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विदेशी कंपनियों के आगे गुम होती देसी खुशबू

२२ सितम्बर २०१२

विदेशी कंपनियों के लिए दरवाजे खोलते भारत में बेहतरीन चीजों का देसी कारोबार मिटता जा रहा है. जिनके लिए कभी दुनिया पागल रहती थी, भारत की वही सौगातें सरकार की नीतियों के कारण इतिहास बनती जा रही हैं.

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तस्वीर: cc-by-sa-Eric Pouhier

बड़े शहरों की आपाधापी से दूर उत्तर प्रदेश के कन्नौज में खुशबू रचने वाले पारंपरिक हुनरमंदों की जमात अपने हुनर को जिंदा रखने के लिए भारी मुश्किलों से जूझ रही है. सामने आधुनिक कंपनियों का दानव है जो उन्हें खत्म करने बड़ी तेजी से बढ़ा चला आ रहा है. प्रगति अरोमा ऑयल डिस्टीलरी जैसे छोट कारोबारियों और अरमानी या शनेल जैसे खुशबू के बड़े व्यापारियों की जंग दरअसल पारंपरिक तरीकों और आधुनिक ताकतों की जंग है.

72 साल के लक्ष्मी नारायण ने पिछले 30 साल इत्र बनाने में बिताए हैं. तेल से बनाई जाने वाली इस सुगंध का तरीका हजारों साल पुराना है. लक्ष्मी नारायण ने बताया, "इत्र बनाना एक बेहद मुश्किल काम है, हमें अपने सहज ज्ञान पर भरोसा करना होता है, इत्र तैयार हो गया है, यह हमें उसे सूंघ कर या उसे महसूस कर के पता चलता है."डिस्टीलरी में सुपरवाइजर के रूप में काम करने वाले सुशील सिंह का मानना है कि मशीनें कभी भी अनुभवी इंसानों की जगह नहीं ले सकतीं. सुशील ने कहा, "अगर में मशीनों का इस्तेमाल करने लगूं तो खुशबू मिट जाएगी, लोग इत्र का महत्व भूल रहे हैं, लेकिन हम जानते हैं कि यह कैसे बनता है, हमारे लिए इत्र हमारी जिंदगी है."

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तस्वीर: AP

हर सुबह कन्नौज के आसपास के किसान गुलाब, चमेली और दूसरे फूलों से भरे झोले लेकर पास की डिस्टीलरी में पहुंच जाते हैं. इत्र बनाने में कई दिन लगते हैं. फूलों को पानी में मिला कर कांसे के बर्तनों में गर्म किया जाता है. खुशबूदार भाप बांस की पाइपों के सहारे एक संवाहक में पहुंचता है. इत्र के लिए चंदन का तेल मूल तत्व का काम करता है. बड़े संयम और मेहनत से तैयार हुआ इत्र सदियों से भारत भर में इस्तेमाल किया जाता रहा है, लेकिन बीते सालों में ब्रांड चाहने वाले लोगों ने विदेशी खुशबुओं का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. खासतौर से 1990 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के बाद तो इसमें और ज्यादा तेजी आ गई है. इसके साथ ही तेल जैसे कच्चे माल की कीमतें बढ़ने से इत्र बनाने वालों की मुश्किलें बढ़ गई हैं. यह तेल विदेशों से मंगाना पड़ता है क्योंकि भारत में यह अधिक मात्रा में मौजूद नहीं है. भारत में सुगंध बनाने वालों के संगठन के उपाध्यक्ष रोहन सेठ कहते हैं, "इत्र उद्योग अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है."

मध्यपूर्व से आने वाले कारोबारियों के लिए गंगा किनारे बसा शहर कन्नौज कभी भारत में इत्र, मसाले और सिल्क खरीदने का बहुत बड़ा केंद्र हुआ करता था. सातवीं सदी में हर्षवर्धन के साम्राज्य की राजधानी रहे कन्नौज में रहने वाले 17 लाख लोग इसके गौरवशाली अतीत के साक्षी रहे हैं. बाद में यहां का इत्र मुगल बादशाहों को बेचा जाने लगा. शहर में मौजूद पुराने किले और राजमहलों के अवशेष इसकी ऐतिहासिक पहचान का आज भी संकेत देते हैं. लोग बताते हैं कि फ्रांस के ग्रास शहर की आज जो ख्याति है वह कभी भारत के कन्नौज की हुआ करती थी.

1990 तक इस शहर में 700 डिस्टीलरी मौजूद थे. अब यह संख्या घट कर 150 पर सिमट आई है. रासायनिक विकल्प, और पैराफीन के बेस से बनने वाली खुशबू इत्र के मुकाबले काफी सस्ती होती है और इसलिए कारोबार के लिहाज से लोग उनकी तरफ मुड़ रहे हैं. 10 एमएल की असली इत्र की शीशी करीब 14 हजार रुपये में मिलती है जबकि रसायनों से तैयार शीशी महज 400 रूपये में ही मिल जाएगी.

एसोचैम के एक रिसर्च के मुताबिक भारत में सुगंध का सालाना कारोबार करीब 27 करोड़ डॉलर का है और इसमें हर साल 30 फीसदी की दर से इजाफा हो रहा है. इत्र और दूसरे स्थानीय सुगंध की पूरे कारोबार में हिस्सेदारी फिलहाल सिमट कर 30 फीसदी पर आ गई है. अरमानी, अजारो और बरबेरी के परफ्यूम सबसे ज्यादा बिकने वाले ब्रांड में से हैं और शहरी भारतीयों के बीच इनकी पैठ बहुत तेजी से बढ़ रही है. इत्र उद्योग से जुड़े लोगों का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय मुकाबले से इत्र को बचाने के लिए इसके दूसरे इस्तेमाल को बढ़ावा देना होगा. अरोमाथेरेपी जैसे कामों में इसे इस्तेमाल किया जा सकता है. इसमें रोगों के उपचार में खुशबूदार तेलों का इस्तेमाल किया जाता है.

एनआर/एमजे (एएफपी)