शरणार्थी संकट ने दी उग्र दक्षिणपंथ को हवा
सीरिया के बहुत से शरणार्थी घोर कट्टरपंथी आईएस के डर से भी भाग रहे हैं. उसकी वजह से यूरोप में पैदा हुए संकट की इतिहास में कोई मिसाल नहीं है. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी में लोगों का ऐसा पलायन नहीं देखा गया है. यह यूरोपीय संघ के देशों को उनकी सहन करने की सीमा पर ले जा रहा है. जर्मनी सहित कुछ देश शरणार्थियों की मदद के लिए यथासंभव प्रयास कर रहे हैं. जर्मनी ने 2015 में 10 लाख शरणार्थियों को पनाह दी है. लेकिन हंगरी और पोलैंड जैसे देशों ने यूरोपीय देशों में शरणार्थियों को बांट कर समस्या का समाधान करने के विचार को अस्वीकार कर दिया है. ब्रिटेन का भी यही हाल है, जो अब शरणार्थी नीति के कारण यूरोपीय संघ से बाहर निकलने पर विचार कर रहा है. इन देशों की दक्षिणपंथी सरकारें शरणार्थियों के कोटा को अस्वीकार कर रही हैं. और शरणार्थियों के लिए उनका विरोध भी जगजाहिर है.
इस बात में कोई संदेह नहीं कि पिछले महीनों में यूरोप आ रहे शरणार्थियों की संख्या ने यूरोप में सत्ता संतुलन को बिगाड़ दिया है. जर्मनी के दक्षिणपंथी अटकलें लगा रहे हैं कि यदि चांसलर मैर्केल शरणार्थियों के स्वागत की नीति जारी रखती हैं तो उनकी सरकार का जाना तय है. अति दक्षिणपंथी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी पार्टी को तीन प्रांतों में होने वाले चुनावों में भारी सफलता मिलेगी. इसका श्रेय कोलोन में नए साल की रात महिलाओं पर हुए यौन हमलों को भी जाता है. फ्रांस में अगले साल होने वाले राष्ट्रपति चुनावों में उग्र दक्षिणपंथियों की स्थिति बेहतर हो रही है. दूसरी मिसालें भी हैं. हर कहीं शरणार्थी विरोधी भावनाएं बढ़ रही हैं.
शरणार्थी संकट से दूर अमेरिका में अरबपति डोनाल्ड ट्रंप सारी होशियारी को धता बताते हुए रिपब्लिकन पार्टी की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड़ में सबसे आगे चल रहे हैं. वे भी अपने चुनाव अभियान में आप्रवासियों और मुसलमानों के खिलाफ घृणा का सहारा ले रहे हैं. कभी दौड़ से बाहर का समझे जाने वाले ट्रंप के नवंबर में होने वाले चुनाव में जीतने की संभावना बढ़ रही है. उनका नुस्खा आसान है. वे अपने नीति विहीन चुनाव प्रचार के केंद्र में परायों से विद्वेष के लिए जगह बना रहे हैं.
कुल मिलाकर ये सब पश्चिम को ज्यादा असहिष्णु बना रहे हैं जो जरूरतमंदों की मदद के लिए तैयार न हो. अंगेला मैर्केल की स्वागत की संस्कृति अब अपने अंतिम चरण में है. जनमत सत्तासीन लोगों से इसमें परिवर्तन की मांग कर रही है. लेकिन बहुत से लोग इस संकट की जड़ में पश्चिम की नैतिक जिम्मेदारी को नजरअंदाज कर रहे हैं. शरणार्थियों की ये लहर पश्चिम द्वारा 2001 में अफगानिस्तान और 2003 में इराक में शुरू किए गए हस्तक्षेप की नीति का नतीजा है. इसे इतनी आसानी से नहीं भुलाया जाना चाहिए.