नेताओं की दोस्ती से नहीं बनते राष्ट्रों के संबंध
८ अप्रैल २०१६जब देश के शीर्षस्थ विधिवेत्ता फाली एस नरीमान ने राष्ट्रपति भवन में बोलते हुए यह याद दिलाया कि लोकतंत्र में एक व्यक्ति के हाथ में कार्यपालिका की सारी शक्तियां केंद्रित नहीं होनी चाहिएं, तो सुनने वाले समझ गए कि उनका इशारा किस तरफ है. जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब वे अफसरों के साथ सीधा संपर्क कायम किए रहते थे और सभी विभागों में फैसले उनकी राय से ही लिए जाते थे. मंत्रियों की भूमिका गौण हो गई थी. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपनी कार्यशैली में कोई बदलाव नहीं किया. लेकिन भारत सरकार की घरेलू और विदेश नीति को केवल एक व्यक्ति द्वारा चला सकना संभव नहीं है, और यह बात उन्हें अब तक समझ में नहीं आई है.
मोदी के नाकाम प्रयास
नरेंद्र मोदी ने सोचा कि यदि विदेशी नेताओं के साथ दोस्ती और आत्मीयता के अनौपचारिक संबंध स्थापित कर लिए जाएं, तो इससे भारत और उनके देशों के बीच संबंध भी अच्छे हो जाएंगे. प्रधानमंत्री बनने से पहले उन्हें विदेश नीति का कोई अनुभव नहीं था. उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को 'बराक' कहकर अपनी बेतकल्लुफी जाहिर की (और इसके लिए देश-विदेश में उनका मखौल भी उड़ाया गया), चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ साबरमती के तट पर झूले में पींगे बढ़ाईं और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पोती की शादी में अचानक बिन बुलाए पहुंच कर परिवार के सदस्य जैसी घनिष्ठता दर्शायी. लेकिन इस सब का असर कुछ भी नहीं हुआ क्योंकि राष्ट्रों के संबंध उनके हितों पर आधारित होते हैं, नेताओं के बीच दोस्ती पर नहीं. यही कारण है कि भारत की विदेश नीति इस समय जितने बुरे हाल में है, वैसे हाल में वह कभी नहीं रही.
अमेरिका उच्च तकनीकी के हस्तांतरण के लिए कठिन शर्तें रखता रहा है और अभी भी वह कोई ढील देने को तैयार नहीं है. चीन ने एक बार फिर पाकिस्तान-स्थित आतंकवादी सरगना मसूद अजहर के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने को वीटो कर दिया है. और अब पाकिस्तान ने घोषणा कर दी है कि वह भारत के साथ कोई संवाद नहीं चाहता.
वादे के भरोसे बैठा भारत
प्रधानमंत्री बनने के पहले नरेंद्र मोदी पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देने की बात किया करते थे. लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इसके ठीक उल्टा रवैया अपनाया. अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को बुलाया, पठानकोट में वायुसेना के अति संवेदनशील ठिकाने पर आतंकवादी हमला हो जाने के बाद भी पाकिस्तान के जांच दल को वहां जाने की अनुमति दी जबकि उस दल में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का एक अफसर भी शामिल था.
इस अभूतपूर्व छूट के बावजूद पाकिस्तान ने भारतीय जांच दल को अपने यहां आने की अनुमति देने से साफ इंकार कर दिया. और पाकिस्तान के उच्चायुक्त अब्दुल बासित ने तो यह कह कर जले पर नमक ही छिड़क दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद स्थगित है और विदेश सचिव स्तर की वार्ता नहीं होने जा रही. जवाब में भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि पाकिस्तान ने वार्ता जारी रखने का वादा किया था और वह होनी चाहिए. यानि अब हालत यह हो गई है कि पहले जहां पाकिस्तान वार्ता के लिए अनुनय-विनय किया करता था, वहीं अब भारत उससे बातचीत जारी रखने की भीख मांग रहा है. विदेश नीति की विफलता का इससे बड़ा सुबूत और क्या हो सकता है?
लप्पी-झप्पी से कोई फायदा नहीं
पाकिस्तान के अंदरूनी घटनाक्रम और भारत के प्रति उसके ताजा रवैये से पूरी तरह स्पष्ट हो गया है कि अब वहां निर्वाचित सरकार का शासन केवल एक आवरण है जिसके पीछे बैठकर सेना ही सत्ता के सारे सूत्रों को संचालित कर रही है. शरीफ खानदान की इच्छा के विरुद्ध पंजाब में कुछ आतंकवादी संगठनों के खिलाफ सेना का अभियान और भारत के प्रति बदली नीति इसका ताजातरीन प्रमाण है.
पाकिस्तानी मामलों की अमेरिकी विशेषज्ञ क्रिस्टीन सी फेयर का निष्कर्ष है कि यदि कश्मीर भी पाकिस्तान को मिल जाए, तब भी भारत के प्रति पाकिस्तानी सेना का शत्रुता भाव कम नहीं होने वाला और दोनों देशों के बीच संबंध सुधरने नहीं वाले. युद्धों में लगातार हारने का भी उस पर कोई असर नहीं होगा क्योंकि पाकिस्तानी सेना केवल तभी हार मानेगी जब वह युद्ध करने के कतई काबिल नहीं रहेगी. जब तक ऐसी स्थिति नहीं आती, वह भारत के खिलाफ 'जिहाद' के नाम पर आतंकवाद का इस्तेमाल करती रहेगी.
अभी भी वक्त है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस हकीकत को समझें कि देशों के बीच संबंध आपसी हितों की पूर्ति और लेन-देन के आधार पर बनते-बिगड़ते हैं. 2001 के बाद से भारत-पाक संबंधों में कोई खास सुधार नहीं आया है. न व्यापार बढ़ा है और न ही सियाचिन पर ही कोई सहमति बन पायी है. स्पष्ट है कि लप्पी-झप्पी के आधार पर कूटनीति को नहीं चलाया जा सकता. पाकिस्तान के ताजा रुख से उन्हें यह समझने में मदद मिल सकती है.
ब्लॉग: कुलदीप कुमार