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रामल्ला में 3 घंटे रह कर मोदी ने क्या हासिल किया?

हरिंदर मिश्रा
१२ फ़रवरी २०१८

हाल के महीनों में इस्राएल फलीस्तीन से भारत के संबंधों लेकर कई बार सवाल उठे. नेतन्याहू के साथ मोदी की गलबहियां लेकिन संयुक्त राष्ट्र में फलीस्तीन का समर्थन और अब फलीस्तीन की यात्रा से भारत क्या हासिल करना चाहता है.

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Indien Pakistan Premierminister Narendra Modi in Ramallah
तस्वीर: picture-alliance/Zumapress/T. Ganaim

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ऐतिहासिक फलीस्तीन यात्रा के दौरान शांतिपूर्ण माहौल में शीघ्र एक संप्रभु, स्वतंत्र फलीस्तीनी देश बनने की आशा जताई है. उन्होंने फलीस्तीनी हितों की अनवरत और अविचल तौर पर भारतीय समर्थन की प्रतिबद्धता पर भी जोर दिया. यानि कि भारत अपने पुराने स्टैंड पर अब भी कायम है. इसे कई विश्लेषकों ने इस्राएल के साथ मजबूत होते संबंधों के मद्देनजर भारत की ओर से संतुलन बनाये रखने की कोशिश बताया है.

 सवाल ये उठता है कि अगर मोदी संतुलन बनाने का प्रयास कर रहे है तो उसमे किस हद तक सफल रहे. अगर ऐसा नहीं है और वो भारत के इस्राएल और फलीस्तीन के साथ संबंधों को डी-हैफिनेट, यानी कि एक दूसरे से स्वतंत्र भाव से स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं, तो ये प्रयास किस हद तक कारगर हैं.

भारत और इस्राएल के बीच पिछले आठ महीनों के दौरान काफी गर्मजोशी दिखी है. मोदी ने जुलाई में इस्राएल का दौरा किया और उस दौरान उनके इस्राएली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ व्यक्तिगत केमिस्ट्री की बेहद चर्चा रही. ये किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की इस्राएल की प्रथम यात्रा थी और जिस गर्मजोशी के साथ दोनों नेता नजर आए उससे अटकलें लगाई जाने लगीं कि भारत अब फलीस्तीन का साथ छोड़ कर इस्राएल की और बढ़ रहा है. मगर उसके कुछ महीनों बाद ही ये भ्रम टूट गया जब संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत ने फलीस्तीनियों के पक्ष में वोट किया.

Indien Pakistan Premierminister Narendra Modi in Ramallah
तस्वीर: picture-alliance/Zumapress/T. Ganaim

नेतन्याहू ने इस पर दबी जुबां में अफसोस जाहिर किया. जनवरी में इस्राएली प्रधानमंत्री भारत पहुंचे और जिस उत्साह के साथ वहां उनका स्वागत हुआ उससे फिर भारत के इस्राएल के प्रति बढ़ते झुकाव की चर्चा शुरू हो गयी. उसके कुछ सप्ताह बाद ही मोदी के फलीस्तीन आने के फैसले ने फिर सबको अचंभित कर दिया.

भारत इस्राएली हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है और दोनों देशो के बीच स्ट्रेटेजिक संबंध हैं. मगर अरब दुनिया में भारत के लिए बहुत कुछ दांव पर है और भारतीय अल्पसंख्यक समुदाय में फलीस्तीन के प्रति सहानुभूति. ऐसे में एक दक्षिणपंथी माने जाने वाले नेता के लिए संतुलन बनाकर चलना या डी-हैफिनेट करना एक कड़ी चुनौती है.

फलीस्तीन में विशेषज्ञों की राय सुनकर एक नया पहलू सामने आया. ज्यादातर फलीस्तीनी अधिकारियों और विश्लेषकों ने कहा कि इस्राएल के साथ भारत के बेहतर संबंधों से असल में उनके देश को फायदा पहुंच सकता है और फलीस्तीनी नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा को इस्राएल के साथ शांति प्रक्रिया फिर से शुरू करने के एक अवसर के तौर पर देखता है. मोदी का इस क्षेत्र में बढ़े तनाव के बीच रामल्ला आना हुआ. वह फलीस्तीन की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं.

अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के यरुशलम को इस्राएल की राजधानी के तौर पर मान्यता देने के बाद क्षेत्र में तनाव बढ़ गया है. फलीस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन एग्जिक्यूटिव कमेटी के सदस्य अहमद मजदलानी ने कहा कि इस्राएल और भारत के बीच बेहतर संबंधों से फलीस्तीन को मदद मिल सकती है. द यरुशलम पोस्ट ने मजदलानी के हवाले से कहा, "उनके बीच बढ़ते संबंध सकारात्मक हो सकते हैं क्योंकि अब भारत का इस्राएल पर अधिक दबाव है और वह हमारे पक्ष में दबाव बना सकता है."

Indien Pakistan Premierminister Narendra Modi in Ramallah
तस्वीर: picture-alliance/Zumapress/T. Ganaim

रामल्ला में कई अधिकारियों से चर्चा के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा है कि फलीस्तीनी नेतृत्व, भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा को शांति प्रक्रिया के गतिरोध को तोड़ने में मदद करने के एक अवसर के रूप में देख रहा है. हालांकि इस्राएल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह केवल अमेरिका के नेतृत्व वाली शांति प्रक्रिया के तहत ही आगे बढ़ेगा. एक अधिकारी ने कहा, ‘‘आज वैश्विक समुदाय में भारत की व्यापक स्वीकार्यता है. उसके गणतंत्र दिवस समारोह में आसियान देशों के नेताओं की भागीदारी उसके बढ़े हुए दर्जे को स्पष्ट तौर पर दर्शाती है. ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में उसकी सदस्यता और कई प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी मौजूदगी साफ तौर पर यह दिखाती है कि आज वह एक वैश्विक खिलाड़ी है.''

इस्राएल के साथ भारत के कूटनीतिक संबंधों, मोदी की इस्राएल यात्रा को लेकर गर्मजोशी और इस्राएली प्रधानमंत्री की भारत यात्रा से ऐसा नहीं लगता कि फलीस्तीन बेचैन है. यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले एक छात्र एमान ने कहा, "यहां तक कि जॉर्डन और मिस्र के भी इस्राएल के साथ पूर्ण कूटनीतिक संबंध हैं तो भारत के क्यों नहीं हो सकते?" इस्राएल से भारत के बढ़ते संबंध के बारे में पूछे जाने पर राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने खुद कहा कि "किसी भी देश के पास दूसरे देशों से संबंध कायम करने का अधिकार है"

इस्राएल में विश्लेषकों और आम लोगों से बात कर यह समझ में आया कि वे भी भारत की मजबूरी से वाकिफ हैं और मोदी की फलीस्तीन यात्रा का उनपर कोई बड़ा असर नहीं हुआ है.

तेल अवीव विश्वविद्यालय के लेक्चरर, गेनादी श्लोम्पेर ने कहा, "अरब जगत में भारत के हितों का ख्याल करें तो ये स्पष्ट है कि भारत के लिए फलीस्तीन का त्याग कर पाना संभव नहीं है. अरब जगत भी आज फलीस्तीन के मामले पर बंटी हुई है मगर संयुक्त राष्ट्र संघ या किसी भी अन्य मंच पर उनके साथ खड़ा होना उनकी मजबूरी है. एक अच्छे मित्र के तौर पर हम भारत की दुविधा समझ सकते हैं और सभी को अपनी हितों का ख्याल रखने का अधिकार है."

भूतपूर्व कूटनीतिज्ञ लिओर वेंटराउब ने तो मोदी के इस फलीस्तीन दौरे को इस्राएल के साथ बेहतर होते संबंधों के मद्देनज़र "एक पुरस्कार" घोषित कर दिया. वह नई दिल्ली और वाशिंगटन में इस्राएल के प्रवक्ता रह चुके हैं. भारतीय मूल के यहूदी इस्राएलियों ने भी मोदी की फलीस्तीन यात्रा का स्वागत किया.

महज 5 साल की उम्र में अपने माता पिता के साथ इस्राएल आये नाओर जुड़कर का कहना है, "हम उम्मीद करते हैं कि मोदीजी शांतिपूर्ण तरीके से समाधान निकलने की बात करेंगे. भारत इस क्षेत्र में सकारात्मक भूमिका अदा कर सकता है. अगर ऐसा होता है तो हम लोगों को बेहद खुशी होगी."

मोदी ने फलीस्तीन की तीन घंटे की व्यस्त यात्रा के दौरान फलीस्तीनी नेता यासिर अराफात की समाधि पर पुष्पचक्र अर्पित किया. इस्राएली मीडिया के कुछ हिस्से में  इस पर नाखुशी जताई गई है. कई इस्राएली अराफात को इस क्षेत्र में कई निर्दोष नागरिकों की हत्या और हिंसा भड़काने के लिए दोषी मानते हैं. मगर इसके अलावा इस्राएल में मोदी की फिलिस्तीन यात्रा पर कोई असंतोष नजर नहीं आया है.

दोनों ही पक्षों की प्रतिक्रिया पर गौर करें तो ऐसा लगता है की मोदी चाहे पुराने संतुलन को बनाये रखने का प्रयास कर रहे हों या फिर डी-हैफिनेट, वो बहुत हद तक इस्राएल और फलीस्तीन, दोनों ही पक्ष के साथ मजबूत संबंध बनाए रखने में फिलहाल कामयाब रहे हैं. जहां तक फलीस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास की ओर से मध्यस्थता करने के निवेदन का सवाल है तो उस पर मोदी ने सोची समझी चुप्पी साध ली और कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की. स्पष्ट है कि इस्राएल-फलीस्तीन संघर्ष के जटिल मामले से भारत अभी भी दूरी बनाए रखना चाहता है.