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रेल हादसों पर अंकुश के लिए स्थायी उपाय नहीं

२१ अगस्त २०१७

भारत में रेल दुर्घटनाएं लगातार बढ़ती ही जा रही हैं. हर बार किसी बड़े हादसे के बाद कुछ कर्मचारियों पर इसका ठीकरा फोड़ कर पूरे मामले की लीपापोती की कवायद शुरू हो जाती है. हादसों की मूल वजहों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता.

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Indien Zugunglück
तस्वीर: Getty Images/AFP/Str

रेल सुरक्षा पर काकोदकर समिति की सिफारिशें अब भी फाइलों में धूल फांक रही हैं. तमाम रेल मंत्री क्षेत्रीय और जातीय समीकरणों का ध्यान रखते हुए हर साल नई ट्रेनें तो चलाते रहे हैं. लेकिन रेल की पटरियों का विस्तार उस अनुपात में नहीं हो सका है. नतीजतन पटरियों के रखरखाव के लिए ज्यादा समय नहीं मिल पाता.

अब एक बार फिर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के पास खतौली में हुए ट्रेन हादसे के बाद लापरवाही के आरोप में चार अफसरों को निलंबित कर दिया गया है और रेलवे बोर्ड के एक सदस्य व उत्तर रेलवे के महाप्रबंधक को छुट्टी पर भेज दिया गया है. हर बार की तरह अबकी भी रेलवे का ध्यान हादसे की मूल वजहों की ओर नहीं है. वैसे, मूल वजह तो जगजाहिर है. लेकिन जातीय समीकरणों और अफसरशाही में उलझी रेलवे की इस समस्या का शायद सरकार के पास कोई समाधान नहीं. केंद्र में सरकार बदलने के बावजूद रेलवे में सुरक्षा की स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है. आंकड़े अपनी कहानी खुद कहते हैं. केंद्र सरकार ने बीते जून में लोकसभा को बताया था कि वर्ष 2012 से 2017 यानी पांच वर्षों के दौरान देश में कुल 1011 रेल हादसे हुए हैं. अकेले इसी साल अब तक आठ बड़े रेल हादसे हो चुके हैं.

रेलवे की हालत सुधारने के लिए अनिल काकोदकर की अध्यक्षता में बनी समिति ने लगभग पांच साल पहले सौंपी अपनी रिपोर्ट में कई सिफारिशें की थीं. हालांकि रेलवे का दावा है कि उसमें से कई व्यावहारिक सिफारिशों को लागू किया जा चुका है. लेकिन उसके इस दावे का कोई ठोस आधार नहीं है. उक्त समिति की सिफारिशें फाइलों में धूल फांक रही हैं. काकोदकर ही क्यों, रेलवे में सुरक्षा बढ़ना के लिए उससे पहले भी कई समितियों का गठन किया गया था. लेकिन तमाम समितियों की सिफारिशों को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है. यूपीए सरकार के कार्यकाल में रेलवे सुरक्षा पर सुझाव देने के लिए अनिल काकोदकर समिति के अलावा रेलवे के आधुनिकीकरण के उपाय सुझाने के लिए सैम पित्रोदा समिति का गठन किया गया था. वर्ष 1962 में गठित कुंजरू कमेटी, 1968 में बांचू समिति, 1978 में सीकरी समिति, 1998 में गठित खन्ना समिति ने भी रेल में सुधार और यात्रियों की सुरक्षा के कई ठोस उपाए सुझाए थे. लेकिन उन पर अमल नहीं किया गया.

समस्या

दरअसल, रेलवे की यह स्थिति एक दिन में नहीं हुई है. केंद्र में रेल मंत्री बनने वाले तमाम नेताओं ने जातीय समीकरणों और वोट बैंक का ध्यान रखते हुए आधारभूत ढांचे की परवाह किए बिना हर साल लगातार नई ट्रेनें चलाईं. वह चाहें ममता बनर्जी हों या फिर लालू प्रसाद यादव. नतीज यह हुआ कि पटरियों पर बोझ लगातार बढ़ता रहा. ट्रेनों की तादाद बढ़ने के साथ-साथ मरम्मत व रखरखाव के लिए कर्मचारियों की कमी ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया. इसके अलावा बड़े हादसों के बाद सरकार ने उनकी जांच और सुरक्षा के उपाय सुझाने के लिए समितियों का गठन तो करती रही. लेकिन उनकी सिफारिशों को लागू करने के प्रति कोई गंभीरता नहीं दिखाई.

काकोदकर समिति ने तत्कालीन रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि रेलवे के आधारभूत ढांचे पर बोझ बहुत बढ़ गया है. इसकी वजह से ट्रैफिक के नियंत्रण के लिए पैसा और समय दोनों नहीं मिल पाता है. उसका कहना था कि रेलवे की सुरक्षा को मजबूत करने के लिए एक रेलवे सुरक्षा प्राधिकरण का गठन कर सुरक्षा आयुक्त को उसी के तहत रखा जाना चाहिए. समिति ने प्रशासनिक ढांचे में सुधार के लिए अगले पांच वर्षों में 1.40 लाख करोड़ के निवेश की सिफारिश की थी. उस रिपोर्ट में कहा गया था कि राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस के अलावा बाकी तमाम ट्रेनों में ऐसे कोचों का इस्तेमाल किया जा रहा है जो 50 किलोमीटर प्रति घंटे की गतिसीमा के लिए बने हैं. काकोदकर और पित्रौदा समितियों ने रेलवे के आईसीएफ कोचों को आधुनिकतम एलएचबी कोचों से बदलने की भी सिफारिश की थी. एलएचबी कोच हादसे की स्थिति में एक-दूसरे पर नहीं चढ़ते. इससे जान का नुकसान कम होता है. लेकिन एलएचबी कोचों की भारी कमी को ध्यान में रखते हुए फिलहाल इसमें पांच साल या उससे ज्यादा का समय लग सकता है. फिलहाल देश में महज सात हजार एलएचबी कोच हैं जबकि आईसीएफ कोचों की तादाद 50 हजार से ऊपर है. वर्ष 2019 तक आईसीएफ कोचों का उत्पादन जारी रहेगा. यानी आईसीएफ और एलएचबी कोचों का फासला कम करने में अभी और ज्यादा वक्त लगने का अनुमान है.

रिपोर्टःप्रभाकर

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तस्वीर: Getty Images/AFP/Str