावी तौर से लागू नहीं हो सका.

घोषः सवाल टालने का नहीं है. इस मसले पर कदम उठाने की जरूरत है. कागज पर तो नियम बनाते वक्त बहुत अच्छा लगता है कि हमारे यहां शिक्षा का अधिकार सबको है निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत बच्चे झुग्गी झोपड़ी से आएंगे ये सुनना अच्छा लगता है लेकिन ये यूं ही नहीं होता. इसका सामाजिक आर्थिक असर भी पड़ता है.जहां बेहद अमीर तबके के बच्चे आ रहे हैं वहां अगर किसी गरीब बच्चे को पढ़ने के लिए भेजेगे तो उसे हीनता का अहसास तो होगा ही. क्योंकि नीति निर्धारण से बच्चों का व्यवहार नियंत्रित नहीं किया जा सकता.उसके लिए अलग से समाधान ढूंढ़ने होंगे. पता नहीं ये समाधान कितना सही है लेकिन ये हो सकता है कि हम स्कूलों में अलग अलग बैच बना दें और बच्चों को सुबह शाम की पाली में स्कूल बुलाएं.एक बैच में एक तरह की सामाजिक आर्थिक स्थिति के बच्चों को रखा जाए. बाकी सब चीजें वैसी ही रहे. शुरुआत में इस तरह से किया जा सकता है. बाद में जब बच्चे एक समान स्तर पर आ जाएं तो फिर उन्हे आपस में मिलाया जा सकता है.

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तस्वीर: CC/waterdotorg

इंटरव्यूः विश्वदीपक

संपादनः आभा मोंढे

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