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समाज

लोकतंत्र के सबक सिखाता पूर्वोत्तर

२८ फ़रवरी २०१८

भारत के पूर्वोत्तर राज्यों का जिक्र अक्सर अलगाववादी आंदोलनों और उग्रवाद के सिलसिले में ही किया जाता है. लेकिन ये राज्य लोकतंत्र में आस्था और राजनीतिक जागरुकता की मिसाल भी हैं.

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Bangladesch indigene Volksgruppen
तस्वीर: Sanchay Chakma

एक ओर अलगाववादी आंदोलन, संप्रभुता की मांग और दूसरी ओर से देश के संविधान के प्रति आस्था जताते हुए चुनावों में बढ़-चढ़ कर भागीदारी. यह दोनों बातें सुनने में विरोधाभासी लग सकती हैं. लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में यह जमीनी हकीकत है. इस महीने इलाके के तीन राज्यों-त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय के वोटरों ने एक बार फिर इस बात को साबित किया है. लेफ्ट फ्रंट के शासनवाले राज्यों में राजनीतिक अधिकारों के प्रति जागरुकता कोई नई चीज नहीं है. पश्चिम बंगाल और केरल में चुनावों के मौके पर यह जागरुकता देखने को मिलती रही है. पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा में भी लेफ्ट कोई ढाई दशकों से सत्ता में है. नतीजतन इस राज्य में हमेशा भारी मतदान होता रहा है.

वर्ष 2008 के विधानसभा चुनावों में राज्य में 91 फीसदी मतदान हुआ था. अगली बार यानी वर्ष 2013 में यह बढ़ कर 91.8 फीसदी तक पहुंच गया. लेकिन अबकी हुए विधानसभा चुनावों में लगभग 92 फीसदी लोगों ने वोट डाल कर एक नया रिकार्ड बनाया है. त्रिपुरा के मुख्य चुनाव अधिकारी श्रीराम तरणिकांति बताते हैं, "राज्य की 59 सीटों के लिए 89.8 फीसदी वोट पड़े. लेकिन पोस्टल बैलट को जोड़ने पर यह आंकड़ा 92 फीसदी के पार पहुंच जाएगा." वह बताते हैं कि राज्य के खोवाई जिले में तो कई मतदान केंद्रों पर लोगों ने रात को एक बजे तक वोट डाले जबकि मतदान का निर्धारित समय शाम चार बजे तक ही था.

त्रिपुरा के अलावा एक अन्य उग्रवादग्रस्त राज्य नागालैंड में तमाम उग्रवादी संगठनों की सक्रियता, अलग राज्य की दशकों पुरानी मांग, चुनाव बहिष्कार की अपीलों और प्रतिकूल हालातों के बावजूद अबकी 80 फीसदी से ऊपर मतदान हुआ है. इस बार पहले तो बीजेपी समेत तमाम दलों ने चुनावों में हिस्सा नहीं लेने का एलान कर दिया था. उनकी मांग थी कि पहले दशकों पुरानी नागा समस्या का समाधान हो, उसके बाद ही चुनाव कराए जाएं. लेकिन बाद में तमाम दल चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लेने पर सहमत हो गए. राज्य में नागा संगठन काफी ताकतवर हैं और उके निर्देशों पर ही मतदान की रूपरेखा तय होती है. बावजूद इसके अगर इतना भारी मतदान हुआ तो लोकतंत्र में लोगों की आस्था समझी जा सकती है. बीते विधानसभा चुनावो में यहां 90 फीसदी वोट पड़े थे. पूर्वोत्तर का स्कॉटलैंड कहे जाने वाले मेघालय में भी अबकी मतदान का आंकड़ा 70 फीसदी के पार पहुंच गया है. तमाम समस्याओं, बेरोजगारी और पिछडेपन के बावजूद चुनावों में लोगों की भागीदारी उल्लेखनीय है.

बीते लोकसभा चुनावों में भी पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में मतदान का आंकड़ा 80 फीसदी के आस-पास रहा था. नागालैंड (87.82 फीसदी) और त्रिपुरा (85 फीसदी) जैसे राज्यों में तो इसने मतदान के राष्ट्रीय औसत 66.4 फीसदी को काफी पीछे छोड़ दिया था.

वजह

आखिर इलाके में लोकतंत्र और समाज की तस्वरी इतनी विरोधाभासी क्यों है? एक ओर अलग राज्य की मांग में होने वाले आंदोलन और दूसरी ओर लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व यानी चुनावों में देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले बढ़-चढ़ कर भागीदारी. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि इसकी जड़ें इलाके में साक्षरता दर बेहतर होने और अपने अधिकारों के प्रति सामाजिक-राजनीतिक जागरुकता में छिपी हैं. मिजोरम में राजनीतिक शास्त्र के एक प्रोफेसर डी.जी. ललथनहौला कहते हैं,  "इलाके के तमाम राज्य देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले युवा हैं. ऐसे में अलग राज्य का दर्जा मिलने के बाद पैदा होने वाली पीढ़ी अभी जवान है." वह बताते हैं कि ऐसे लोगों में साक्षरता दर बेहतर है और वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं. यही वजह है कि वह अपने मताधिकार के इस्तेमाल के प्रति काफी सचेत हैं.

मेघालय की नार्थ ईस्ट हिल यूनिवर्सिटी (नेहू) में राजनीति विज्ञान की छात्रा एम.सी. संगमा कहती हैं, "हम अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं. देश के संविधान और लोकतंत्र के प्रति इलाके के लोगों की आस्था बनी हुई है."

त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार कहते हैं, "राज्य के लोगों में साक्षरता बढ़ने के साथ अपने अधिकारों के प्रति जागरुकता भी बढ़ी है. वह जानते हैं कि मताधिकार के इस्तेमाल से समाज व राजनीति में सकारात्मक बदलाव संभव है. यही वजह है कि राज्य में हमेशा मतदान का औसत देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले ज्यादा होता है."

नागालैंड के पूर्व मुख्यमंत्री और अबकी सरकार बनाने की होड़ में सबसे आगे चल रहे नेफ्यू रियो कहते हैं, "दशकों पुरानी नागा समस्या और प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद लोग अपने लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों के प्रति काफी सजग हैं." नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) नामक नया संगठन बना कर बीजेपी के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ने वाले रियो कहते हैं कि लोगों को पता है कि उनकी समस्याएं संवैधानिक दायरे में रह कर ही हल हो सकती हैं. लेकिन क्या यह तस्वीर विरोधाभासी नहीं है? इस सवाल पर रियो कहते हैं, "ऐसा नहीं है. आंदोलन और उग्रवाद अपनी जगह है. लेकिन लोकतंत्र के प्रति इलाके के लोगों का भरोसा कम नहीं हुआ है. देश के बाकी हिस्सों की तरह राज्य में चुनावों के प्रति उदासनीता नहीं आई है."

पर्यवेक्षकों का कहना है कि पूर्वोत्तर राज्यों ने लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व में लगातार भारी तादाद में शिरकत कर एक बार फिर विविधता में एकता वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया है. देश के बाकी हिस्सों के लोग भी इलाके के लोगों की इस मानसिकता से सबक सीख सकते हैं. यह कहना ज्यादा सही होगा कि इस मामले में पूर्वोत्तर इलाका देश के बाकी राज्यों को एक नई राह दिखा सकता है.