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'शाह रुख़ मन को दिलासा देते हैं'

सचिन गौड़, बर्लिन (संपादन: आभा मोंढे)१७ फ़रवरी २०१०

हिंदी सिनेमा के अधिकतर दर्शक प्रेम कहानियों पर आधारित फ़िल्में इतनी बार देख चुके होते हैं कि कई बार शिकायती लहज़े में पूछ ही बैठते हैं कि निर्देशक उसी 'घिसे पिटे' फ़ॉर्मूले पर ही फ़िल्में क्यों बनाते हैं.

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तस्वीर: DW

लेकिन बर्लिन फ़िल्म फ़ेस्टिवल के दौरान क्लाउडे रिया से मुलाक़ात हुई तो यह जानने का मौक़ा मिला कि इन्हीं विषयों पर बनी फ़िल्में विदेशों में लोगों के दिलों को कितना प्रभावित करती हैं और भारतीय संस्कृति, जीवनशैली जानने का ज़रिया बनती हैं. क्लाउडे रिया शाह रुख़ ख़ान पर एक किताब फ्लुक एंड सेरेनडिप्टी (Fluke and Serendipity) भी लिख चुकी हैं.

Berlinale 2010 Claude Ria
क्लाउडे रियातस्वीर: DW

क्लाउडे रिया बताती हैं कि उन्होंने शाह रुख़ के बारे में तब जाना जब वह अपनी ज़िंदगी के कठिन दौर से गुज़र रही थी. ऐसी परिस्थिति में शाह रुख़ के अभिनय और फ़िल्मों ने उनका उत्साह बढ़ाया और हर उस चुनौती का सामना करने के लिए प्रेरित किया जो उन्हें ज़िंदगी को संपूर्णता से जीने से रोक रही थी.

क्लाउडे के मुताबिक़ वह शाह रुख़ के कई फ़ैन्स के संपर्क में भी आई जिससे उन्होंने जाना कि वह कितने लोगों के मन को छू रहे हैं. बस तभी से क्लाउडे भी उनकी प्रशंसक बन गई.

शुरुआत में क्लाउडे का विचार किताब लिखने का नहीं था क्योंकि वह परिवार और कई अन्य वजहों से व्यस्त थी. हालांकि इंटरनेट फ़ोरम पर वह शाह रुख़ के प्रशंसकों से बात करती रहीं. जर्मनी, मिस्त्र, लेबनान, लातिन अमेरिका, पोलैंड, फ़्रांस, तुर्की और अन्य कई देशों के इंटरनेट दोस्तों ने उनके विचारों को जान कर किताब लिखने के लिए कहा. और जब क्लाउडे को खाली समय मिला तो उन्होंने किताब लिखने का फ़ैसला कर ही लिया.

Fluke and Serendipity किताब शाह रुख़ और उनके फ़ैन्स के बारे में है. मैंने कुरेद कर किताब का संदेश पूछने की कोशिश की तो क्लाउडे ने सीधे मना कर दिया. उन्होंने कहा, "इसका संदेश मैं आपको नहीं बताऊंगी क्योंकि यह तो पाठक को अपने आप ही ढूंढना होगा. इसमें मैंने लिखा है कि शाह रुख़ लोगों के दिलोदिमाग़ पर कितना हावी हैं. मैं शाह रुख़ से मिलने मुंबई गई थी और वहां जो कुछ हुआ सब उस किताब में है."

Berlinale 2010 Claude Ria
तस्वीर: DW

मैंने क्लाउडे से पूछा कि शाह रुख़ को इतना पसंद करने की वजह क्या है तो उन्होंने एक के बाद एक वजह बतानी शुरू कर दी. उन्होंने कहा कि शाह रुख़ दर्शकों को राहत पहुंचाते हैं, उन्हें दिलासा देते हैं. वह आत्मा के बंद दरवाज़ों को खोलते हैं ख़ुश रहने का एहसास कराते हैं. बेहद कोमल भावनाओं को इस तरह से पर्दे पर उतारते हैं कि लोगों को महसूस नहीं होता कि अभिनय किया जा रहा है. दर्शकों से सीधा संवाद कर शाह रुख़ उन्हें प्रेम का संदेश देते हैं.

क्लाउडे के मुताबिक़ जर्मन लोग प्यार को दबा कर रखते हैं, उसे बाहर आने का मौक़ा नहीं देते. फिर चाहे यह जीवन शैली की वजह से हो या नियमों में बंधे होने की प्रवृत्ति. लेकिन शाह रुख़ उस दबी छुपी भावना को उभार ही लाते हैं. आख़िर प्यार की भूख़ तो सभी को होती है.

वैसे क्लाउडे यह नहीं मानती कि जर्मनी और यूरोप में हिंदी सिनेमा सिर्फ़ शाह रुख़ की वजह से ही लोकप्रिय है. क्लाउडे की राय में भारतीय फ़िल्में जीवंत, ऊर्जावान और कभी कभी बच्चों की तरह मासूम होती हैं. नाच गाने, संगीत से प्रभावित हुए बग़ैर नहीं रहा जा सकता. यह भोजन का ऐसा मेन्यू है जिसमें हर तरह के व्यंजन है और सब कुछ भावनाओं में गुंथा है. फ़िल्मों के माध्यम से दर्शक भारतीय जीवन शैली और दृष्टिकोण के दर्शन करते हैं.