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लोकतंत्र के मार्ग पर नेपाल का सफ़र

२९ मई २००८

सदियों तक एक हिंदू राजतंत्र रहने के बाद कल नेपाल एक संघीय गणराज्य बना. उसके राजनीतिक मार्ग में चुनौतियों और संभावनाओं पर दृष्टिपात कर रहे हैं थॉमस बैर्थलाइन.

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गणराज्य की घोषणा पर ख़ुशी मनाते नेपाल के नागरिकतस्वीर: AP

किधर जाएगा नेपाल, यही सबसे बड़ा सवाल है. नए गणराज्य में सत्ता किसके हाथों होगी? माओवादी सबसे बड़े दल के रूप में उभरे हैं, लेकिन उन्हें संविधान सभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है. सरकार बनाने के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत से तो वे काफ़ी दूर हैं.

साथ ही माओवादी अभी तक एक गठबंधन तैयार करने में सफल नहीं हुए हैं. इसके लिए ज़रूरी है कि वे दूसरे राजनीतिक दलों को कायल कर सकें, कि वे लोकतंत्र के नियमों का आदर करते हैं. क्या उन्होंने हिंसा त्याग दी है? बहुतों को अभी तक इसमें संदेह है. हज़ारों पूर्व विद्रोही हथियारों के साथ शिविरों में हैं, उनके बदनाम युवा संगठन के कार्यकर्ता आए दिन लोगों को धमकाते रहते हैं.

दूसरे दलों, ख़ासकर नेपाली कांग्रेस व कम्युनिस्ट पार्टी एमाले को भी चुनाव परिणामों से सीख लेनी पड़ेगी. चुनाव में माओवादियों की जीत सिर्फ़ धमकाकर नहीं मिली है, मूलतः यह परंपरागत दलों से मतदाताओं की निराशा का भी द्योतक है. साथ ही इन परिणामों में और एक बात उभरकर सामने आई है. सदियों से जारी काठमांडू के सवर्णों का बर्चस्व अब ख़त्म हो चुका है. माओवादियों के अलावा दूसरे दलों की ओर से भी हाशिए पर रहने वाले तथा अल्पसंख्यक वर्गों के प्रतिनिधि चुनकर आए हैं. मिसाल के तौर पर तराई इलाकों के मदहेसी.

संविधान सभा को इन नई राजनीतिक ताकतों की मांगों पर ध्यान देना होगा – यह आसान नहीं होगा. मिसाल के तौर पर कल से नेपाल एक संघात्मक गणराज्य है. यानी केंद्र और प्रांतों के बीच सत्ता का बँटवारा होगा. क्या व्यापक अधिकार क्षेत्र के साथ बड़े प्रांत बनाए जाएंगे­, जैसा कि मदहेसियों के प्रतिनिधि चाहते हैं? या राष्ट्रीय दल एक मज़बूत केंद्र बनाने की कोशिश करेंगे? विवाद के अनेक मुद्दे हैं.

इसके बावजूद आज के नेपाल में आशावादिता के साथ भविष्य की ओर देखने - जश्न मनाने के अनेक कारण हैं. 13 हज़ार लोगों की जान लेने वाला गृहयुद्ध समाप्त हो चुका है. और सबसे बड़ी बात – नेपाल आज एक गणराज्य है, जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अब उसकी किस्मत के बारे में फ़ैसला लेंगे.