वीडियो: सामान नहीं हैं लड़कियां
९ फ़रवरी २०१६फास्ट फूड से लेकर कारों और कपड़ों तक हर कहीं कम कपड़े पहने महिलाएं दिखती हैं. कई बार तो समझना मुश्किल होता है कि किसी विज्ञापन के लिए महिला मॉडल को क्यों लिया गया है. खासकर ब्लेड या दाढ़ी बनाने वाले रेजर के लिए. समाचार माध्यम भी इससे अछूते नहीं हैं. लेकिन इसका विरोध भी हो रहा है. इस वीडियो के जरिए, जिसे पिछले कुछ हफ्तों में 15 लाख बार क्लिक किया गया है. यह वीडियो #WomenNotObjects अभियान का हिस्सा है, जिसे विज्ञापन एक्जक्यूटिव मडोना बैजर ने तैयार किया है. कैल्विन क्लाइन के विवादास्पद अंडरगार्मेंट विज्ञापन के लिए काम करने वाली बैजर का कहना है कि अतीत में वे भी इस समस्या का हिस्सा रही हैं, लेकिन अब वे दिखाना चाहती हैं कि इसका लड़कियों और महिलाओं पर कितना बुरा असर होता है.
विज्ञापनों में सेक्सिज्म अमेरिका के इतिहास के साथ जुड़ा रहा है, जहां विज्ञापनों की तकनीक का विकास हुआ है और महिलाओं को शुरुआती दिनों में परिवार चलाने वाले की खास भूमिका में देखा गया है और यही अपेक्षा की गई है. लेकिन 1960 और 70 के दशक में महिला आंदोलनों के विकास के साथ हालात बदले हैं और अब महिलाओं के साथ भेदभाव को हतोत्साहित किया जाता है. भारत जैसे देशों में इस तरह के विज्ञापनों के खिलाफ नैतिकता के नाम पर कभी कभी विरोध होते रहे हैं जबकि पश्चिमी देशों में महिला अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे लोग इनका विरोध करते हैं. इस विरोध के पक्ष में पर्याप्त दलीलें हैं. अमेरिका की मनोवैज्ञानिक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप में पेश करने का मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर होता है. इन तस्वीरों से आदर्श महिलाओं की एक खास तस्वीर पेश की जाती है जो युवा लड़कियों को वैसा ही होने को प्रेरित करता है और खाने की समस्याओं, आत्म सम्मान की समस्या या डिप्रेशन पैदा करता है.
अमेरिका मनोवैज्ञानिक संघ के हाल के सर्वे दिखाते हैं कि इस तरह के विज्ञापनों का बुरा असर सिर्फ महिलाओं पर ही नहीं हो रहा बल्कि कारोबार पर भी हो रहा है क्योंकि सेक्स और हिंसा की मदद से ब्रांड बनाना मुश्किल होता जा रहा है. इसका असर प्रोडक्ट की बिक्री पर भी हो सकता है क्योंकि दुनिया भर में उपभोक्ता सामग्रियों की बिक्री का 70 प्रतिशत महिलाओं के हाथों होता है.
महेश झा (यूट्यूब)