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राज्यपाल की भूमिका पर प्रश्नचिह्न 

मारिया जॉन सांचेज
१७ मई २०१८

कर्नाटक में विधान सभा चुनावों के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनी बीजेपी के नेता येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाने के राज्यपाल के फैसले ने राज्यपाल के पद को ही विवादों में ला दिया है.

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Vajubhai Vala und BS Yeddyurappa
तस्वीर: IANS

कर्नाटक में चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम ने एक बार फिर राज्यपाल के पद, उसके संवैधानिक दायित्व और उसकी गरिमा पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि राज्यपाल वजुभाई वाला आज भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता हैं, वे गुजरात में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में लगभग एक दशक तक वित्तमंत्री रह चुके हैं. फिर भी उनसे उम्मीद की जा रही थी कि चूंकि वे संविधान की रक्षा करने की शपथ लेकर एक ऐसे संवैधानिक पद पर आसीन हैं जिस पर रहते हुए निष्पक्ष और तटस्थ आचरण करना उनका संवैधानिक दायित्व है, इसलिए वे संविधान के प्रति निष्ठा को अपनी दलगत निष्ठा से ऊपर रखेंगे. लेकिन उन्होंने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया और एक बार फिर यह सिद्ध हो गया कि राज्यपाल केंद्र सरकार का एजेंट है. अतीत में राज्यपालों के इस प्रकार के आचरण के अनेक उदाहरण हैं और जो भी राजनीतिक दल केंद्र में सत्तारूढ़ रहा है, उसी ने राज्यपालों को रबड़ की मुहर की तरह इस्तेमाल किया है. 

इस समय स्थिति यह है कि चित भी भारतीय जनता पार्टी की है और पट भी. बिहार, गोवा, मणिपुर एवं मेघालय में राज्यपाल ने सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के बजाय चुनाव बाद बने गठबंधनों को आमंत्रित किया. लेकिन कर्नाटक के राज्यपाल ने इसके उलट सबसे बड़े दल भारतीय जनता पार्टी को आमंत्रित किया है और उसके नेता येदियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली है हालांकि उन्हें बहुमत प्राप्त नहीं है. चुनाव के बाद बने कांग्रेस-जनता दल (एस) गठबंधन को बहुमत प्राप्त है. यही नहीं, आम तौर पर बहुमत सिद्ध करने के लिए दी जाने वाली एक सप्ताह की अवधि के बजाय येदियुरप्पा को पंद्रह दिन की मोहलत दी गयी है जिसके कारण यह चुटकुला प्रचलित हो गया है कि राज्यपाल वाला तो धन्यवाद के अधिकारी हैं कि उन्होंने बहुतमत सिद्ध करने के लिए पांच साल की मोहलत नहीं दी. 

मनोनीत राज्यपाल

दुनिया में भारत संभवतः एकमात्र ऐसा लोकतंत्र है जहां एक गैर-निर्वाचित, केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत राज्यपाल को इतने व्यापक अधिकार प्राप्त हैं कि वह जिसे चाहे सरकार बनाने के लिए बुला सकता है और जब चाहे संवैधानिक मशीनरी के ठप्प हो जाने का बहाना करके एक निर्वाचित सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश कर सकता है. इसके पीछे अंग्रेजी शासकों की नीतियों और आजादी के बाद कांग्रेस की सत्ता-लोलुपता का लंबा इतिहास है. 

अंग्रेजी शासन काफी हद तक भारत के अभिजात वर्ग के सहयोग पर निर्भर था. इसके लिए उसे नियंत्रित ढंग से भारतीयों को शासन में भी भागीदार बनाना था. इस उद्देश्य से 1935 का भारत सरकार अधिनियम बनाया गया और प्रांतों में चुनावों के आधार पर सरकारों के गठन की व्यवस्था की गयी. इन सरकारों पर केंद्र की औपनिवेशिक सरकार का नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए राज्यपाल का पद बनाया गया जिसका उस समय कांग्रेस ने जबरदस्त विरोध किया था लेकिन आजादी के बाद उसी कांग्रेस ने स्वतंत्र भारत में इस व्यवस्था को कायम रखा. संविधान सभा में इस पर मुद्दे पर बहुत तीखी और कड़वी बहस हुई लेकिन किसी की एक न चली. 

Siddaramaiah
पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैयातस्वीर: IANS

पद का दुरुपयोग

1952 में पहले आम चुनाव के बाद ही राज्यपाल के पद का दुरुपयोग शुरू हो गया. मद्रास में अधिक विधायकों वाले संयुक्त मोर्चे के बजाय कम विधायकों वाली कांग्रेस के नेता सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया जो उसी तरह विधायक भी नहीं थे जैसे उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनते समय योगी आदित्यनाथ नहीं थे. 1954 में पंजाब की कांग्रेस सरकार को ही बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के बीच मतभेद थे. 1959  में केरल की नम्बूदिरीपाद सरकार बर्खास्त की गयी. और केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा राज्यपालों को अपने एजेंट की तरह बरतने की यह सूची लंबी होती गयी. कर्नाटक की ताजा घटना को इसी श्रृंखला की एक कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए. 

अब समय आ गया है कि  राजनीतिक वर्ग, संविधानवेत्ता और जागरूक नागरिक मिलकर इस प्रश्न पर विचार करें कि क्या राज्यपाल का पद वाकई जरूरी है? क्या इसके बिना काम नहीं चल सकता? यदि इसे ख़त्म कर दिया जाए तो किस तरह की वैकल्पिक व्यवस्था बनायी जा सकती है?