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शायद ही झुके बीजेपी सरकार मुस्लिम नेतृत्व के आगे

कुलदीप कुमार१८ अप्रैल २०१६

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन बार तलाक कह तलाक देने की प्रथा के के मामले पर शरिया कानून के बचाव का फैसला किया है. कुलदीप कुमार का कहना है राजीव सरकार के विपरीत मोदी सरकार शायद ही इस मामले में झुकेगी.

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Muslimische Wählerinnen in Indien 10.04.2014
तस्वीर: Reuters

भारत का मुस्लिम समुदाय एक बार फिर दोराहे पर खड़ा है. उसके सामने दो रास्ते हैं. एक रास्ता 1400 साल पहले के कुरीतिग्रस्त अरब समाज की ओर और दूसरा रास्ता कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्त भविष्य की ओर जाता है, और उसे यह तय करना है कि वह इनमें से किस रास्ते पर कदम बढ़ाना चाहता है. एक बार फिर 1980 के दशक के मध्य की स्थिति उत्पन्न हो रही है जब मुस्लिम समुदाय और उसके नेताओं ने शाहबानो केस को बहाना बनाकर पूरे देश में बवाल खड़ा कर दिया था और तत्कालीन राजीव गांधी सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए कानून ही बदलने को विवश कर दिया था. यह सर्वविदित तथ्य है कि इसके बाद ही भारतीय जनता पार्टी बहुत बड़ी संख्या में हिंदुओं को यह समझाने में सफल हुई कि कांग्रेस सरकार मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चल रही है. अब फिर से ऐसी ही स्थिति बन रही है जब मुस्लिम समुदाय के दकियानूसी और कट्टरपंथी नेतृत्व तथा केंद्र सरकार के बीच टकराव पैदा होने की संभावना है. लेकिन इस बार केंद्र में सरकार भाजपा की है और इस बात की संभावना लगभग न के बराबर है कि वह मुस्लिम नेतृत्व के सामने झुकेगी.

भारत के मुस्लिम समुदाय में यह रिवाज है कि यदि कोई पति अपनी पत्नी के सामने तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह दे, तो उनका विवाह संबंध समाप्त हो जाता है. तकनीकी के विकास के साथ-साथ यह भी हो गया कि मुस्लिम पति फोन, ई-मेल या पत्र के जरिये भी अपनी पत्नियों को तलाक देने लगे. तलाक के बाद वे सिर्फ तीन महीने तक अपनी तलाकशुदा पत्नियों को गुजारा भत्ता देते हैं. उसके बाद वह भी बंद हो जाता है. शाहबानो ने इस गुजारा भत्ते के लिए ही केस लड़ा था जिसमें सुप्रीम कोर्ट में उसकी जीत हो गई थी. लेकिन मुस्लिम समुदाय के जबर्दस्त विरोध के सामने राजीव गांधी सरकार ने घुटने टेक दिए और मुस्लिम महिला विधेयक लाकर कानून ही बदल डाला. लेकिन इस बार मामला सिर्फ गुजारा भत्ते का ही नहीं है. सायरा बानो नामक एक महिला ने तीन बार तलाक देने की प्रथा की संवैधानिक वैधता को ही चुनौती दे डाली है और अदालत ने सरकार से इस बारे में जवाब देने को कहा है.

इस्लामी कानून के अंतरराष्ट्रीय ख्याति के विद्वान और दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय के पूर्व डीन प्रोफेसर ताहिर महमूद का कहना है कि कुरान में कहीं भी तलाक के इस तरीके को मान्यता नहीं दी गई है. कोई प्रामाणिक हदीस भी इसका समर्थन नहीं करती. तलाक देने की एक लंबी प्रक्रिया है जिसके दौरान पति को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने का पूरा मौका होता है और साथ ही मध्यस्थता की भी गुंजाइश होती है. इस बारे में यह तथ्य भी गौरतलब है कि भारत अकेला ऐसा देश है जहां तलाक की इस प्रथा को मान्यता प्राप्त है. मिस्र, ईरान, इराक, जॉर्डन, सूडान, यमन, फिलीपीन्स, सीरिया, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, मोरक्को और यहां तक कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी तलाक की इस प्रथा को गैरकानूनी करार दिया जा चुका है और वहां बाकायदा तलाक की प्रक्रिया में अदालतों का दखल है. निकाह की तरह ही तलाक की भी एक निर्धारित प्रक्रिया है जिसका सभी को पालन करना पड़ता है.

दिलचस्प बात यह है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि हमें पाकिस्तान या बांग्लादेश से कोई लेना-देना नहीं है. ये इस्लामी देश कुछ भी करें, लेकिन हम तो इस मान्यता पर अडिग हैं कि पति द्वारा एक ही साथ तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कहते ही शादी उसी क्षण खत्म हो जाती है. यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि पिछले अनेक दशकों से असगर अली इंजीनियर और उनके जैसे दर्जनों समाज सुधारक तलाक के इस रूप के विरोध में आवाज उठाते रहे हैं लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिल पायी है. प्रोफेसर ताहिर महमूद तो इस राय के हैं कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भंग कर देना चाहिए. उनकी दृढ़ मान्यता है कि भारतीय संविधान में कहीं भी किसी धार्मिक समुदाय को यह अधिकार नहीं दिया गया है कि उसके धार्मिक या व्यक्तिगत कानून का दर्जा नागरिक कानून के ऊपर होगा.

जो भी हो, आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर बहस और आंदोलन छिड़ने की पूरी संभावना है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने दो सालों के दौरान मुस्लिम समुदाय को अपने से दूर किया है और वह उसे शक की नजर से देखता है. तलाक पर विवाद इस अलगाव को और बढ़ाने वाला सिद्ध होगा.